Sunday, November 13, 2011

क्या यह आर्थिक शक्ति का अश्लील प्रदर्शन है !



आख़िरकार तमाम ब्रेकरों को पार करते हुए बुद्धा सर्किट में फॉर्मूला वन रेस का महाआयोजन संपन्न हो गया. रेस के बाद अंतराष्ट्रीय पॉप स्टार लेडी गागा का शो भी धूमधड़ाके के साथ रात भर चला. हालांकि शुरुआत में रेसिंग ट्रैक पर अचानक कुत्ता घुस जाने, प्रेस कांफ्रेंस के दौरान बिजली गुल होने और मीडिया सेंटर में चमगादड़ उड़ता दिखने के कारण कुछ आशंकाएं ज़रूर उठीं, लेकिन फॉर्मूला वन रेस संपन्न हो गईं. सचिन तेंदुलकर ने हरी झंडी दिखाई, वहीं उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने तीनों विजेता रेसरों को ट्रॉफी से नवाजा. रफ्तार और रोमांच की इस रेस में जर्मनी के 24 वर्षीय सेबस्टियन वेटल सब पर भारी पड़े. रेड बुल टीम के इस विश्व चैंपियन ड्राइवर ने प्रतिष्ठा के अनुरूप प्रदर्शन करते हुए बुद्धा इंटरनेशनल सर्किट पर आयोजित पहली इंडियन ग्रां प्री जीत ली. 

मैक्लारेन के ड्राइवर ब्रिटेन के जेंसन बटन दूसरे और फेरारी के  सवार स्पेन के फर्नांडो अलोंसो तीसरे स्थान पर रहे. घरेलू टीम सहारा फोर्स इंडिया के लिए भी यह रेस उपलब्धि भरी रही. इसके ड्राइवर एड्रियन सुतिल ने 9वें स्थान पर रहकर दो अंक अर्जित किए. भारत के दिग्गज फॉर्मूला वन रेसर नारायण कार्तिकेयन ने 17वां स्थान हासिल किया. रेस की शुरुआत से ही वेटल ने बढ़त हासिल की और अंत तक उसे बरक़रार रखा. 60 लैप की इस रेस में कोई भी ड्राइवर उन्हें चुनौती देता नज़र नहीं आया.

 देश-विदेश से आए दर्शकों का उत्साह देखते हुए एफ-वन के बाद बुद्धा इंटरनेशनल सर्किट पर मोटो जीपी मोटरसाइकिल रेस कराने की तैयारी शुरू हो गई है. सूत्रों के मुताबिक़, मार्च 2012 तक लोग मोटरसाइकिल रेस का भी आनंद ले सकेंगे. वहीं अक्टूबर 2012 में फिर एफ-वन रेस का आयोजन होगा. यमुना एक्सप्रेस-वे के किनारे स्थित जेपी स्पोट्‌र्स कांप्लेक्स में एफ-वन ट्रैक के निर्माण के साथ ही मोटरसाइकिल रेस कराने की भी तैयारी शुरू हो गई थी. रेस के लिए कंपनी को अभी इंटरनेशनल मोटो स्पोट्‌र्स से अनुमति नहीं मिल पाई है. कंपनी के अधिकारियों के मुताबिक़, मोटो जीपी की अनुमति जल्द मिल जाएगी

इस तरह के आयोजन में होने वाले फायदे को देखते हुए स्पोट्‌र्स कार कंपनी फरारी ने बुद्धा इंटरनेशनल सर्किट में प्रशिक्षण कार्यक्रम और एक चैलेंजर सीरीज कराने की योजना बनाई है. फरारी स्पा के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमेदेव फेलिसा के मुताबिक़, हमारा विचार है कि क्यों न हम भी अपनी चैलेंजर सीरीज रेसिंग प्रतिस्पर्धा और ग्राहक प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू करें, क्योंकि भारत में एक विश्वस्तरीय ट्रैक उपलब्ध है.

लेडी गागा के शो में जिस तरह ग्लैमर का तड़का लगाती सेलेब्रिटीज नज़र आईं, वैसे तो एकबारगी लगा कि मानों आईपीएल का जश्न मनाया जा रहा हो. ऐसा लगना इसलिए लाज़िमी है, क्योंकि पूरे आयोजन में जिस तरह पैसा, ग्लैमर और पार्टी का कॉकटेल दिखा, उसका ट्रेंड भारत में आईपीएल के फटाफट क्रिकेट ने ही शुरू किया है. आपको याद होगा कि पिछली बार आईपीएल में लेडी गागा की तरह अंतरराष्ट्रीय पॉप सिंगर एकॉन का शो रखा गया था. रेस के बाद हुई पार्टी में लेडी गागा ने जहां एक ओर सभी को लुभाया, वहीं अपने आपत्तिजनक माइक के ज़रिए विवाद भी खड़ा कर दिया. पुरुष जननांग के  आकार के माइक पर अब काफी शोर मच रहा है, लेकिन जो लोग लेडी गागा को जानते हैं, उन्हें उनके इस क़दम से कोई आश्चर्य नहीं होगा.

 गागा के लिए ऐसा विवाद नया नहीं है. वह इससे पहले भी कई बार अश्लीलता की हद पार कर चुकी हैं. गागा पर अमेरिका में पॉप के ज़रिए पॉर्न को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे हैं. उनके कई गाने बच्चों के लिए प्रतिबंधित किए गए हैं. जिस तरह आईपीएल में विभिन्न टीमों के मालिक अपनी-अपनी टीम के साथ मौजूद थे, उसी तरह विजय माल्या और सुब्रतो रॉय समेत कई मालिक अपने टीम रेसरों के साथ ग्रेटर नोएडा में मौजूद थे और साथ में थीं सचिन, शाहरुख, प्रीति, अर्जुन रामपाल, दीपिका, सोनम और अनिल कपूर जैसी हस्तियां. नजारा भी वही और शक्लें भी वही. कुल मिलकार इसे आईपीएल का एक्टेंडेड वर्जन कहा जा सकता है.



ग़ौर करने वाली बात यह है कि बुद्धा सर्किट में फॉर्मूला वन रेस के इस महाआयोजन में केंद्रीय खेल मंत्री अजय माकन को आमंत्रित नहीं किया गया. हालांकि आयोजकों की ओर से कहा गया कि उन्हें पास भेजे गए थे, लेकिन अजय माकन कहते हैं कि उन्होंने आयोजकों को 100 करोड़ रुपये की कर माफी नहीं दी, इसलिए उनके साथ इस तरह का व्यवहार हुआ. बात स़िर्फ वर्तमान खेल मंत्री तक सीमित नहीं है. अभी हाल में जब पूर्व केंद्रीय खेल मंत्री मणिशंकर अय्यर से इस विषय पर चर्चा हुई तो उन्होंने इस फॉर्मूला वन रेस को बेतुका खेल बता डाला. उनके मुताबिक़, रेसिंग बेहद बेतुका खेल है और इससे बड़ी मात्रा में रबर और ईंधन की बर्बादी होती है, जिन्हें आयात करना पड़ता है. फॉर्मूला वन को कर माफी के सवाल पर उन्होंने कहा, यह ट्रैक किसानों से अधिग्रहीत ज़मीन पर बनाया गया है और अधिग्रहण भी औने-पौने दामों पर किया गया. इसके बावजूद एफ वन के आयोजक चाहते हैं कि उन्हें इसके प्रचार-प्रसार के लिए कर में पूरी छूट दे दी जाए. यह कहीं से जायज़ नहीं है. इस तरह के खेलों के लिए टैक्स माफी जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए.

 एफ वन को बेवजह प्राथमिकता दी जा रही है. यह हमारी आर्थिक ताक़त का अश्लील प्रदर्शन है और पता नहीं, हम किस तरह की संस्कृति को प्रोत्साहित करने में लगे हुए हैं. इस बात से सभी वाक़ि़फ हैं कि ऐसे खेलों के आयोजन का मक़सद एक ख़ास वर्ग का शौक पूरा करना होता है, लेकिन इन चकाचौंध भरे कार्यक्रमों की रोशनी तले कितने किसानों और खेतों का ख़ात्मा होता है, उस तऱफ लोगों की नज़र नहीं जाती. जेपी ग्रुप के स्पोट्‌र्स कांप्लेक्स पर नज़र दौड़ाई जाए तो मालूम होगा कि कितना बड़ा भूभाग इस तमाशे की शोभा ब़ढा रहा था. जिस देश में लोग दो जून की रोटी और सिर ढकने के लिए एक छत के लिए तरस रहे हों, वहां ऐसे तमाशों के स्थान पर कई दूसरे महत्वपूर्ण काम किए जा सकते हैं. मणिशंकर की बात भले ही थोड़ी दकियानूसी लगती हो, लेकिन उनकी बातों पर ग़ौर करना चाहिए.

यह ट्रैक किसानों की ज़मीन का औने – पौने दामों पर अधिग्रहण करके बना है. इस तरह के खेलों के लिए टैक्स मा़फी जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए.
- मणि शंकर अय्यर

मैं कोई स्टार-आइटम गर्ल नहीं हूं, जो मुझे निमंत्रण मिले. जब हम उन्हें टैक्स में मा़फी नहीं दे रहे हैं तो उनसे निमंत्रण की उम्मीद भी नहीं कर सकते.
- अजय माकन

Wednesday, November 9, 2011

सोलर लैम्प प्रोजेक्ट : जिंदगी संवारती रोशनी



बचपन से ही विकलांगता से अभिशप्त लोग हमेशा किसी अन्य की मदद के मोहताज रहते हैं. उनके लिए न कोई सरकारी योजनाएं बनाई जाती हैं और न उन्हें सहारा देने के लिए परिवारीजन ही आगे आते हैं. ऐसे में उनका जीवन अभिशप्तता के उस जाल में उलझ जाता है, जिससे बाहर निकलना उनके लिए नामुमकिन होता है. ऐसे में मोरारका फाउंडेशन की महत्वाकांक्षी सोलर लालटेन परियोजना उम्मीद की किरण लिए पूरे परिदृश्य को किस तरह बदल रही है, यह बताने की शुरुआत हम नवलगढ़ के घोड़ीवारा से करते हैं.

 ऊपरी तौर पर तो यह एक सामान्य गांव की परिभाषा गढ़ता दिखाई देता है, लेकिन जब हम इस गांव की नीलम कंवर की दास्तां सुनते हैं तो एक नई और अनोखी तस्वीर दिखाई देती है. नीलम कंवर के पास न तो ज़मीन का कोई टुकड़ा है और न परिवार चलाने के लिए दो जून की रोटी का इंतज़ाम. उसकी मुश्किलें यहीं पर ख़त्म नहीं होती हैं. नीलम अब तक एक आशियाने के लिए तरस रही है और इससे भी बड़ा घाव विकलांगता का. वह बचपन से ही पोलियोग्रस्त है. ऐसे में उसका दु:ख-दर्द हर कोई समझ सकता है, पर यहां कहानी त्रासदी और अभिशाप की नहीं, बल्कि उस वरदान की है, जो उसे मोरारका फाउंडेशन से इस योजना के रूप में मिला है. नीलम की ज़िंदगी में मोरारका फाउंडेशन ने ख़ुशहाली की दस्तक दी है.

 दरअसल मोरारका फाउंडेशन ने विकलांग युवाओं के लिए सौर ऊर्जा के इस्तेमाल और उसे रोज़गार का माध्यम बनाने की एक योजना बनाई, जिसके तहत नीलम का चयन हुआ. ग़रीबी, विकलांगता और बेरोज़गारी की मार जिन लोगों पर पड़ती है, उनके लिए एक ख़ुशहाल जीवन की कल्पना करना बेमानी हो जाता है, लेकिन अगर सोच सही हो और सच्चे मन से प्रयास किया जाए तो बदहाल ज़िंदगी को भी ख़ुशहाल बनाया जा सकता है. शेखावाटी के बेरोज़गार एवं विकलांग युवकों को ही लें, कल तक ज़िंदगी इनके लिए बदरंग और अंधकारमय थी, लेकिन मोरारका फाउंडेशन के एक प्रयास ने इनकी ज़िंदगी में इंद्रधनुषी रंग भर दिए और रोशनी भी. योजना के अंतर्गत फाउंडेशन की ओर से नीलम को एक सौर ऊर्जा पैनल दिया गया और 25 सौर ऊर्जा चालित लालटेन. नीलम को सौर ऊर्जा लालटेन के बारे में बाकायदा प्रशिक्षण भी दिया गया. इससे उसे न स़िर्फ रोज़गार मिला है, बल्कि घोड़ीवारा के आसपास के गांवों के लोगों को भी अंधेरे से निजात मिल गई. इलाक़े के ज़्यादातर गांवों में बिजली आपूर्ति नियमित नहीं है, इसलिए छात्र और किसान नीलम से सौर ऊर्जा चालित लालटेन किराए पर ले जाते हैं. दुकानों के अलावा शादियों-समारोहों के सीजन में भी सौर लालटेनों की मांग बढ़ जाती है. इसके एवज में नीलम को प्रति लालटेन एक रात के 10 रुपये मिल जाते हैं.



 नीलम के मुताबिक़, वह लालटेन किराए पर देकर हर महीने लगभग दो हज़ार रुपये कमा लेती हैं. इसके साथ ही नीलम सौर ऊर्जा के उपयोग से संबंधित जानकारी जुटाकर गांव के लोगों को जागरूक भी कर रही हैं. अगर कोई नीलम से उनकी मुश्किलों के बारे में पूछता है तो वह उसे अपनी इस क़ामयाबी की दास्तां सुना देती हैं. नीलम बताती हैं कि फाउंडेशन की इस पहल ने किस तरह उनके जीवन के अभिशापों को वरदान में तब्दील कर दिया. मोरारका फाउंडेशन का यह कारवां कटरथला में नहीं रुकता. यह एक गांव से दूसरे गांव होते हुए हर उस असहाय युवक-युवती तक पहुंचता है, जिसे सहारे और आत्मनिर्भरता की ज़रूरत है. इसी उद्देश्य से इस बार यह कारवां जा पहुंचा कोलसिया गांव में. इस गांव के राधेश्याम की कहानी नीलम और कालू से अलग नहीं है. राधेश्याम भी पोलियो की चपेट में है. पिता का साया सिर से उठ चुका है. इससे उसकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई. शेखावाटी की नवलगढ़ तहसील के कटरथला गांव निवासी कालू भाट की कहानी भी नीलम जैसी है. कालू भी बचपन से ही विकलांग है. ज़िम्मेदारियों के नाम पर उसके परिवार में 8 सदस्य हैं. वह 9 भाई-बहनों में सबसे बड़ा है. ग़रीबी की वजह से पढ़ाई भी अधूरी रह गई थी. ज़मीन के नाम पर भी कुछ नहीं है.

 पिता मज़दूरी करके किसी तरह परिवार चला रहे थे. नौ सदस्यों वाले इस परिवार के भरण-पोषण का भार कालू पर ही है. एक दौर ऐसा भी आया, जब कालू अपने इस असहाय और नीरस जीवन से तंग आकर कोई भी ़फैसला नहीं कर पा रहा था. इससे पहले कि कालू किसी नतीजे पर पहुंचता, फाउंडेशन ने अपनी इस योजना में उसे भी भागीदार बना लिया. कालू को भी एक सौर ऊर्जा पैनल दिया गया और प्रशिक्षित किया गया. अब कालू को प्रति लालटेन एक रात के 10 रुपये मिल जाते हैं. वह छात्रों को किराए में रियायत भी देता है. आज कालू अपने इस नए रोज़गार से काफी ख़ुश है. अब वह अपने परिवार की सारी ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाने के लायक़ हो गया है. आत्मनिर्भर हो चुका कालू अपनी इस नई ज़िंदगी का श्रेय मोरारका फाउंडेशन को देता है. कालू के जीवन का उजाला पूरे परिवार को रोशन कर रहा है. लालटेन को किराए पर देने से कालू को जो आय होती है, उससे वह अपने भाई-बहनों को पढ़ाता है. वह चाहता है कि उसका परिवार उसी की तरह अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे. फाउंडेशन को धन्यवाद देते हुए कालू की मां बनारसी कहती हैं कि इन लोगों ने हमारी बहुत मदद की, अब हम बहुत ख़ुश हैं. मोरारका फाउंडेशन का यह कारवां कटरथला में नहीं रुकता. यह एक गांव से दूसरे गांव होते हुए हर उस असहाय युवक-युवती तक पहुंचता है, जिसे सहारे और आत्मनिर्भरता की ज़रूरत है.

 इसी उद्देश्य से इस बार यह कारवां जा पहुंचा कोलसिया गांव में. इस गांव के राधेश्याम की कहानी नीलम और कालू से अलग नहीं है. राधेश्याम भी पोलियो की चपेट में है. पिता का साया सिर से उठ चुका है. इससे उसकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई. कहने के लिए तो राधेश्याम दसवीं पास है, लेकिन यह आज के स्पर्धा भरे युग में कोई बहुत बड़ी डिग्री नहीं है. नतीजतन, वह बेरोज़गारी की मार का शिकार था. पांच बहनों और मां की ज़िम्मेदारी भी विकलांग राधेश्याम पर है. अपने दोनों पैर गंवा चुके राधेश्याम के कंधों पर इतनी सारी ज़िम्मेदारियों का बोझ है कि अच्छा- खासा कमाने वाला भी हार मान जाए, लेकिन इससे पहले कि उसे किसी विषम परिस्थिति का सामना करना पड़ता, मोरारका फाउंडेशन की इस महत्वाकांक्षी योजना ने उसके जीवन में दस्तक दी. यही दस्तक राधेश्याम को एक मुकम्मल मंजिल तक ले गई. सौर लैंप योजना के तहत राधेश्याम को भी 25 सौर लालटेन और एक सौर ऊर्जा पैनल मिला. इसके अलावा इस बात को ध्यान में रखते हुए कि विकलांगता उसकी पढ़ाई के रास्ते में रोड़ा न बने, फाउंडेशन ने उसे ट्राई साइकिल दी.



 अब वह आसानी से कहीं भी आ-जा सकता है. फाउंडेशन के प्रयासों का नतीजा है कि आज राधेश्याम बाकायदा स्कूल जाकर अपनी पढ़ाई पूरी कर रहा है. पढ़ाई के साथ-साथ वह लालटेन किराए पर देता है, जिससे उसे हर माह लगभग दो-तीन हज़ार रुपये की आमदनी हो जाती है और वह न स़िर्फ अपने परिवार का भरण-पोषण आसानी से कर लेता है, बल्कि स्वाभिमान के साथ अपनी ज़िंदगी बसर कर रहा है. जाहिर है, अब उसे मदद के लिए किसी का मुंह नहीं ताकना पड़ता. मोरारका फाउंडेशन की इस विकास यात्रा के तीन प्रमुख नायक नीलम कंवर, कालू भाट और राधेश्याम आज मिसाल बनकर पूरे नवलगढ़ में चर्चा का विषय बने हुए हैं. लोग आज तीनों की बदली हुई ज़िंदगी देखकर हैरान हैं और ख़ुश भी.

 इन तीनों की आंखों में एक बेहतर भविष्य का जो सपना पल रहा था, उसे साकार किया एम आर मोरारका फाउंडेशन ने. फाउंडेशन ने अपने इस प्रयोग की सफलता को देखते हुए आसपास के गांवों में भी नीलम, राधेश्याम और कालू जैसे युवाओं को आत्मनिर्भर बनाने की मुहिम शुरू कर दी है. इसके लिए इन तीनों के इस नए रोज़गार का प्रचार किया जा रहा है, पर्चे आदि बांटे जा रहे हैं, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग इस योजना से लाभांवित हों. इतना ही नहीं, अब तो नवलगढ़ तहसील के सभी गांवों को सौर ऊर्जा क्षेत्र बनाए जाने पर विचार किया जा रहा है. मोरारका फाउंडेशन ने अपने अभियान के ज़रिए कई और विकासपरक कार्य किए हैं. पहला काम यह कि बेरोज़गार एवं विकलांग युवाओं को रोज़गार दिलाना. दूसरा, उन लोगों का नज़रिया बदलना, जो अपनी शारीरिक अक्षमता को अभिशाप समझते हैं. इसके अलावा सौर ऊर्जा को रोज़गार के साधन में बदलने का काम एक नसीहत है उन सभी ग्रामीण क्षेत्रों के लिए, जहां आज भी बिजली की व्यवस्था नहीं है.
 शाम होते ही अंधेरे के आगोश में लुप्त हो जाने वाले इन गांवों में अगर यह योजना लागू की जाती है तो न स़िर्फ वहां रोशनी फैलेगी, बल्कि हर गांव के कालू, नीलम और राधेश्याम जैसे विकलांग, बेरोज़गार और बेसहारा लोगों को अपने पैरों पर खड़े होने में मदद भी मिलेगी.

Sunday, November 6, 2011

रफ्तार के जानलेवा खेल



जहां एक तऱफ भारत में पहली बार फॉर्मूला रेसिंग के आयोजन को लेकर लोगों में उत्साह और खुशी है. वहीं बहुत सारे देश ऐसे भी हैं, जहां रफ्तार के इस खेल ने लोगों को मातम में डूबो दिया. जी हां, बात चाहे फॉर्मूला रेस की हो या फिर बाइक रेसिंग की, दोनों ही खेलों ने हाल में कई घरों के चिराग़ बुझा दिए हैं. रफ्तार के नशे से भरे ये खेल इतने घातक कभी नहीं थे, जितने आजकल हैं. जब पिछले दिनों एक हादसे में ब्रिटिश ड्राइवर की मौत हुई थी, तब शायद लोग इस बात से बिल्कुल नावाक़ि़फ थे कि आगे आने वाले समय में यह बेलगाम रफ्तार कई और जानें लेगी. एक हफ्ते में जिस तरह से लगातार दो खिलाड़ियों की मौत हुई है,

 उसने कई सवाल ख़ड़े किए हैं. बात चाहे कार रेसिंग में फॉर्मूला की हो या फिर बाइक रेसिंग की. दोनों ही खेलों ने अलग-अलग घटनाक्रमों में दो ऐसे लोगों की जान ली है, जो अपने करियर के बेहतरीन दौर से गुज़र रहे थे. अब सवाल यह है कि जब इस खेल में अनियंत्रित रफ्तार का नशा इतना खतरनाक रूप ले लेता है, तो फिर सुरक्षा के सही इंतज़ाम क्यों नहीं किए जाते हैं. ज़ाहिर सी बात है, अगर एक हफ्ते में दुर्घटनाओं में दो लोगों की मौत हो जाए तो मामले की गंभीरता का अंदाज़ा हर किसी को हो जाना चाहिए. ऐसा नहीं है कि दुर्घटनाएं इससे पहले नहीं हुई. लेकिन पहले के हादसों में चोटें लगती रही है. इसलिए सुरक्षा के मसलों पर इस तरह के सवाल नहीं उठाए गए लेकिन अब सवाल खिलाड़ियों की मौत का है. मामला उठा लास वेगस इंडीकार 300 रेस में ब्रिटिश ड्राइवर डैन व्हेलडन की मौत से. रेस के आख़िरी लैप में 15 कारें जब भिड़ी तो अहसास हो गया था कि दुर्घटना ख़तरनाक है. 77 नंबर की गाड़ी से पहचाने जाने वाले व्हेलडन के  आगे चार कारें टकराईं. टक्कर के बाद कारों में आग लग गई. उन दो कारों को बचाने के  चक्कर में एक ड्राइवर ने स्पीड कम कर बाएं मुड़ने की कोशिश की तो बायीं तऱफ से आ रही कारें आपस में भिड़ गईं. ऐसा नहीं है कि दुर्घटनाएं इससे पहले नहीं हुईं, लेकिन पहले के हादसों में चोटें लगती रही हैं. इसलिए सुरक्षा के मसले पर इस तरह के सवाल नहीं उठाए गए,


 लेकिन अब सवाल खिलाड़ियों की मौत का है. मामला उठा लास वेगस इंडीकार 300 रेस में ब्रिटिश ड्राइवर डैन व्हेलडन की मौत से. रेस के आखिरी लैप में 15 कारें जब भिड़ीं तो अहसास हो गया था कि दुर्घटना खतरनाक है. 77 नंबर की गाड़ी से पहचाने जाने वाले व्हेलडन के आगे चार कारें टकराईं. टक्कर के बाद कारों में आग लग गई. उन दो कारों को बचाने के  चक्कर में एक ड्राइवर ने स्पीड कम कर बाएं मुड़ने की कोशिश की तो बायीं तऱफ से आ रही कारें आपस में भिड़ गईं. व्हेलडन इसी का शिकार बने. उनकी कार कई मीटर तक हवा में उड़ी और फिर किनारे लगी बाड़ से टकरा गई, जिससे उसमें आग लग गई. इमरजेंसी गाड़ियां तुरंत ट्रैक पर पहुंचीं, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. व्हेलडन बुरी तरह झुलस चुके थे. हेलीकॉप्टर से उन्हें अस्पताल ले जाया गया, जहां दो घंटे बाद डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया. ग़ौरतलब है कि डेन व्हेलडन दो बार इंडियाना पोलिज 500 के चैंपियन रह चुके हैं. इसके अलावा वह 16 बार इंडी कार रेस जीत चुके हैं. हालांकि इससे पहले 2006 में वह एक और बड़े हादसे का शिकार हुए थे. उन्हें कहां पता था कि करियर के चरम पर जिस रफ्तार से वह आगे ब़ढ रहे हैं, वही रफ्तार एक दिन उन्हें इस ट्रैक से हमेशा के लिए अलविदा कर देगी. अभी डैन व्हेलडन की मौत का मामला ठंडा भी नहीं हुआ था कि एक बार फिर से रफ्तार ने एक और रेसर की जान ले ली.

 इस बार का हादसा कार रेस का ट्रैक न होकर बाइक रेसिंग ट्रैक का था. इस बार दुर्घटना का शिकार बने इटली के बाइक रेसर मार्को सिमोनसेली. अजीब संयोग है, 2008 में मलेशिया के जिस सर्किट पर सिमोनसेली वर्ल्ड चैंपियन बने थे, उसी ट्रैक पर उन्होंने अपने जीवन की आ़िखरी रेस पूरी की. मार्को अभी 24 साल के ही थे. मार्को सिमोनसेली मलेशियन मोटो जीपी के दूसरे ही लैप में हादसे का शिकार हो गए. तीखे मोड़ पर बाइक सिमोनसेली के नियंत्रण से बाहर हो गई. उनके पीछे चल रहे अमेरिकी बाइकर कॉलिन एडवडर्स और इटली के वैलेटिनो रोसी की त़ेज रफ्तार मोटरसाइकिलें पलक झपकने से पहले ही सिमोनसेली से टकरा गईं. एडवडर्स की मोटरसाइकिल ट्रैक पर फिसल रहे सिमोनसेली के सिर और धड़ से टकराई. टक्कर कितनी ज़ोरदार थी, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब टक्कर हुई तो सिमोनसेली का हेलमेट उनके सिर से निकलकर दूर छटक गया. उनके साथी प्रतियोगी भी इस टक्कर में ट्रैक पर फिसले, लेकिन उन्होंने अपना नियंत्रण नहीं खोया, लेकिन इस मामले में मार्को बहुत ज़्यादा भाग्यशाली नहीं रहे. अभी हाल की बात की जाए तो फॉर्मूला वन ड्राइवर रॉबर्ट कूबिका भी इस रफ्तार के शिकार हो चुके हैं, लेकिन वह स़िर्फ जख्मी ही हुए थे.


सही समय पर उनको सुरक्षित बचा लिया गया. ये तीनों घटनाक्रम तो अभी ताज़ा हैं, लेकिन इससे पहले भी कई खिलाड़ी अलग-अलग प्रतियोगिताओं में जख्मी हो चुके हैं. इन हादसों से सुरक्षा पर सवाल तो खड़े हुए हैं, लेकिन सबसे ज़्यादा असर इन खेलों से जुड़े अन्य खिलाड़ियों पर पड़ा है. इन दुर्घटनाओं के कारण उनके मनोबल टूटा है. इस तरह की घटनाओं के लिए अकेले सुरक्षा व्यवस्था ही ज़िम्मेदार नहीं है, क्योंकि ऐसा भी नहीं है कि सुरक्षा को लेकर तकनीक और मानक बेहतर नहीं हुए हैं. दरअसल, इस तरह के तेज़ रफ्तार वाले खेलों में जोख़िम तो हमेशा ही बना रहता है. रेस जीतने का जुनून और कुछ भी कर गुज़रने की चाहत में खिलाड़ी भी तेज़ी के नशे में कुछ यूं चूर हो जाते हैं कि नशा उतरते-उतरते किसी बड़े हादसे का शिकार हो जाते हैं. इसी नशे का नतीजा है कि 2006 से अब तक मोटरसाइकिल रेसों में पांच रेसरों की मौत हो चुकी है तथा 20 से ज़्यादा बुरी तरह घायल हुए हैं. इन्हीं कारणों से बदलाव की बात चल रही है. इस रेस के बड़े आयोजकों में शुमार मोटो जीपी का कहना है कि 2012 से सभी टीमों के लिए एक समान तकनीकी मानक बनाए जाएंगे. कोई भी टीम किसी भी तरह के बदलाव कर इंजन की क्षमता 1000 सीसी से ज़्यादा नहीं कर सकेगा.

टायर, सिलेंडर, वज़न और पिस्टन को लेकर सभी टीमों को एक नियम मानना होगा. अब मोटर जीपी जिन बदलावों की बात कर रहे हैं, उससे इतना तो सा़फ हो जाता है कि दुर्घटनाओं को रोकने का समाधान जो 2012 से लागू किए जाने की बात हो रही है, वो पहले भी हो सकती थी. ऐसा होने से हम इतने युवा और होनहार खिलाड़ियों को खोने से तो बच जाते.

Monday, October 31, 2011

बड़े आयोजनों का बड़ा फ़र्क़



फॉर्मूला वन रेस के आयोजन से कुछ ही दिनों पहले चौथी दुनिया ने इस आयोजन में आने वाली अड़चनों पर चर्चा की थी. इस रेस में कहीं ब्रेकर तो नहीं शीर्षक से प्रकाशित उस ख़बर में कई बिंदुओं पर आशंका जताई गई थी, मसलन निर्माण कार्य में देरी, मेहमाननवाज़ी और पैसे-ग्लैमर के कॉकटेल को लेकर पैदा होने वाले विवाद आदि. इसके कुछ ही दिनों के बाद फॉर्मूला वन रेस के ट्रैक में एक के बाद एक ब्रेकर आने लगे. पहला ब्रेकर है, यहां की निर्माण और देखरेख व्यवस्था का. उद्घाटन वाले दिन ही यानी 18 अक्टूबर तक सड़क से लेकर स्टॉल तक का कार्य पूरा नहीं हुआ था. हालांकि उस दिन इस तरह की अव्यवस्थाओं को पोस्टरों और बैनरों की आड़ में छिपा दिया गया था. दूसरा ब्रेकर सुप्रीम कोर्ट का वह नोटिस,

 जिसमें फॉर्मूला वन रेस के आयोजन को करमुक्त करने के मामले में उत्तर प्रदेश सरकार से स्पष्टीकरण मांगा गया. जस्टिस डी के जैन की खंडपीठ ने सरकार के साथ-साथ फॉर्मूला वन रेस को आयोजित करने वाले जेपी ग्रुप को भी नोटिस भेजा. इस नोटिस में कोर्ट ने सवाल उठाया कि इवेंट को मनोरंजन कर से छूट क्यों दी गई. दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने यह कार्रवाई एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान की. इस याचिका में राज्य सरकार की ओर से फॉर्मूला वन रेस के आयोजन को मनोरंजन कर से छूट को चुनौती दी गई थी. हालांकि जवाब में प्रदेश सरकार के प्रवक्ता ने यह ज़रूर कहा कि किसी भी कंपनी को अलग से कोई विशेष छूट अथवा सुविधा नहीं दी गई है. उन्होंने कई और आरोपों का भी खंडन किया. अब असलियत चाहे जो भी हो, लेकिन अगर किसी ने इस प्रकार की याचिका डाली है तो इस मामले को हल्के में नहीं लिया जा सकता है. इस आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि कुछ दिनों बाद राज्य सरकार और जेपी ग्रुप अपने-अपने हिसाब से जवाब देकर अपना दामन बचा लेंगे. एक बेहतरीन उदाहरण देखिए. फीफा वर्ल्डकप का आयोजन इस बार ब्राजील में होना है. फुटबॉल का यह विशाल आयोजन हमेशा दुनिया भर की निगाहों में रहता है, लेकिन वर्ल्डकप के इस आयोजन को लेकर ब्राजील बिल्कुल चिंतित नहीं है. ब्राजील को भी भारत के एफ-1 की तरह 2014 का फुटबॉल वर्ल्डकप कराने के लिए कई चुनौतियों का सामना करना है

, लेकिन इसके बावजूद पर्याप्त समय का पूरा फायदा उठाते हुए तैयारियां पूरी की जा रही हैं. ताज्जुब की बात यह है कि जिस फॉर्मूला वन रेसिंग ट्रैक के उद्घाटन के दौरान इतनी सारी अनियमितताएं पाई गईं, उसके एफ-1 सर्किट में लगभग 400 मिलियन डॉलर की लागत आई. इसके अलावा इसमें बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों का भी पैसा लगा हुआ है. पता नहीं क्यों, भारत में जब भी कोई खेल आयोजन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होता है, इस तरह के मामले सामने आ जाते हैं. चाहे वह कॉमनवेल्थ का मामला हो या फिर फॉर्मूला रेस का. ऐसा भी नहीं है कि आयोजन समिति को सभी कार्य पूरा करने का पर्याप्त व़क्त नहीं मिलता. यह तो बहुत पहले ही तय हो गया था कि ग्रेटर नोएडा के बुद्धा सर्किट में इस रेस का आयोजन होना है. इस बात से सभी वाक़ि़फ थे कि इस आयोजन में विदेशी दर्शकों की तादाद ज़्यादा होगी. ऐसे में विदेशियों के सामने यह भारत की छवि का भी प्रश्न था, लेकिन पता नहीं, भारत ऐसे आयोजनों में हमेशा इस तरह की विषम परिस्थितियों में क्यों घिर जाता है. रेस तो जैसे-तैसे ख़त्म हो गई, लेकिन आयोजन की मेजबानी को लेकर अपने पीछे बहुत सारे सवाल छोड़ गई. उद्घाटन वाले दिन ही यानी 18 अक्टूबर तक सड़क से लेकर स्टॉल तक का कार्य पूरा नहीं हुआ था. हालांकि उस दिन इस तरह की अव्यवस्थाओं को पोस्टरों और बैनरों की आड़ में छिपा दिया गया था.

 दूसरा ब्रेकर सुप्रीम कोर्ट का वह नोटिस, जिसमें फॉर्मूला वन रेस के आयोजन को करमुक्त करने के मामले में उत्तर प्रदेश सरकार से स्पष्टीकरण मांगा गया. जस्टिस डी के जैन की खंडपीठ ने सरकार के साथ-साथ फॉर्मूला वन रेस को आयोजित करने वाले जेपी ग्रुप को भी नोटिस भेजा. एक बेहतरीन उदाहरण देखिए. फीफा वर्ल्डकप का आयोजन इस बार ब्राजील में होना है. फुटबॉल का यह विशाल आयोजन हमेशा दुनिया भर की निगाहों में रहता है, लेकिन वर्ल्डकप के इस आयोजन को लेकर ब्राजील बिल्कुल चिंतित नहीं है. ब्राजील को भी भारत के एफ-1 की तरह 2014 का फुटबॉल वर्ल्डकप कराने के लिए कई चुनौतियों का सामना करना है, लेकिन इसके बावजूद पर्याप्त समय का पूरा फायदा उठाते हुए तैयारियां पूरी की जा रही हैं. पहले ऐसी ख़बरें थीं कि फुटबॉल की यह अंतरराष्ट्रीय संस्था तैयारियों की धीमी रफ्तार को लेकर चिंतित है. ख़ास तौर पर स्टेडियमों में सुधार और नए भवनों के निर्माण को लेकर फिक्र जताई गई थी, लेकिन बाद में जब फीफा अध्यक्ष जोसेफ ब्लाटर ने तैयारियों का जायज़ा लिया तो वह पूरी तरह संतुष्ट दिखे. आपको बता दें कि 2014 में होने वाले फीफा वर्ल्डकप के दौरान 12 अलग-अलग शहरों में मैच होंगे. ब्राजील में पिछला वर्ल्डकप 1950 में हुआ था. उसके लिए यह टूर्नामेंट एक और बड़े आयोजन की तैयारियों में फायदेमंद साबित होगा. 2016 में रियो डे जनेरो में ओलंपिक होना है. फिलहाल रियो के माराकाना स्टेडियम में निर्माण कार्य चल रहा है. इसके अलावा साओ पाउलो में इताक्वेराओ एरीना बनाया जा रहा है, इस आयोजन का उद्घाटन समारोह हो सकता है. हालांकि वर्ल्डकप से पहले 2013 में कॉन्फेडरेशन कप होना है, जिसे वर्ल्डकप की ड्रेस रिहर्सल के तौर पर देखा जाता है. इससे एक फायदा यह होता है कि जो थोड़ी-बहुत कमियां रह जाती हैं, वे समय रहते ठीक कर ली जाती हैं. 12 जून से 13 जुलाई 2014 तक होने वाला वर्ल्डकप 20वां फीफा वर्ल्डकप होगा. 1950 के बाद ब्राजील को दूसरी बार वर्ल्डकप के आयोजन का अवसर मिला है. ब्राजील समेत पांच ही देश हैं, जिन्होंने एक से ज़्यादा बार वर्ल्डकप का आयोजन किया है. इससे पहले मेक्सिको, इटली, फ्रांस और जर्मनी ऐसा कर चुके हैं. यह टूर्नामेंट दक्षिण अमेरिका के लिए भी एक बड़ी बात है. 1978 में अर्जेंटीना वर्ल्डकप के बाद पहली बार यह टूर्नामेंट महाद्वीप में हो रहा है. साथ ही ऐसा पहली बार होगा कि वर्ल्डकप लगातार दो बार यूरोप से बाहर हुआ, लेकिन इस बात को लेकर हमेशा पूरी दुनिया आश्वस्त रहती है कि फुटबॉल वर्ल्डकप का आयोजन बहुत धूमधाम से होगा. क्या दुनिया भारत के संदर्भ में भी इसी तरह आश्वस्त रहती है? शायद नहीं. अब यहां पर दो तस्वीरें हैं, एक ब्राजील की और दूसरी भारत की. दोनों ही देश बड़े आयोजनों की मेजबानी की तैयारियों को लेकर चर्चा में हैं, लेकिन दोनों तस्वीरों में कितना फर्क़ है!

Sunday, October 23, 2011

मुंबई इंडियंस : चैंपियंस के चैंपियंस



अभी हाल ही चेन्नई में ट्‌वेंटी-20 चैंपियंस लीग में मुंबई इंडियंस ने अपनी बादशाहत कायम कर ली. यह पहला मौक़ा था, जब मुंबई इंडियंस ने ट्‌वेंटी-20 का फाइनल जीतकर खिताब पर क़ब्ज़ा किया. नया विजेता बनकर जब मुंबई इंडियंस चेन्नई में चैंपियंस लीग के फ़ाइनल मुक़ाबले में अपनी जीत के क़रीब पहुंच रहा था, तब उस व़क्त उसके पास अपना सबसे बड़ा स्टार यानी मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर भी नहीं था. इसके बावजूद हारी हुई बाजी को मुंबई इंडियंस ने जिस तरह जीत में बदला, वह काबिले तारी़फ था.

 मुंबई इंडियंस ने जब रॉयल चैलेंजर बंगलुरु को 31 रनों से हराकर ट्रॉफ़ी अपने नाम की, तब जाकर यक़ीन आया कि वही असली विजेता है. वरना किसने सोचा था कि जिस खिलाड़ी को अभी-अभी टीम से बाहर का रास्ता दिखाया गया है, वह इस कदर जीत का जज़्बा दिखाते हुए चयनकर्ताओं को एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर देगा. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जब यह लीग मुक़ाबला शुरू हुआ था, तब सभी ने मुंबई इंडियंस के प्रदर्शन को लेकर कई तरह की आशंकाएं व्यक्त की थीं. सभी का यही कहना था कि टीम में न तो सचिन हैं और न रोहित शर्मा और मुनाफ़ पटेल. कोई भी टीम अपने किसी एक खिलाड़ी के आउट ऑफ फॉर्म होने पर चिंता में पड़ जाती है. अगर तीन-तीन खिलाड़ी बाहर हों तो टीम के बाक़ी सदस्यों के मनोबल पर क्या फर्क़ पड़ता होगा, इसका सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है, लेकिन ऐसे व़क्त में जिस तरह टर्मिनेटर हरभजन की कप्तानी में युवा खिलाड़ियों ने फ़ाइनल तक का सफ़र तय किया, वह काफी कुछ सकारात्मक संदेश दे जाता है. साथ ही इस बात की भी तस्दीक करता है कि अगर टीम में जीत की भूख हो तो फिर किसी भी हाल में जीत आपके दामन में आकर ही रहेगी. मुंबई इंडियंस की जीत के बाद जब नीता अंबानी से बात की गई तो उनकी जीत की ख़ुशी में युवाओं के जोरदार प्रदर्शन का दम बोल रहा था. हालांकि वह इस बात से इंकार नहीं कर रही थीं कि सचिन की ग़ैर मौजूदगी से मनोबल में थोड़ी कमी आई थी

. उन्होंने कहा कि सचिन भले ही मैदान में नहीं थे, पर उनकी मौजूदगी दुआ और टीम के खिलाड़ियों को सलाह के रूप में हर व़क्त हमारे साथ थी. वह इस जीत के लिए हरभजन की तारी़फ करती हैं कि उन्होंने जिस तरह मुश्किल वक्त में अपनी नेतृत्व क्षमता का दम दिखाया, उसका कोई जवाब नहीं. अगर मैच की बात करें तो कप्तान हरभजन सिंह और युजवेंद्र चहल की बेहतरीन गेंदबाज़ी के आगे बंगलुरु का कोई भी बल्लेबाज़ कहीं नहीं टिक सका. पहले बल्लेबाज़ी करते हुए मुंबई की टीम केवल 139 रनों का स्कोर ही खड़ा कर पाई थी. बंगलुरु की शुरुआत अच्छी नहीं रही. क्रिस गेल 5 रनों पर आउट हुए, जबकि तिलकरत्ने दिलशान ने 27 रन बनाए. गेल का विकेट कप्तान हरभजन सिंह ने लिया, वहीं दिलशान को मलिंगा ने आउट किया. हरभजन ने ही बंगलुरु के कप्तान डेनियल विटोरी को एक रन के निजी स्कोर पर 17वें ओवर में पवेलियन भेज दिया. विराट कोहली को भी 11 रनों के बाद खेलने का मौक़ा नहीं दिया. इसके तुरंत बाद किरोन पोलार्ड ने मोहम्मद कैफ को 3 रनों पर आउट किया. यहीं से मैच पूरी तरह मुंबई के पाले में आ चुका था. बंगलुरु को सबसे बड़ा झटका तब लगा, जब तूफ़ानी बल्लेबाज़ क्रिस गेल हरभजन सिंह की गेंद पर एलबीडब्ल्यू हो गए.

दिलशान और गेल के जाने से मुंबई इंडियंस के गेंदबाज़ों के हौसले काफ़ी बढ़ गए. मयंक अग्रवाल भी 14 रनों पर सस्ते में ही निपट गए. उस समय बंगलुरु का स्कोर था चार विकेट पर 73 रन. मुंबई को नियमित समय पर विकेट मिलते गए, जबकि बंगलुरु के लिए रन रेट बढ़ता गया. अरुण कार्तिक खाता भी नहीं खोल पाए तो कैफ़ ने मात्र तीन रन जोड़े. विटोरी को हरभजन ने एक रन पर आउट कर दिया. अंतिम ओवरों में रन रेट करीब 15 प्रति ओवर पहुंच गया था. 18वें ओवर में अबू अहमद की गेंद पर सौरभ तिवारी के आउट होने के बाद तो बंगलुरु की उम्मीदें ख़त्म हो गईं. बंगलुरु की पूरी टीम 19.2 ओवरों में 108 रन बनाकर आउट हो गई. हरभजन सिंह ने तीन विकेट लिए तो मलिंगा और अबू अहमद की झोली में दो विकेट गए. मुंबई इंडियंस के कप्तान हरभजन सिंह को मैन र्ऑें द मैच का अवॉर्ड दिया गया और लसिथ मलिंगा को मैन ऑफ़ द सीरीज. सबसे ज़्यादा विकेट लेने का ख़िताब भी मलिंगा को ही दिया गया. खराब फॉर्म के कारण टीम इंडिया से बाहर चल रहे हरभजन सिंह ने चैंपियंस लीग टी-20 मैच में वह एक अहम विकेट लिया, जिसके बाद टीम की जीत लगभग तय हो गई. क्रिकेट के जानकारों की मानें तो मुंबई इंडियंस ने चेन्नई में खेले गए दूसरे सेमी फाइनल में सोमरसेट को हराकर ट्‌वेंटी-20 चैंपियंस लीग के फाइनल में जगह बना ली और उसके बाद उसकी जीत के आसार बढ़ गए थे.

वह मैच मुंबई इंडियंस ने 10 रनों से जीता था. कुल मिलाकर मुंबई इंडियंस की जीत काफी कुछ कह जाती है. यह उन टीमों के लिए एक सबक है, जो अपनी हार का ठीकरा खिलाड़ियों की कमी, उनकी चोटों और उनके फॉर्म में न होने पर फोड़ती हैं. इस जीत के साथ अगर किसी के हौसले सबसे ज़्यादा बुलंद हुए तो वह हैं हरभजन सिंह. अब वह टीम में वापसी के लिए एक बार फिर से फॉर्म में आ जाएंगे. 

Wednesday, October 19, 2011

भारत में पहली बार फॉर्मूला रेस : कहीं इसमें कोई ब्रेकर तो नहीं




आगामी 30 तारी़ख को कई भारतीय शूमाकर फॉर्मूला ट्रैक पर रेसिंग करते दिखाई देंगे. यह रेस इस बार भारतीय मेजबानी के तहत ग्रेटर नोएडा के बुद्ध इंटरनेशनल सर्किट पर होगी. यह भारत के लिए पहला मौक़ा होगा, जब इस देश में फॉर्मूला रेस होगी. खैर, जब इस माह के आ़खिर में ग्रेटर नोएडा के इस सर्किट में फॉर्मूला-1 कारें 320 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ेंगी तो हर भारतीय के चेहरे पर गौरव भरी मुस्कान ज़रूर फैलेगी. अब तक इस रेस को हम भारतीयों ने ज़्यादातर विदेशी खेल चैनलों पर ही देखा होगा और इसमें भाग लेने वाले खिलाड़ियों में नारायण कार्तिकेयन जैसे इक्का-दुक्का रेसर को छोड़कर ज़्यादातर अंग्रेज प्रतियोगी ही दिखाई देते हैं. यह खेल उन संभ्रात खेलों में से है, जिनके लिए कहा जाता है कि इन खेलों को भारतीय अफोर्ड नहीं कर सकते हैं. मसलन गोल्फ, विलियड्‌र्स, फुटबॉल, आइस हॉकी वगैरह-वगैरह. लेकिन जबसे भारत में फॉर्मूला रेस के आयोजन को लेकर चर्चाएं हुई हैं, तभी से खेल जगत में इसे एक बड़े अचीवमेंट के तौर पर देखा जा रहा है. यकीनन, भारत इस व़क्त स्पोट्‌र्स रेवोलूशन से गुज़र रहा है. खेल जगत में जबसे ग्लैमर और पैसे का तड़का लगा है, तभी से हर बड़ा आयोजक हर खेल की कायापलट करने में लगा है. क्रिकेट के टी-20 और आईपीएल संस्करण इस बात की तस्दीक कर ही रहे हैं.

इससे पहले हम भारत में कई बड़े आयोजनों में घोटालों की खबरें सुनते आए हैं. जब कोई आयोजन इतने बड़े स्तर पर होता है, तो ज़ाहिर तौर पर ज़िम्मेदारियां भी बढ़ जाती हैं. इस पर देश का मान-सम्मान भी दांव पर लग जाता है. यह तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जब ऐसा आयोजन भारत में पहली बार हो रहा हो. इस फॉर्मूला रेस से भारत भी कई तरह की उम्मीदें लगाए बैठा है. जैसे खेल बढ़ेगा, टूरिज्म बढ़ेगा और व्यापार बढ़ेगा, लेकिन अगर आयोजन और सुविधाओं में राष्ट्र मंडल खेलों की तरह कहीं फिर से अनियमितताओं और घोटालों की छाया पड़ी तो विश्व पटल पर भारत की एक बार फिर से भद्द पिट सकती है

इस आयोजन का थोड़ा-बहुत श्रेय भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन (आईओए) के पूर्व अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी को भी जाता है. ग़ौरतलब है कि उन्होंने ही भारत में फॉर्मूला-1 रेस कराने के लिए वर्ष 2007 में बर्नी एकल्सटन को आमंत्रित किया था. एकल्सटन फॉर्मूला-1 मैनेजमेंट और एडमिनिस्ट्रेशन के मुख्य कार्याधिकारी हैं. उन्होंने भारत आकर यहां की स्थितियों का जायज़ा लिया, उसके बाद इस आयोजन की प्रक्रिया आगे बढ़ी. एकल्सटन के मन मुताबिक़ ही 5.14 किलोमीटर का बुद्ध इंटरनेशनल सर्किट ट्रैक डिजाइन किया गया है. यह रेसिंग सर्किट ट्रैक 865 एकड़ ज़मीन पर है. इसके लिए 300 इंजीनियरों के निर्देश पर क़रीब 6000 कामगारों ने काम किया. नई दिल्ली से 40 किलोमीटर दूर बुद्ध इंटरनेशनल सर्किट बनाया गया है. भारत में होने वाली पहलीफॉर्मूला-1 रेस 19 रेस वाले सीजन की 17वीं रेस होगी. ग़ौरतलब है कि इस ट्रैक को जर्मन आर्किटेक्ट हेरमान टिल्के ने बनाया है.


एकल्सटन वैश्विक रुझानों की गहराइयों को बहुत बारीकी से समझने की क्षमता रखते हैं. इससे पहले वह मलेशिया, सिंगापुर, चीन, दक्षिण कोरिया और थाईलैंड में ऐसे आयोजनों को सफलता दिला चुके हैं. अब देखना यह होगा कि उनका यह जादू भारत में भी चलेगा या नहीं. इतना तो तय है कि आयोजक देश को भी इससे फायदे होंगे. ऑस्ट्रेलिया में एफ-1 के 10 सालों के दौरान एक अरब डॉलर का सकल आर्थिक फायदा हुआ और 28,000 नौकरियों के मौके भी मिले. वहीं बहरीन में एफ-1 रेस पर्यटन उद्योग के लिए आमदनी के सबसे बड़े स्रोतों में शुमार है. इसलिए संभव है कि ग्रेटर नोएडा के आसपास के  सभी होटल रेस के दौरान भर जाएं, लेकिन इसमें थोड़ा पेंच है. ग़ौरतलब है कि यह ट्रैक दिल्ली से 40 किलोमीटर दूर ग्रेटर नोएडा में बनाया गया है. ग्रेटर नोएडा एक नया शहर है. इसलिए वहां अच्छे होटलों की संख्या ज़्यादा नहीं है. ऐसे में मेहमानों को दिल्ली में ही रुकना होगा. इस आयोजन में शामिल होने वाली सभी 12 टीमें करीब 100-100 लोगों के दल के साथ आएंगी. इसके अलावा एफ-1 से जुड़े 500 अधिकारियों और 10,000 मेहमानों के भी आने की उम्मीद है.

ज़ाहिर है, इस दौरान 11,500 कमरों की ज़रूरत होगी. अब ऐसे में समस्याओं का होना लाज़िमी है. दिल्ली से ग्रेटर नोएडा का 40 किलोमीटर का स़फर कई बार तो दो से भी ज़्यादा घंटे में पूरा होता है, क्योंकि इस रास्ते पर ट्रैफिक की हालत बहुत खराब है. इसलिए मेहमानों को परेशानी हो सकती है. इसके अलावा हवाई किराए में उछाल भी एक बड़ी समस्या हो सकती है. हाल में किराए में औसतन 25 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है. एक और विवाद सामने आया है, कस्टम विभाग और आयोजकों के बीच. सरकार और फॉर्मूला-1 रेस के आयोजकों में इस नई अनबन से आयोजन आशंकाओं में घिर गया है. कस्टम विभाग का कहना है कि फॉर्मूला-1 एयरटेल इंडियन ग्रां प्री के आयोजकों को रेस के लिए आने वाले सभी उपकरणों पर 100 प्रतिशत ड्यूटी अग्रिम चुकानी होगी. जबकि आयोजक इसमें कुछ छूट चाहते हैं. खैर, यह विवाद तो हल हो जाएगा, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस आयोजन में भी ओलंपिक, राष्ट्रमंडल और क्रिकेट वर्ल्डकप की तरह धन की बरसात होगी.


एक सर्वे के मुताबिक़, इस एफ-1 रेस को 50 करोड़ दर्शक स़िर्फ टेलीविजन पर मिलेंगे. इस लिहाज़ से यह फुटबॉल वर्ल्डकप से थोड़ा ही पीछे है. क़रीब 24 एशियाई देशों में एफ-1 रेस के प्रसारण का अधिकार ईएसपीएन के पास है. ईएसपीएन के मुताबिक़, हर रेस के दौरान मिलने वाले 800 विज्ञापन सेकेंड का समय लगभग बिक चुका है. इस चैनल ने 10 सेकेंड के स्लॉट के लिए कंपनियों से 1,50,000 रुपये की दर से रकम वसूली है. हालांकि यह क्रिकेट वर्ल्डकप के फाइनल मैच के लिए 6,00,000 रुपये की दर से बेचे गए विज्ञापन स्लॉट के मुक़ाबले का़फी कम है, लेकिन एक लाइफ स्टाइल स्पोट्‌र्स के लिए यह बुरा नहीं है. वह भी तब, जब यह अपने शुरुआती चरण में हो. कई कंपनियों ने अपने स्लॉट बुक कराए हैं. खास तौर पर सोनी, सैमसंग, एमआरएफ, सेल और टाटा मोटर्स आदि के नाम शामिल हैं. चैनल को उम्मीद है कि इंडियन ग्रां प्री के दौरान दर्शकों की तादाद में कम से कम 20 फीसदी इज़ाफा होगा. इसके टिकटों की कीमत 25,000 से 35,000 रुपये तक रखी गई है. बुकमाईशो डॉट कॉम के सीईओ आशीष हेमरजनी का कहना है कि उनकी वेबसाइट पर पहले 3 घंटे में ही 1.5 करोड़ रुपये के टिकट बिके. ज़्यादातर बुकिंग दिल्ली और उसके आसपास के इलाक़ों से हुई है. इसके अलावा मुंबई और चेन्नई के दर्शकों ने भी अपनी सीट बुक कराई है. अब तक करीब 2500 टिकट बेचे जा चुके हैं. अनुमान है कि टिकट से ही क़रीब 75 करोड़ रुपये की कमाई होगी. इनमें कॉरपोरेट बॉक्स भी शामिल हैं. करीब 55 कॉरपोरेट बॉक्स बनाए गए हैं और प्रत्येक की कीमत 35 लाख से लेकर 1 करोड़ रुपये तक है. जेपीएसआई के मुताबिक, ज़्यादातर की बुकिंग हो चुकी है. बॉलीवुड अभिनेता शाहरुख खान, जे के टायर और भारती एयरटेल जैसी कंपनियों ने भी बुकिंग कराई है. कुल मिलाकर इस आयोजन में कई लोगों के वारे-न्यारे होंगे.

लेकिन इन सबसे इतर एक बड़ा सवाल यह है कि भारत इस तरह के आयोजन को किस हद तक संभाल पाएगा. इससे पहले हम भारत में कई बड़े आयोजनों में घोटालों की खबरें सुनते आए हैं. जब कोई आयोजन इतने बड़े स्तर पर होता है, तो ज़ाहिर तौर पर ज़िम्मेदारियां भी बढ़ जाती हैं. इस पर देश का मान-सम्मान भी दांव पर लग जाता है. यह तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जब ऐसा आयोजन भारत में पहली बार हो रहा हो. इस फॉर्मूला रेस से भारत भी कई तरह की उम्मीदें लगाए बैठा है. जैसे खेल बढ़ेगा, टूरिज्म बढ़ेगा और व्यापार बढ़ेगा, लेकिन अगर आयोजन और सुविधाओं में राष्ट्र मंडल खेलों की तरह कहीं फिर से अनियमितताओं और घोटालों की छाया पड़ी तो विश्व पटल पर भारत की एक बार फिर से भद्द पिट सकती है


माल्या की फोर्स इंडिया का जलवा

भारत की एकमात्र फॉर्मूला वन टीम यानी उद्योगपति विजय माल्या की फोर्स इंडिया भी इस खेल में अपना जौहर दिखाएगी. 2007 में बनी यह टीम इस बार के फॉर्मूला रेस आयोजन में विजय माल्या की तऱफ से भारत का प्रतिनिधित्व करेगी. गौरतलब है कि 29 रेसों में कोई चैंपियनशिप अंक हासिल करने में नाकाम रही फोर्स इंडिया को 2009 में उस व़क्त कामयाबी मिली थी, जब बेल्जियम की ग्रां प्री में जियानकार्लो फिजिकेला दूसरे स्थान पर आए. अभी इस टीम के चालक एड्रियन सुटिल और पॉल डी रेस्टा हैं, जबकि नीको ह्युलकेनबर्ग को अतिरिक्त चालक के तौर पर रखा गया है. फोर्स इंडिया के प्रशंसकों की तरह माल्या को भी 2009 के बेल्जियम की ग्रां प्री याद है, जब उनकी टीम ने पहले तीन में जगह बना ली थी. अब समर ब्रेक के बाद इस महीने के आ़िखरी में बेल्जियम से ही फॉर्मूला वन के सीजन की शुरुआत होगी.

ये हैं भारत के रेसर

वैसे तो फॉर्मूला रेसिंग से भारत का कोई विशेष वास्ता नहीं है, लेकिन फिर भी कुछ नाम हैं, जो विश्व में फॉर्मूला रेसर भारतीयों का ज़िक्र कराते रहते हैं. यह अलग बात है कि अब तक इनमें से किसी ने भी भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व नहीं किया. 2005 में जब भारतीय चालक नारायण कार्तिकेयन ने जॉर्डन टीम के लिए गाड़ी दौड़ाई तो भारत में लोगों का ध्यान इस खेल की तरफ गया. जॉर्डन टीम तो अब नहीं रही, लेकिन उसने भारत में फॉर्मूला वन को लेकर दिलचस्पी ज़रूर पैदा कर दी. कार्तिकेयन स्पेन की हिस्पानिया रेसिंग टीम के साथ हुए क़रार के बाद 2011 में सर्किट पर लौटे. भारतीय करुण चंढोक ने भी पिछले साल हिस्पानिया के लिए गाड़ी दौड़ाई, लेकिन वह साल भर में 12 प्रतियोगियों में 11वें स्थान पर रहे. इस बार बुद्ध सर्किट ट्रैक पर इनके जलवों का इंतजार रहेगा.

Wednesday, October 12, 2011

कंट्रोवर्शियली योर्स : एक हीरो का विलेन बनना




कुछ तैराक ऐसे होते हैं, जो मझधार में तो ख़ूब तैरते हैं, पर किनारे आकर डूब जाते हैं और कुछ, जो मझधार से लेकर किनारे तक डूबते- तैरते रहते हैं, लेकिन आख़िर में बुरी तरह से डूबते हैं. रावलपिंडी एक्सप्रेस के नाम से मशहूर शोएब अख्तर उन तैराकों में आते हैं, जो मझदार से लेकर किनारे तक डूबते ही रहते हैं. दरअसल, यह खिलाड़ी कभी भी अपने करियर की नैया संतुलित नहीं रख पाया. जब-जब विवादों की लहरें आईं, यह खिलाड़ी ख़ुद को संभाल ही नहीं पाया और करियर की डांवाडोल कश्ती पर जैसे ही इसने अपनी किताब कंट्रोवर्सियल योर्स का वजन डाला, पूरी तरह से डूब गया.

अब इस गेंदबाज़ को शायद ही कोई सलीके से याद कर पाए. जब भी इस रावलपिंडी एक्सप्रेस की चर्चा होगी तो एक विवादास्पद खिलाड़ी की छवि उभर कर सामने आ जाएगी. हांलाकि अपने करियर के दौरान ज़्यादातर विवादों के लिए वह ख़ुद ही ज़िम्मेदार रहे. बातें चाहे डोपिंग की हों या खिलाड़ियों से झड़प की, पाकिस्तानी क्रिकेट बोर्ड के अधिकारियों को उल्टा-सीधा कहने का मामला हो या फिर खेल भावना का सम्मान न करने का, शोएब अख्तर लगभग हर मामले में पूरी तरह असंतुलित रहे. उन पर गेंद से छेड़छाड़ के आरोप लगे, उनके ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई हुई और डोपिंग के आरोप लगे. अपने साथी खिलाड़ी मोहम्मद आसिफ़ को बल्ले से मारने के मामले में भी उनकी काफ़ी आलोचना हुई. इसके अलावा शोएब अख्तर लंबे समय तक अपनी फ़िटनेस की समस्या से भी जूझते रहे. एक तऱफ फिटनेस की समस्या और दूसरी तऱफ विवादों का पिटारा, दोनों ने इस खिलाड़ी के करियर पर ऐसा ग्रहण लगाया, जिससे शोएब अख्तर कभी उबर ही नहीं पाए.

अभी हाल ही में शोएब अख्तर ने अपनी आत्मकथा कंट्रोवर्शियली योर्स में सचिन तेंदुलकर और राहुल द्रविड़ समेत कई क्रिकेटरों की क़ाबिलियत पर सवाल उठाए. उन्होंने कोलकाता नाइट राइडर्स के मालिक शाहरुख ख़ान और आईपीएल के पूर्व चेयरमैन ललित मोदी पर धोखाधड़ी का भी आरोप लगाया. उनका दावा है कि तेंदुलकर और द्रविड़ मैच विजेता नहीं हैं और न वे मैच जीतकर समाप्त करने की कला जानते हैं. अपनी किताब में अख्तर लिखते हैं कि फ़ैसलाबाद की पिच पर सचिन तेंदुलकर उनकी तेज़ गेंदों का सामना करने से डरते थे. सचिन तेंदुलकर ने पूर्व पाकिस्तानी गेंदबाज़ शोएब अख्तर के इन दावों पर टिप्पणी करने से इंकार कर दिया है. रावलपिंडी एक्सप्रेस ने अपनी आत्मकथा में पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड (पीसीबी) में भेदभाव, बोर्ड के अक्खड़ रवैये, अपनी बेइज़्ज़ती, गेंद से छेड़छाड़ और साथी खिलाड़ियों पर हमला करने समेत कई घटनाओं का जिक्र किया है. शोएब ने पीसीबी में राजनीति के बारे में भी लंबी बात की है. वह ड्रेसिंग रूम में होने वाले टीम के झगड़ों का ख़ुलासा भी करते हैं.


शोएब ने वसीम अकरम पर अपना करियर चौपट करने की कोशिश करने के आरोप लगाए और यह भी कहा कि पूर्व कप्तान शोएब मलिक पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के पिट्ठू हैं. उनका आरोप है कि इन लोगों ने उन्हें हतोत्साहित करने की पूरी कोशिश की. 1999 में एशियन टेस्ट चैंपियनशिप के कोलकाता टेस्ट में अकरम और वकार के बीच हुए विवाद का जिक्र करते हुए शोएब लिखते हैं कि दिल्ली टेस्ट हारने के बाद ही अकरम वकार से उलझ गए थे और यह विवाद इस स्तर पर पहुंच गया कि वकार को वापस स्वदेश भेजे जाने जैसी अफवाहें फैलने लगी थीं. तब पूरी टीम पहले टेस्ट के लिए कोलकाता रवाना हुई, लेकिन वहां ड्रेसिंग रूम का माहौल बिगड़ गया था. शोएब का यहां तक कहना है कि अकरम ने उन्हें अंतिम एकादश में चुने जाने पर टीम छोड़ने तक की धमकी दे डाली थी. उपरोक्त सभी दावों की सच्चाई तो शोएब ही जानते होंगे, लेकिन उन्हें इस बात का जवाब ख़ुद खोजना होगा कि अपनी विदाई के बाद इस तरह वरिष्ठ खिलाड़ियों पर उंगली उठाकर उन्हें क्या मिलने वाला है.

जो खिलाड़ी अपने पूरे करियर में अपने खेल से ज़्यादा विवादों से चर्चित रहा हो, उसकी किताब में विवादों की जगह तो बनाती है, लेकिन अगर सचिन और द्रविड़ जैसे खिलाड़ी उनसे डरते थे तो फिर उन्हें दुनिया का सर्वश्रेष्ठ गेंदबाज़ होना चाहिए था और सचिन को अब तक संन्यास ले लेना चाहिए था. जो खिलाड़ी ख़ुद स्वीकार करे कि वह गेंद के साथ नियमित छेड़छाड़ करता था तो उसे कतई हक़ नहीं है कि वह दूसरे खिलाड़ियों की आलोचना करे. अगर उनकी किताब में ज़रा भी सच्चाई होती तो दुनिया में एक आदमी तो ऐसा होता, जो उनके पक्ष में बोलता. इस किताब में उन्होंने जो भी बातें लिखी हैं, उन पर जब उनका देश और साथी खिलाड़ी तक सहमत नहीं हैं तो बाक़ी लोगों की बात ही मत कीजिए. उनकी किताब में बहुत सारी विवादित चीज़ें हैं. अब अगर उन्हें लगता है कि विवादों से सुर्ख़ियां बटोर कर किताब बेची जा सकती है तो बाज़ार के हिसाब से वह सही हैं, लेकिन शोएब को यह हमेशा याद रहेगा कि इस किताब ने उन्हें विलेन बताते हुए उनके शख्सियती ताबूत में आख़िरी कील का काम किया है.

आत्मकथाओं की कथाएं अभी और भी हैं

अकेले शोएब ही नहीं हैं, जिन्होंने अपनी आत्मकथा के नाम पर विवादों का पिटारा खोल दिया है. क्रिकेट जगत की ऐसी कई हस्तियां हैं, जो अपनी ऑटो बॉयोग्राफी के ज़रिए सनसनीखेज ख़ुलासे कर चुकी हैं. इस सूची में सबसे पहला नाम पूर्व ऑस्ट्रेलियाई ओपनर हेडन का आता है. उन्होंने अपनी आत्मकथा स्टैंडिंग माई ग्राउंड में पूर्व भारतीय कप्तान सौरभ गांगुली और ऑफ स्पिनर हरभजन सिंह को अपने निशाने पर लेते हुए कहा था कि ये दोनों 2004 में नागपुर में सीरीज के निर्णायक मैच में घसियाली पिच देखकर अचानक मैच से हट गए थे. ग़ौरतलब है कि ऑस्ट्रेलिया ने वह टेस्ट जीतकर सीरीज पर क़ब्ज़ा किया था. इसी तरह पूर्व ऑस्ट्रेलियाई अंपायर हेयर ने अपनी किताब इन द बेस्ट इंट्रेस्ट्स ऑफ द गेम में लिखा था कि भारतीय उप महाद्वीप में हुए पिछले विश्वकप में कई गेंदबाज़ चकिंग कर रहे थे, लेकिन खेल प्रशासकों ने उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की. उन्होंने मुथैया मुरलीधरन और हरभजन के एक्शन को संदिग्ध बताते हुए कहा था कि हरभजन, शोएब अख्तर, मोहम्मद हफीज, जोहान बोथा और अब्दुल रज्जाक आदि ने विश्वकप में चकिंग की थी. हर्शेल गिब्स ने अपनी किताब टू द प्वाइंट में राष्ट्रीय टीम के कप्तान ग्रीम स्मिथ और अन्य खिलाड़ियों पर आपत्तिजनक आरोप लगाए थे. इस तरह और भी कई नाम हैं, जिन्होंने अपनी-अपनी आत्मकथाओं में कई कथाएं उजागर की हैं.


विवादों पर एक नज़र

शोएब से पाकिस्तान के क्रिकेट प्रेमियों को बहुत उम्मीदें थीं, लेकिन उनका यह हीरो आख़िर विलेन में कैसे तब्दील हो गया, उसे कुछ इस तरह समझा जा सकता है. शोएब को वर्ष 2006 में डोपिंग का दोषी माना गया था, जिसके लिए उन्हें कई सालों का निलंबन झेलना पड़ा. हालांकि अपील के बाद निलंबन समाप्त हो गया था, लेकिन इस घटना में उनकी काफी भद्द पिटी थी. इसके अलावा ङ्गिटनेस समस्या के कारण शोएब वर्ष 2007 के विश्वकप में हिस्सा नहीं ले पाए और उसी साल मोहम्मद आसिफ़ से उनकी मारपीट की घटना भी सुर्ख़ियों में रही थी. इस मारपीट के कारण उन पर 13 वन डे मैचों की पाबंदी लगी थी. 2008 में सार्वजनिक रूप से पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड की आलोचना करने की वजह से उन पर 5 साल की पाबंदी लगी थी. अपील करने पर यह पाबंदी 18 महीने कर दी गई और दंड के तौर पर उन पर 70 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया गया था. तब तक शोएब सबकी नज़रों में खटक चुके थे. रही-सही कसर उनकी किताब ने पूरी कर दी. अपनी आत्मकथा में शोएब ने वसीम अकरम और वकार यूनुस जैसे वरिष्ठ खिलाड़ियों पर साजिश रचने का आरोप लगाते हुए कहा कि इन लोगों ने उन्हें हतोत्साहित करने की पूरी कोशिश की. हालांकि वसीम ने जवाब में स़िर्फ इतना ही कहा कि शोएब रिटायरमेंट के पहले भी परेशानी थे और अभी भी परेशानी बने हुए हैं. किताब में कोलकाता नाइट राइडर्स के मालिक शाहरुख ख़ान और आईपीएल के पूर्व चेयरमैन ललित मोदी पर धोखाधड़ी का भी आरोप लगाया गया है. अब शायद शोएब को दोस्त बहुत मुश्किल से मिलेंगे.

Monday, October 3, 2011

जीत का गम और हार की ख़ुशी



जब भारतीय क्रिकेट टीम ने विश्वकप जीता था, तब न स़िर्फ उसे पर्याप्त फीस मिल रही थी, बल्कि उस पर पूरे देश की राज्य सरकारों एवं उद्योगपतियों समेत कई लोगों ने ईनामों की बौछार कर दी थी. इस सबके बावजूद टीम इंडिया प्रबंधन द्वारा दी गई फीस से संतुष्ट नहीं थी. इसीलिए धोनी समेत कई खिलाड़ियों ने बाक़ायदा विरोध कर अपनी फीस बढ़वा ली. यह वाकया पिछले दिनों फिर से दोहराया गया, लेकिन इस बार इसे इंग्लैंड के हाथों सीरीज और इज़्ज़त दोनों गंवाने वाली धोनी की टीम ने नहीं, बल्कि राष्ट्रीय और ग़रीब खेल हॉकी के खिलाड़ियों ने दोहराया. अब इन दोनों वाकयों का फर्क़ समझते हैं.

हॉकी के खिलाड़ियों को हर विदेशी दौरे के प्रति मैच के लिए महज़ 50 डॉलर यानी दो हज़ार रुपये और भारत में प्रति मैच 1800 रुपये मिलते हैं. वहीं हमारे होनहार क्रिकेटरों को एक टेस्ट मैच के लिए 7 लाख रुपये, एक वन डे के लिए 4 लाख रुपये और एक टी-20 मैच के लिए 2 लाख रुपये बतौर फीस मिलते हैं. यानी क्रिकेट और हॉकी के खिलाड़ियों की फीस में ज़मीन-आसमान का अंतर है. इसके अलावा अगर मौजूदा प्रदर्शन पर चर्चा की जाए तो हॉकी खिलाड़ी एशियन चैंपियनशिप ट्रॉफी जीतकर आए हैं.

इसके बावजूद खिलाड़ियों द्वारा फीस लेने से इंकार करने के बाद खेल मंत्रालय ने ईनाम की राशि बढ़ाई, जबकि इंग्लैंड में शर्मनाक प्रदर्शन करने वाली क्रिकेट टीम को वहां खेले गए 4 टेस्ट, एक टी-20 और पांच वन डे मैच खेलने के लिए सालाना कांट्रैक्ट से मिलने वाली भारी-भरकम धनराशि के अलावा हर खिलाड़ी को 50 लाख रुपये मैच की फीस के तौर पर दिए गए. यह तुलना इसलिए की गई, क्योंकि अगर क्रिकेट खिलाड़ी अपनी इस भारी-भरकम फीस के बावजूद अपनी फीस बढ़ाने की मांग कर सकते हैं तो पिछले दिनों एशियन चैंपियनशिप ट्रॉफी जीतकर आई हॉकी टीम के खिलाड़ियों ने अपनी फीस न लेने का फैसला करके क्या ग़लत किया? ख़ैर, असली मामला यह है कि जब हॉकी के खिलाड़ियों ने फीस लेने से इंकार कर दिया और बाक़ी लोगों, जिनमें राज्य सरकारों से लेकर अन्य उद्योगपति भी शामिल हैं, ने टीम हॉकी को पुरस्कार देने की भरमार कर दी, तब केंद्रीय खेल मंत्री अजय माकन ने अचानक एक प्रेस कांफ्रेंस की और एशियन हॉकी चैंपियनशिप जीतने वाली भारतीय टीम के हर खिलाड़ी को बतौर ईनाम 1.5 लाख रुपये देने की घोषणा कर दी. ग़ौरतलब है कि एशियन हॉकी चैंपियनशिप जीतने वाली भारतीय टीम ने प्रत्येक खिलाड़ी को 25-25 हज़ार रुपये का ईनाम लेने से इंकार कर दिया था. उन्होंने इस फैसले पर नाराज़गी भी जताई थी. बाद में हर तऱफ से आलोचना होते देख अजय माकन ने यह कांफ्रेंस की. माकन के मुताबिक़, सरकार खिलाड़ियों को नकद पुरस्कार देने में कभी पीछे नहीं रहेगी और इसमें संसाधनों की कमी आड़े नहीं आने दी जाएगी. अब अगर ऐसा ही था तो फिर खिलाड़ियों को पहले 25 हज़ार रुपये देने की बात क्यों की गई? इसका जवाब भी माकन को देना चाहिए, क्योंकि 25 हज़ार और ड़ेढ लाख में छह गुने का अंतर होता है. इस बदलाव से दो बातें निकल कर सामने आती हैं.

 पहली बात तो यह कि अगर खेल मंत्रालय के पास पहले से ही इतना पैसा था तो वह 25 हज़ार रुपये की मामूली रकम देकर शेष पैसों का क्या करना चाहता था? दूसरी बात यह कि अगर खिलाड़ियों ने पहले मिलने वाली राशि लेने से इंकार न किया होता तो क्या उनके हिस्से में डेढ़ लाख के बजाय स़िर्फ 25 हज़ार रुपये ही आते यानी एक लाख पच्चीस हज़ार रुपये हर खिलाड़ी के खाते से बचते. अब सवाल यह उठता है कि इतना सारा पैसा किसकी जेब में जाता? खेल मंत्रालय की बातों में एक बहुत बड़ा विरोधाभास नज़र आता है. कभी वह कहता है कि उसके पास टीम के खिलाड़ियों को देने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है और इसके पीछे वजह भी वह लाजवाब बताता है. उसके मुताबिक़, हॉकी क्रिकेट की तरह न तो पापुलर है और न हॉकी के मैचों के लिए बड़ी संख्या में स्पांसर मिलते हैं. अब आपको बताते हैं कि इस बात में कितनी सच्चाई है. 15 दिसंबर से 22 जनवरी के बीच भारतीय हॉकी महासंघ और निम्बस के संयुक्त तत्वावधान मेंविश्व सीरीज हॉकी खेली जाएगी. इसमें 140 भारतीयों समेत दुनिया भर के 200 खिलाड़ी भाग लेंगे. इस सीरीज के प्रमोटर निम्बस स्पोट्‌र्स का कहना है कि इसके पहले ही सत्र में खिलाड़ी 40 लाख रुपये से अधिक कमाई कर सकते हैं. यानिक कोलासो, जो निम्बस के मुख्य संचालन अधिकारी हैं, के मुताबिक़ हाल में मिली जीत के बाद इस सीरीज की अहमियत और बढ़ गई है. अब खिलाड़ियों को वित्तीय सुरक्षा मिलेगी और देश में हॉकी का स्तर मज़बूत होगा. ग़ौरतलब है कि इस सीरीज के साथ भारतीय हॉकी टीम के कप्तान राजपाल सिंह के अलावा अर्जुन हलप्पा, प्रभजोत सिंह, एड्रियन डिसूजा, भरत छेत्री, शिवेंद्र सिंह, रोशन मिंज और धनंजय महाडिक ने अनुबंध किया है.

इसके अलावा दो साल का प्रतिबंध झेल रहे संदीप सिंह और सरदारा सिंह भी इससे जुड़े हैं. यह जानकर ताज्जुब होगा कि इस सीरीज में ईनामी राशि साढ़े चार करोड़ रुपये है. अच्छी बात यह है कि इसमें भारतीय और विदेशी खिलाड़ियों को बराबर कमाने का मौक़ा मिलेगा. एक अच्छी बात जो स्पांसर न मिलने की बात को सिरे से नकारती है, वह यह कि हॉकी विश्वकप में भारत और पाकिस्तान के बीच मैच की औसत टीवी रेटिंग भारतीय क्रिकेट टीम के टेस्ट मैचों की रेटिंग के बराबर या उससे अधिक रही. अब अगर टेलीविज़न रेटिंग के स्तर पर भी हॉकी मैच इतने देखे गए तो फिर स्पांसर न मिलने का सवाल ही नहीं पैदा होता है. असल में अगर खेल मंत्रालय हॉकी की सही मार्केटिंग करे और खिलाड़ियों को उनका वाजिब मेहनताना दे तो विश्व सीरीज हॉकी भी आईपीएल की तरह मुना़फे वाली संस्था हो सकती है. आपको बता दें कि भारत में अगर क्रिकेट के बाद सबसे ज़्यादा दर्शक हैं तो वे हमारे राष्ट्रीय खेल हॉकी के हैं. किसी भी खेल में अच्छे प्रदर्शन के लिए पुरस्कार ज़रूरी है. यह बात क्रिकेट पर भी पूरी तरह लागू होती है. लेकिन दु:ख से ज़्यादा इस बात पर गुस्सा आता है कि हमारे देश में खिलाड़ियों को विश्व हॉकी जैसी प्रतिस्पर्धा जीतने के बाद भी उचित फीस के लिए तरसना पड़ता है. अब यह जीत का गम नहीं तो और क्या है? एक सवाल वर्षों के बाद भी जस का तस है कि इस राष्ट्रीय खेल की दुर्दशा के लिए आख़िर कौन ज़िम्मेदार है, इसके कर्ताधर्ता और सरकार या फिर कोई और?

Wednesday, September 28, 2011

क्रिकेट और करिश्माई चश्मा


क्रिकेट बाज़ार और परिवर्तन की चरम सीमा से गुजर रहा है. यह खेल अब तक राष्ट्रीय खेल हॉकी समेत अन्य खेलों को तो हाशिए पर ढकेल ही चुका है और अब अपने ही फॉर्मेटों के साथ बदलाव कर रहा है. यह कभी फटाफट खेल की दुनिया में प्रवेश करता है तो कभी तकनीकी बदलाव से गुजरता है. फटाफट क्रिकेट की वजह से तो यह अपने ही कई फॉर्मेटों के अस्तित्व को संकट में डालने का काम कर रहा है. पूर्व आस्ट्रेलियन कप्तान एलन बॉर्डर ने तो हाल में टेस्ट क्रिकेट को ही ख़तरे में बताया.

दरअसल उनकी यह चिंता 20-20 के फटाफट क्रिकेट के चढ़ते खुमार को देखते हुए बढ़ी है. बड़े ताज्जुब की बात है कि जिस खेल में आएदिन विवादों की बौछार रहती हो और हर साल कोई न कोई खिला़डी मैच फिक्सिंग और स्पॉट फिक्सिंग करते पकड़ा जाता हो, वह खेल लोकप्रियता के पायदान पर अब तक अव्वल है. इतना ही नहीं, अपने फॉर्मेट के साथ छेड़छा़ड के अलावा मुना़फे की लड़ाई को लेकर भी बोर्ड और खिलाड़ियों के बीच तनातनी होने के बावजूद क्रिकेट अभी तक हॉकी की तरह नहीं बिखरा, यह शोध का विषय हो सकता है. मसलन कौन टॉस जीतेगा, कौन अंपायर किस तऱफ खड़ा होगा, कितने खिलाड़ी धूप का चश्मा पहनेंगे, पारी में कितनी बार विकेट कीपर बेल्स गिराएगा, कौन सा गेंदबाज़ पहले बदलाव के तौर पर आएगा और कब नई गेंद ली जाएगी. इसे माइक्रो फिक्सिंग या फैंसी फिक्सिंग भी कहते हैं. अब इतनी बारीक़ चीजों को इसी हाईडेफिनेशन कैमरे के ज़रिए ही पकड़ा जा सकता है. परिवर्तन का एक और आयाम पूरा करते हुए क्रिकेट में एक ताजा तकनीकी बदलाव आया है. अभी हाल में ख़बर आई है कि 19 सितंबर से शुरू हो रही चैंपियंस लीग 20-20 टूर्नामेंट के दौरान खिलाड़ियों को विशेष प्रकार के चश्मे दिए जाएंगे. इन चश्मों की ख़ासियत यह है कि इनमें हाईडेफिनेशन के कैमरे लगे होंगे. ये चश्मे देने का मक़सद यह बताया जा रहा है कि इसके जरिए अब मैच के दृश्यों को उस खिलाड़ी की नज़र से देखा जाएगा. चैंपियंस लीग 20-20 टूर्नामेंट के दौरान खिलाड़ी जो कैमरायुक्त चश्मा पहनेंगे, उसकी मेमोरी 8 जीबी तक होगी. कैमरे के ज़रिए वीडियो और ऑडियो दोनों चीजें रिकॉर्ड हो सकेंगी.

 इस वीडियो की रिजोल्यूशन 720 पिक्सल तक रहेगी यानी 30 फ्रेम प्रति सेकेंड की स्पीड. इनके लेंस पोलराइज्ड होंगे, जिससे धूप से उनके ख़राब होने का ख़तरा नहीं रहेगा. हालांकि हाईडेफिनेशन कैमरे से लैस यह चश्मा टीम के सभी सदस्य नहीं पहन सकेंगे. मैच से पहले टीम प्रबंधन उस एक खिलाड़ी का नाम तय करेगा, जो पूरे मैच के दौरान यह चश्मा पहनेगा. एक खिलाड़ी इसे सर्वाधिक 3 ओवरों तक पहनेगा. इसके बाद प्रोडक्शन टीम का सदस्य उससे कैमरे को ले लेगा. टीम बस में भी मैनेजर की इजाज़त से खिलाड़ी बस के अंदर के दृश्यों को कैमरे में कैद कर सकते हैं. यानी अब आप अपने पसंदीदा खिलाड़ी की आंखों से गुजरने वाले दृश्यों के ज़रिए मैच को एक अलग दृष्टिकोण से देख सकते हैं. अभी तक क्रिकेट में यूडीआरएस, बॉल ट्रेकर और हॉटस्पॉट जैसी तकनीकें जुड़ी थीं, लेकिन यह हाईडेफिनेशन कैमरा आने के बाद मैच में कई रोचक बदलाव देखने को मिलेंगे. ग़ौरतलब है कि इससे पहले अंपायर डिसीजन रिव्यू सिस्टम (यूडीआरएस) के इस्तेमाल पर भी काफी चर्चा हुई थी.

 इसके अलावा हॉटस्पॉट और स्नीकोमीटर पर तो यह कहा गया था कि जब मैदान पर अंपायर को समझ में नहीं आता कि वह क्या फैसला ले, तब उसके लिए हॉटस्पॉट और स्नीकोमीटर मददगार हो सकते हैं, लेकिन हॉकआई के इस्तेमाल पर कुछ शंकाएं थीं. इसमें यह पेंच बताया गया था कि कैमरा जहां लगाया जाएगा, उससे गेंद कहां जाएगी, उसका कोण क्या होगा, इस बाबत एकदम सही पता लगाना मुश्किल होगा. सचिन तेंदुलकर स्नीकोमीटर की मदद से यूडीआरएस के इस्तेमाल के पक्ष में थे, जबकि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) और कप्तान महेंद्र सिंह धोनी इसके एकदम ख़िला़फ थे. बहरहाल, इस हाईडेफिनेशन कैमरे के इस्तेमाल से कुछ बदलाव ऐसे भी होंगे, जो किसी के हित में जाएंगे और किसी के अहित में. अगर कोई खिलाड़ी अंपायर के आसपास यह चश्मा लगाकर खेलेगा तो उसे कई सनसनीखेज बातें सुनने और रिकॉर्ड करने का मौक़ा मिलेगा. जैसे अभी हाल में इंग्लैंड और पाकिस्तान के बीच टेस्ट में कथित स्पॉट फिक्सिंग के लिए गिरफ्तार सटोरिए मजहर मजीद ने दावा किया कि कई पाकिस्तानी क्रिकेटरों को खेल से कोई प्यार नहीं है, बल्कि वे स़िर्फ दौलत, औरतों और खाने की तलाश में रहते हैं. यह बात मजहर मजीद ने एक ब्रिटिश टेबलायड द्वारा कराए गए स्टिंग ऑपरेशन के दौरान कही. अब अगर वही बातचीत, जिसमें खिलाड़ी अपनी ऐसी मंशा ज़ाहिर करते हों, इस हाईडेफिनेशन कैमरे से लैस चश्मे के ज़रिए रिकॉर्ड हो जाए तो फिर विपक्षी टीम का सच दुनिया के सामने लाने में देर नहीं लगेगी. इसके अलावा स्पॉट फिक्सिंग को पकड़ने में भी यह चश्मा काफी मददगार साबित हो सकता है. चूंकि मैदान में हर जगह इतने कैमरे लगाना मुमकिन नहीं है, जो हर खिलाड़ी के इर्द-गिर्द रहें और उसकी हर प्रतिक्रिया को रिकॉर्ड करने में सक्षम हों. ऐसे में किसी खिलाड़ी की आंखों में यह कैद होना कोई मुश्किल काम नहीं है. बशर्ते उस खिलाड़ी में इतनी ईमानदारी हो कि वह उस टेप को सही हाथों में पहुंचा दे.यह काम इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि आजकल क्रिकेट को सबसे बड़ा ख़तरा स्पॉट फिक्सिंग से है. इस बात से सभी वाकिफ हैं कि किसी ख़ास सत्र में खिलाड़ी या अधिकारी की हरकत पर लगाया गया दांव स्पॉट फिक्सिंग है.

 ज़रूरी नहीं कि इसका मैच के नतीजे पर असर हो. मसलन कौन टॉस जीतेगा, कौन अंपायर किस तरफ खड़ा होगा, कितने खिलाड़ी धूप का चश्मा पहनेंगे, पारी में कितनी बार विकेट कीपर बेल्स गिराएगा, कौन सा गेंदबाज पहले बदलाव के तौर पर आएगा और कब नई गेंद ली जाएगी. इसे माइक्रो फिक्सिंग या फैंसी फिक्सिंग भी कहते हैं. अब इतनी बारीक चीजों को इसी हाईडेफिनेशन कैमरे के ज़रिए ही पकड़ा जा सकता है. इसके अलावा अंपायर के नज़दीक मौजूद खिलाड़ी के चश्मे के कैमरे में अंपायर की कई प्रतिक्रियाएं रिकॉर्ड हो सकती हैं. मसलन अंपायर का किसी खिलाड़ी विशेष के प्रति लगाव या पक्षपात या फिर अंपायर की कोई ऐसी टिप्पणी भी रिकॉर्ड हो सकती है, जो बवाल मचाने के लिए काफी होती है. मैच के दौरान खिलाड़ियों के चश्मे से रिकॉर्ड किए गए टेप अगर ग़लत हाथों में चले गए तो कोई ताज्जुब नहीं कि भविष्य में कोई बड़ा स्कैंडल खुल जाए. बस इस चश्मे का रंग कहीं बदरंग न हो जाए, इसका डर है. फिर भी यह कहना ग़लत नहीं होगा कि नई तकनीक इस खेल को और ज़्यादा रोचक बनाने वाली है 

Thursday, September 8, 2011

देश भर से आई आवाज़: मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना



राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार के ख़िला़फ अन्ना हजारे का आमरण अनशन किसी कुंभ से कम नहीं है. जिस तरह कुंभ किसी एक जगह पर न होकर प्रयाग से लेकर नासिक, उज्जैन और हरिद्वार में संपन्न होता है, उसी तरह आज़ादी की दूसरी लड़ाई का यह कुंभ स़िर्फ दिल्ली तकही सीमित नहीं रहा, बल्कि देश के कोने-कोने में फैल चुका है. जिसने भी इस कुंभ में डुबकी नहीं लगाई, वह हमेशा भ्रष्टाचार की गंगोत्री में गले तक डूबा रहेगा. यूं तो समय-समय पर जनता को जगाने के लिए हमेशा से ही रैलियां और आंदोलन होते रहे हैं, लेकिन हर आंदोलन और रैली के नसीब में जनता की इतनी बड़ी भागीदारी नहीं होती, लेकिन अन्ना के इस आंदोलन ने जनता का नसीब बदलने के निए न स़िर्फ उसे जगाया, बल्कि अंदर तक झकझोर कर रख दिया. आज देश के हर छोर से यही आवाज़ आ रही है कि मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना, अब तो सारा देश है अन्ना.

महाराष्‍ट्रः मी मराठी, मी अन्ना

अन्ना तो हैं ही मराठी, इसलिए महाराष्ट्र में अन्ना का आंदोलन पूरे उफान पर चल रहा है. चाहे बात उनके गांव राले सिद्धी की हो या पूरे महाराष्ट्र की, हर जगह स़िर्फ और स़िर्फ अन्ना की टोपी ही दिखाई दे रही है. हर कोई मी मराठी, मी अन्ना के नारे लगा रहा है. मुंबई, नागपुर, पुणे, औरंगाबाद और राज्य के लगभग हर शहर में अन्ना तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं के नारे गूंज रहे हैं. अन्ना का एक समर्थक तो उनके गांव से महाराष्ट्र तक का सफर बैलगाड़ी में स़िर्फ इसलिए पूरा करके आया, क्योंकि वह अन्ना के साथ है. लगभग यही नारा पूरे प्रदेश में आम है. राजनीतिक दलों की बात की जाए तो अन्ना की इस मुहिम में कई दलों के नेता, जो अब तक अपनी पार्टी की ज़ुबान बोल रहे थे, आज पार्टी की टोपी उतार कर अन्ना के सुर में गा रहे हैं. जहां संजय निरूपम अन्ना की टोपी पहन कर आंदोलन में शामिल हुए, वहीं उत्तर पश्चिम मुंबई की सांसद प्रिया दत्त ने भी अन्ना का खुलकर समर्थन किया. प्रिया ने अन्ना समर्थकों को भरोसा दिलाया कि वह इस मसले को संसद में उठाएंगी. इतना ही नहीं, अन्ना समर्थकों ने नवी मुंबई के सांसद संजीव नाईक के घर के सामने प्रदर्शन किया. मुंबई के सभी छह सांसदों के घरों पर प्रदर्शन हुआ. संजय और प्रिया के अलावा पूर्व केंद्रीय मंत्री गुरुदास कामत, संजय पाटिल, एकनाथ गायकवाड़ एवं मिलिंद देवड़ा के घरों के सामने भी अन्ना समर्थकों ने शांतिपूर्वक प्रदर्शन किया और उन्हें गुलाब का फूल एवं राष्ट्रध्वज भेंट किया. जो सांसद शहर से बाहर थे यानी अपना आवास छोड़कर दिल्ली दरबार में दुबक गए थे, आंदोलनकारियों ने मोमबत्ती जलाकर उनके घरों के सामने रखी और उन्हें सद्बुद्धि की कामना के साथ भजन-कीर्तन किया. उसे जन लोकपाल के समर्थन में संसद में आवाज़ बुलंद करने की अपील भी की गई. वहां पुलिस भी पहुंची. चूंकि इस कार्यक्रम की सूचना पुलिस को नहीं थी, इसीलिए वह सकते में आ गई. आंदोलनकारियों ने अचानक कार्यक्रम बनाया और सीधे सांसदों के घर पहुंच गए. अब जब भी सांसद वापस अपने घर आएंगे तो उन्हें जनता का सामना करना पड़ेगा. महाराष्ट्र में इस मुहिम में लोगों की भागीदारी बढ़ती जा रही है. ज़्यादातर महाराष्ट्रियन अन्ना के समर्थन और उनके दर्शन के लिए दिल्ली के रामलीला मैदान की ओर रवाना हो रहे हैं.


उत्तर प्रदेश- उत्तराखंडः किन्नर, महिला, बुजुर्ग और बच्चे

भ्रष्टाचार को देश से उखाड़ फेंकने के लिए संकल्पबद्ध उत्तर प्रदेश का तो नज़ारा ही अलग है. यहां एक तऱफ जहां बुज़ुर्ग गांधीवादी नेता, बच्चे, महिलाएं और युवा अन्ना हजारे के आंदोलन को समर्थन देने के लिए सड़कों पर उतर आए हैं, वहीं अब तक समाज की उपेक्षा के शिकार किन्नर भी इस आंदोलन में भागीदारी कर रहे हैं. राजधानी लखनऊ के अमीनाबाद, सदर बाजार और कुछ अन्य क्षेत्रों में किन्नरों ने सड़क पर उतर कर भ्रष्टाचार के ख़िला़फ अपने विशेष अंदाज़ में जमकर नारेबाज़ी की और हजारे के आंदोलन में शामिल होने का ऐलान किया. वे कहते हैं कि हम इस देश के नागरिक हैं और हमें भी अपने देश से प्यार है. लगभग पूरे प्रदेश में विभिन्न स्थानों पर अन्ना समर्थकों का अनशन, धरना-प्रदर्शन, जुलूस, पदयात्रा, जनसंवाद और हस्ताक्षर अभियान जारी है. एक और चौंकाने वाली बात सामने आ रही है कि जन लोकपाल बिल पारित होने के पहले ही अन्ना हजारे के अनशन और जनांदोलन के चलते सरकारी कार्यालयों में भ्रष्टाचार कम हो गया है. जिन महकमों को बेहद अच्छी कमाई वाला माना जाता है, वहां के अधिकारी-कर्मचारी रिश्वत लेने में हिचकने लगे हैं. तमाम कमाऊ विभागों के कर्मचारी अन्ना के आंदोलन में भागीदारी कर रहे हैं. यह अपने आप में एक सकारात्मक परिवर्तन है. हाल में कानपुर के पनकी बी ब्लाक में 3500 रुपये में मीटर में रिमोट ऑपरेटेड डिवाइस लगाने वाले कर्मचारी को उपभोक्ता ने रंगे हाथों पकड़वा दिया. लोगों का कहना है कि अन्ना के आंदोलन ने काफी हद तक लोगों को जागरूक किया है. उधर कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी, सांसद रेवती रमण सिंह, कपिल मुनि करवरिया, शैलेंद्र कुमार और प्रमोद तिवारी के घरों को भी अन्ना समर्थकों ने घेरा. स़िर्फ उत्तर प्रदेश में ही नहीं, इस ऊनशन की गूंज अब देश के आख़िरी गांव माणा में भी पहुंच गई है. उत्तराखंड के चमोली ज़िले के बद्रीनाथ धाम से तीन किलोमीटर दूर पहाड़ों पर स्थित माणा गांव के लोगों ने भी अन्ना हजारे के समर्थन में अपनी आवाज़ बुलंद की. चीन की सीमा पर स्थित देश के इस आख़िरी गांव के लोगों का मानना है कि हर हालत में भ्रष्टाचार का सफाया होना चाहिए.


मध्‍य प्रदेशः नवजात शिशु कहलायेंगे अन्ना

कहीं लोग अन्ना के आमरण अनशन के समर्थन में ख़ुद अनशन पर बैठे हैं तो कहीं आधी रात और तेज बरसात में रघुपति राघव राजा राम गा रहे हैं, लेकिन मध्य प्रदेश में अन्ना का जुनून कुछ इस कदर छाया हुआ है कि लोग अपनी भावी पीढ़ी को अन्ना हजारे जैसा बनाना चाहते हैं, इसीलिए नवजात शिशुओं का नाम अन्ना रखा जा रहा है. हर कोई अन्ना बनने को बेताब है. मध्य प्रदेश के दमोह ज़िले के ज़िला चिकित्सालय में हाल में जन्मे तीन नवजात शिशुओं के अभिभावकों ने उनका नाम अन्ना रख दिया है. भारत सिंह ने अपने बेटे का नाम स़िर्फ इसलिए अन्ना रखा, क्योंकि उनके परिवार में यह मेहमान तब आया है, जब देश में अन्ना हजारे का आंदोलन चल रहा है. वह चाहते हैं कि उनका बेटा भी अन्ना जैसा बने और देश के लिए कुछ करने के साथ-साथ उनका भी नाम रोशन करे. डॉक्टर कहते हैं कि यह पहला अवसर है, जब नवजात शिशुओं के अभिभावकों ने उनके एक जैसे नाम रखे. इसके अलावा भिंड ज़िले के एहतरार गांव में पूरा गांव ही अनशन पर बैठ गया है. इसमें हर वर्ग के लोग शामिल हैं. सागर ज़िले के बीना में लोग गीत-संगीत के माध्यम से इस मुहिम को घर-घर तक पहुंचा रहे हैं. प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी भी खुलकर अन्ना हजारे के समर्थन में आ गई है. अन्ना समर्थकों ने भोपाल में कैलाश जोशी एवं कांतिलाल भूरिया, छिंदवाड़ा में कमलनाथ, होशंगाबाद में राव उदय प्रताप सिंह, बैतूल में ज्योति धुर्वे, उज्जैन में प्रेमचंद गुड्डू का घेराव किया. इसके अलावा इंदौर, जबलपुर, ग्वालियर, सतना, रीवा और सिवनी में भी आंदोलन किया गया. अन्ना के आंदोलन को लेकर मध्य प्रदेश में ज़बरदस्त उत्साह देखा जा रहा है.

बिहारः यहां भी है अन्ना की धूम

अन्ना हजारे की एक आवाज़ पर बिहार के चप्पे-चप्पे में इन दिनों धरना, प्रदर्शन, उपवास और कैंडल मार्च का नारा आम हो गया है. अलग-थलग पड़े पुराने संगठनों में जान आ गई है, कई नए संगठन भी खड़े हो गए हैं. बापू के भजन और देशभक्ति गीत बच्चों की ज़ुबान पर चढ़ गए हैं और नए-नए नारे गढ़े जा रहे हैं. अन्ना हजारे के अनशन और उसे मिले समर्थन ने उन लोगों को ताक़त दी है, जो स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार के ख़िला़फ लड़ते रहे हैं, तभी तो नालंदा ज़िले के परवलपुर में समाजसेवी नवल प्रसाद पिछले एक सप्ताह से ऊनशन पर हैं. वह आंगनवाड़ी केंद्रों में पोषाहार, मिड डे मील और जन वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार ख़त्म करने की मांग कर रहे हैं. सारण में पुराने आंदोलनकारी उमेश्वर सिंह उर्फ मुनि जी अपने कई साथियों के साथ अनशन पर हैं, पटना के कारगिल चौक पर जेपी आंदोलन में सक्रिय रहे अरुण दास और टी उपेंद्र अनशन पर बैठे हैं. इंडिया अगेंस्ट करप्शन से जुड़े राहुल राजन कहते हैं कि धरना, प्रदर्शन एवं उपवास के ज़रिए हम अन्ना हजारे को ताक़त दे रहे हैं. अन्ना विचार मंच, अन्ना संघ जैसे कई नए संगठन भी खड़े हो गए हैं. गोपालगंज में सेवानिवृत्त आईजी गिरीश नंदन सिंह ने भगवानपुर कैमूर में अन्ना हजारे की मूर्ति स्थापित करने की घोषणा की है. पूर्णियां में लोगों ने हनुमान मंदिर के सामने उपवास शुरू किया है, यहां भजन भी गाए जा रहे हैं. बापू का प्रिय भजन-रघुपति राघव राजाराम…भी लोगों की ज़ुबान पर है. राजधानी पटना में कोचिंग संस्थानों के छात्र भी अन्ना के समर्थन में उतर आए हैं. भौतिकविद् एच के वर्मा के नेतृत्व में छात्र-छात्राओं का बड़ा हुजूम पटना की सड़कों पर उतरा. वर्मा कहते हैं कि जन लोकपाल देश के हित में है, इसलिए हम लोग समर्थन में उतरे हैं. वर्मा की राय है कि अक्षर इस देश से भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाए तो ज़्यादातर समस्याओं का समाधान हो सकता है. उन्होंने देशवासियों से अपील की कि वे अन्ना के आंदोलन को समर्थन दें. गणित विषय के शिक्षक पंकज ने कहा कि अन्ना हजारे सत्य के साथ हैं और जीवन के हर क्षेत्र में वही शख्स कामयाब होता है, जो सच के साथ होता है. दवा व्यापार से जुड़े अमरेंद्र सिंह कहते हैं कि अन्ना हजारे ने पूरे देश को एक रास्ता दिलाया है. उनके आंदोलन से यह साफ हो गया कि भ्रष्टाचार और उसके कारण बढ़ रही महंगाई से पूरा देश त्रस्त है. इसलिए इस समय देशवासियों का फर्ज़ है कि वे भ्रष्टाचार के ख़ात्मे के लिए शुरू हुए इस आंदोलन को अपना पूरा समर्थन दें.

- सरोज सिं

Wednesday, August 31, 2011

हार का ठीकरा किसके सिर


अब टीम इंडिया इंग्लैंड के साथ अपने आख़िरी टेस्ट मैच का अंजाम चाहे जो भी देखे, लेकिन 3-0 की हार से हुआ आगाज़ यह बताने के लिए काफी है कि भारतीय क्रिकेट टीम की न तो लाज बची है और न ताज. ताज तो उसने अपने शर्मनाक प्रर्दशन के साथ ही गंवा दिया था, लेकिन लाज गंवाई उसने हार का ठीकरा बेमतलब की बातों पर फोड़कर. सीधे-सीधे अपने अति आत्मविश्वास और लचर प्रदर्शन को हार का ज़िम्मेदार न मानते हुए धोनी वही पुराने डायलाग्स दोहराते नज़र आए. कभी कहते हैं कि किसी भी टीम के लिए हर मैच जीतना आसान नहीं है और कभी कहते हैं कि हम लोगों ने काफी समय से इतना क्रिकेट खेला है कि आराम करने का मौक़ा ही नहीं मिला. वहीं कुछ लोग टीम की हार का ठीकरा कोच फ्लेचर के सिर फो़ड रहे हैं. ताज्जुब की बात है कि जब टीम कोई बड़ा मैच जीतती है तो कोच को जीत का उतना हिस्सेदार नहीं माना जाता, जितना हार का. ख़ैर, अगर हम धोनी की इन बातों को तार्किक भी ठहराएं तो यह बात समझ के बाहर है कि टीम इंडिया इतने बड़े अंतर से कैसे हार गई. नंबर एक की सीट पर काबिज टीम का प्रदर्शन इतना भी नहीं गिरता कि वह अपना सूपड़ा इस तरीक़े से साफ कराए. आस्ट्रेलिया का ही उदाहरण ले लीजिए. वह विश्व विजेता रह चुकी है और हारती भी है, लेकिन उसकी हार में टीम का ज़बरदस्त संघर्ष दिखाई देता है.

मैं समझ सकता हूं कि बीसीसीआई टेस्ट मैचों की शर्मनाक हार के कारणों का पता लगाना चाहता है. यह स्वागत योग्य क़दम है. मुझे उम्मीद है कि यह एकतरफा जांच नहीं होगी.

- वसीम अकरम



ग़ौर करने वाली बात है कि भारतीय टीम ने इंग्लैंड में छह पारियों में एक बार भी अपना स्कोर 300 के पार नहीं किया. इसके अलावा टीम की अधिकतर पारी 90 ओवर से कम में ही सिमट गई. मतलब टीम एक पूरे दिन भी मैदान पर टिकने में नाकाम रही. जिस टीम में सचिन, सहवाग, लक्ष्मण और द्रविड़ जैसे सूरमा हैं, वह अपनी बल्लेबाज़ी के लिए परेशान है. यह बात भी गले नहीं उतरती है. टेस्ट मैच में यह ज़रूरी होता है कि आप धैर्य के साथ पिच पर टिकें और कम से कम 90 ओवरों की बल्लेबाज़ी करें. तभी कोई टीम जीत की नींव रख पाती है. बर्मिंघम टेस्ट का ही उदाहरण लें तो एक ओर जहां भारत की पहली पारी 62.2 ओवरों तक टिकी, वहीं दूसरी पारी महज़ 55.3 ओवरों में ही सिमट गई. इसके विपरीत इंग्लैंड ने पहली ही पारी में 188 ओवर खेले. इंग्लैंड के हाथों तीसरे टेस्ट में एक पारी और 242 रनों की करारी हार के बाद भारत ने टेस्ट टीम में नंबर वन की हैसियत खो दी है. इसके  साथ ही आईसीसी टेस्ट रैंकिंग शुरू होने के बाद 32 वर्षों में इंग्लैंड पहली बार टेस्ट रैंकिंग में पहले नंबर पर पहुंचा है. लगभग 20 महीनों तक नंबर वन की रैंकिंग वाली महेंद्र सिंह धोनी की टीम एजबेस्टन टेस्ट में अपनी दूसरी पारी में भी 242 रनों पर धराशायी हो गई. जबकि खेल का एक दिन बाक़ी था. ज़रा सोचिए कि इंग्लैंड के एक खिला़डी कुक ने अकेले ही पूरी भारतीय टीम से ज़्यादा रन जोड़े. इस हार को हम हाल में किसी अन्य देश में भारत की सबसे बुरी हार के तौर पर शुमार कर सकते हैं. अगर क्रिकेट के इतिहास में थोड़ा पीछे जाकर देखें तो इससे पहले भारत को सबसे ख़राब हार का सामना वर्ष 1958 में करना पड़ा था, जब कोलकाता में वेस्टइंडीज़ ने उसे एक पारी और 336 रनों से हराया था, लेकिन उस दौरान भारतीय टीम क्रिकेट के खांचे में फिट होने की कोशिश कर रही थी, लेकिन आज के दौर में जब भारतीय क्रिकेट टीम ने दुनिया भर में कामयाबी का झंडा लहरा दिया है तो ऐसे में इतनी अपमानजनक हार क्रिकेट प्रेमी पचा नहीं पा रहे हैं.

हाल में बीसीसीआई की कार्यकारी समिति की बैठक में फैसला किया गया कि निवर्तमान अध्यक्ष शशांक मनोहर और भावी अध्यक्ष एन श्रीनिवासन हार के कारणों की जांच करेंगे. इस पर वसीम अकरम कहते हैं, मैं समझ सकता हूं कि बीसीसीआई टेस्ट मैचों की शर्मनाक हार के कारणों का पता लगाना चाहता है. यह स्वागत योग्य क़दम है. मुझे उम्मीद है कि यह एकतरफा जांच नहीं होगी. अकरम के मुताबिक़, मुझे एक बात ने चिंतित किया कि क्या भारत के पास तेंदुलकर, द्रविड़, लक्ष्मण और सहवाग जैसे खिलाड़ियों की जगह भरने के लिए कुशल खिलाड़ी हैं? रैना, कोहली और रोहित शर्मा जैसे खिलाड़ियों को अभी मीलों दूरी तय करनी है. चयनकर्ताओं के लिए यह बड़ा मुश्किल काम होगा. टीम में लगभग हर क्षेत्र में लापरवाही और कमज़ोरियां देखी गईं. चाहे वह बल्लेबाज़ी हो, क्षेत्ररक्षण, गेंदबाज़ी और मनोबल हो. इन सभी आयामों में टीम इंडिया पूरी तरह से चित्त रही. टीम की इस दुर्दशा के लिए कोच फ्लेचर भी कई मायनों में ज़िम्मेदार हैं. भारतीय क्रिकेट टीम में बतौर कोच जब गैरी क्रिस्टन शामिल थे, तब टीम अपने स्वर्णिम दौर से गुजर रही थी. जबसे कमान फ्लेचर ने संभाली है, टीम इंडिया का लचर प्रदर्शन दिखा है. यह संयोग भी हो सकता है, लेकिन कुछ तर्क ऐसे हैं, जिनके आधार पर फ्लेचर को टीम इंडिया की इस दुर्दशा का ज़िम्मेदार मान सकते हैं. मसलन उनका एक बयान, जिसमें उन्होंने टीम इंडिया की हार के लिए पिच को ज़िम्मेदार ठहराया. ग़ौरतलब है कि लॉर्ड्स और नॉटिंघम के बाद एजबेस्टन में भी भारतीय बल्लेबाज़ों के फ्लॉप शो के  बाद फ्लेचर ने कहा था कि इसके लिए इंग्लैंड की तेज पिचें ज़िम्मेदार हैं, लेकिन क्या वाकई में ऐसा है? इस बात से सभी वाक़ि़फ हैं कि फ्लेचर इंग्लैंड टीम के साथ आठ साल गुजार चुके हैं. अब किसी भी देश में इतना व़क्त बिताने के बाद अगर कोई कोच यह कहता है कि हम वहां की पिच और परिस्थितियों से वाक़ि़फ नहीं हैं तो थोड़ा ताज्जुब होता है. ऐसा नहीं था कि टीम ने ऐसी पिचें पहली बार देखी थीं. दक्षिण अफ्रीका में भी टीम को तेज उछाल वाली पिचें मिली थीं, लेकिन तब भारतीय टीम ने अपनी रणनीति में लगातार बदलाव कर सीरीज 1-1 से ड्रा खेली थी. हैरत की बात यह है कि ख़राब पिच की दुहाई वह कोच दे रहा है, जिसने आठ साल उसी देश में गुजारे हैं. फ्लेचर के पास ब्रिटिश नागरिकता भी है. ऐसे में फ्लेचर का वहां की परिस्थितियों से वाक़ि़फ न होना शक पैदा करता है.

सच तो यह है कि टीम इंडिया पिछले कुछ समय से इस कदर जीतती आ रही है कि उसने कभी अपनी कमज़ोरियों पर ध्यान देने की ज़रूरत ही नहीं समझी. क़िस्मत और कुछ खिलाड़ियों का प्रदर्शन साथ रहा तो जीतते गए और अगर उन्होंने साथ छोड़ा तो चारों खाने चित्त. कोच के मसले को दरकिनार करके अब बात करते हैं उस जूनियर चैंपियन टीम की, जो किसी भी बहाने में यक़ीन नहीं करती है. वह तो स़िर्फ प्रदर्शन करना जानती है. वहीं सीनियर टीम इंडिया कोच, पिच और थकान को अपनी हार में बतौर ढाल इस्तेमाल कर रही है. अभी हाल में ऑस्ट्रेलिया में संपन्न हुए इमर्जिंग प्लेयर्स टूर्नामेंट में शिखर धवन की अगुवाई में खेली इंडिया इमर्जिंग प्लेयर्स टीम ने टूर्नामेंट के दोनों फॉर्मेट टी-20 और तीन दिवसीय मैचों में जीत हासिल की. इस टीम ने सीनियर टीम इंडिया में लगातार फ्लॉप हो रहे खिलाड़ियों के लिए एक संकेत दिया है कि जीत का कोई विकल्प नहीं होता है. अगर वह ऑस्ट्रेलिया जैसे कठिन वेन्यू पर टूर्नामेंट जीतने का माद्दा रख सकती है तो सीनियर टीम इंडिया को उससे सबक लेने की ज़रूरत है.

Wednesday, August 17, 2011

हॉकी सिर्फ नाम का राष्ट्रीय खेल



कहते हैं जब कोई भी संस्थान या व्यक्ति अपने पतनके दौर से गुज़रता है तो एक दिन उसका उत्थान भी होता है, यानी उतार-च़ढाव की स्थिति सब पर लागू होती है. अगर नहीं लागू होती है तो वह है हमारी भारतीय हॉकी टीम. जी हां, दुनिया में हर बदहाल संस्था और टीम के दिन बहुर सकते हैं, लेकिन भारतीय हॉकी टीम के बारे में यही कह सकते हैं कि यह फिर से कामयाबी का सवेरा शायद ही कभी देख सके. बात स़िर्फ खिताबों के जीतने की ही नहीं, बल्कि हॉकी की संस्थात्मक स़डन से है.

 आज हॉकी के अंदर और बाहर का पूरा तंत्र इस क़दर स़ड चुका है कि जब भी हॉकी से जु़डी खबर आती है तो कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर होता है जिससे हमारे राष्ट्रीय खेल की फज़ीहत हो जाती है. अंतरराष्ट्रीय मुक़ाबलों में शर्मनाक हार झेलना तो बहुत पुरानी बात हो चुकी है. अब हम अपने देश में ही आपसी ल़डाई देख रहे हैं. कभी कोच के सेक्स स्कैंडल हॉकी को शर्मसार करते हैं तो कभी खिला़डी खुद के मेहनताने को लेकर स़डक पर विरोध प्रदर्शन के लिए उतर आते हैं. इतना ही नहीं टीम के खिलाडि़यों के आपसी संबंधों पर भी विवाद होते रहते हैं. फिर डोपिंग में फंसे खिला़डी बची खुची कसर पूरी कर देते हैं. कुल मिलाकर हॉकी आज अपने निम्नतम दौर से गुज़र रही है, लेकिन मुश्किलें हैं कि फिर भी खत्म होने का नाम ही नहीं लेती हैं.

अभी ताज़ा मामला चैम्पियंस ट्रॉफी और ओलंपिक क्वालीफाइंग टूर्नामेंट की मेज़बानी को लेकर उठ रहा है. इस बात से तो सभी वाक़ि़फ हैं कि पिछले कुछ दिनों से अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ (एफआईएच), हॉकी इंडिया (एचआई) और भारतीय हॉकी महासंघ (आईएचएफ) के बीच हुए आपसी समझौते से नाराज़ चल रहा था. इस बात का अंदेशा लगाया जा रहा था कि अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ (एफआईएच) ज़रूर कोई न कोई ठोस क़दम उठाएगा, ऐसा ही हुआ. हॉकी इंडिया (एचआई) और भारतीय हॉकी महासंघ (आईएचएफ) के बीच हुए आपसी समझौते से नाराज़ अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ (एफआईएच) ने भारत से चैंपियंस ट्रॉफी और ओलंपिक क्वालीफाइंग टूर्नामेंट की मेज़बानी छीन ली है. उसके इस क़दम ने न स़िर्फ हॉकी संघ की फज़ीहत की है, बल्कि इससे देश की भी फज़ीहत होती है. दरअसल एफआईएच ने अपने बयान में कहा था कि एफआईएच भारतीय खेल मंत्रालय द्वारा एचआई और आईएचएफ के बीच कराए गए समझौते को लेकर बेहद चिंतित है.


 इसके लिए एफआईएच से सलाह लेने की भी ज़रूरत नहीं समझी गई. एचआई, आईएचएफ और खेल मंत्रालय के बीच हुए समझौते के मुताबिक़ दोनों संगठनों ने आपसी मतभेदों को भुलाकर भारतीय हॉकी के विकास के लिए साथ मिलकर काम करने फैसला किया था. ग़ौरतलब है कि एफआईएच इस बात को लेकर नाराज़ था कि एचआई ने उससे सलाह के बग़ैर आईएचएफ के साथ साझा तौर पर काम करने संबंधी समझौता किया. एफआईएच के मुताबिक़ एचआई और आईएचएफ के बीच हुआ समझौता ओलंपिक और उसके चार्टर के खिला़फ है और यही कारण है कि वह भारत से चैंपियंस ट्रॉफी और ओलंपिक  क्वालीफाइंग टूर्नामेंट की मेज़बानी छीन रहा है. ग़ौरतलब है कि दोनों आयोजन नई दिल्ली में इस वर्ष के अंत में और 2012 की शुरुआत में होने थे. ऐसा नहीं है कि यह अचानक हो गया हो. दरअसल एफआईएच ने अपने बयान में कहा था कि एफआईएच भारतीय खेल मंत्रालय द्वारा एचआई और आईएचएफ के बीच कराए गए समझौते को लेकर बेहद चिंतित है. इसके लिए एफआईएच से सलाह लेने की भी ज़रूरत नहीं समझी गई. एचआई, आईएचएफ और खेल मंत्रालय के बीच हुए समझौते के मुताबिक़ दोनों संगठनों ने आपसी मतभेदों को भुलाकर भारतीय हॉकी के विकास के लिए साथ मिलकर काम करने फैसला किया था. हालांकि घरेलू स्तर पर दोनों संगठन अलग-अलग काम करेंगे. घरेलू स्तर पर दोनों के लिए बराबर ज़िम्मेदारियां तय करने के लिए एक संयुक्त कार्यकारिणी और कार्यकारी समिति का गठन किया जाएगा. नए संगठन को राष्ट्रीय टीम के चयन, उसकी तैयारी, विदेशी आयोजनों के लिए टीमों को भेजने और राष्ट्रीय कैंप आयोजित करने का काम सौंपा जाएगा. फिलहाल यह व्यवस्था 2012 तक के लिए की गई है. इसके बाद इन संगठनों की ज़िम्मेदारियों पर फिर से विचार किया जाएगा. ज़ाहिर सी बात है कि इस फैसले से एफआईएच खुश नहीं था. उसने सा़फ कहा है कि भारत के दो हॉकी संगठनों के बीच हुआ यह समझौता उसे म़ंजूर नहीं है. एफआईएच अध्यक्ष लेनार्दो नेगरे ने खेल मंत्री अजय माकन को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने इस बात का ज़िक्र किया कि इस मामले की गंभीरता को समझते हुए एचआई और भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्षों के बीच एक बैठक कराई जाए, जिसमें एफआईएच की चिंताओं को लेकर चर्चा होनी चाहिए.


 एफआईएच ने कहा कि उसके मुताबिक़ एचआई ही भारत में हॉकी का संचालन करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था है और इस नाते उसे ही भारतीय टीम के चयन और अंतरराष्ट्रीय आयोजनों की मेज़बानी का अधिकार मिलना चाहिए. एफआईएच किसी भी हाल में आईएचएफ को मान्यता नहीं दे सकता. एफआईएच ने वर्ष 2000 में आईएचएफ की मान्यता रद्द कर दी थी. अब हो सकता है कि इस मामले पर फिर कई बैठकें हों, पर इतना तो तय है कि हॉकी की जो फज़ीहत होनी थी, वह तो हो ही गई. समझने वाली बात यह है कि यहां पर हॉकी से ज़्यादा फज़ीहत भारत की हुई है. किसी भी देश के लिए ऎन व़क्त पर म़ेजबानी का छिनना बहुत ही शर्मिंदगी भरा होता है. खैर, जो होना था वह तो हो ही गया. लेकिन दिक्क़त तो इस बात को लेकर और ब़ढ जाती है कि ऐसे मौक़े पर जहां देश की अस्मिता के लिए टीम और प्रबंधन को एकजुट होकर देश को संदेश देना चाहिए था, उल्टा वे आपस में ही उलझे हुए हैं. पिछले दिनों कुछ खिलाडियों के अभ्यास शिविर छो़डकर विश्व श्रृंखला हॉकी के लिए भारतीय हॉकी महासंघ और नियो स्पोर्ट्स के मुंबई में हुए संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में शामिल होने की वजह से पनपा विवाद भी थमने का नाम नहीं ले रहा है. पूर्व भारतीय कप्तान धनराज पिल्लै ने हॉकी इंडिया से कारण बताओ नोटिस पाने वाले पांच वरिष्ठ खिलाड़ियों को सलाह दी है कि वे भारतीय हॉकी टीम में खेलने के लिए इस संस्था के  अधिकारियों के सामने गिड़गिड़ाए नहीं. इस बात से तो सभी वाक़ि़फ है कि हॉकी इंडिया ने कुछ दिनों पहले ही पांच वरिष्ठ खिलाड़ियों अर्जुन हलप्पा, संदीप सिंह, एड्रियन डिसूजा, सरदारा सिंह और प्रभजोत सिंह को बेंगलुरु में चल रहा अभ्यास शिविर छोड़कर विश्व श्रृंखला हॉकी के लिए भारतीय हॉकी महासंघ और नियो स्पोर्ट्स के मुंबई में हुए संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में शामिल होने की वजह से कारण बताओ नोटिस जारी किया था. हॉकी इंडिया की अनुशासन समिति के अध्यक्ष परगट सिंह ने इन पांचों खिलाड़ियों को नोटिस जारी किया था.


 बस विवाद यहीं से शुरू हो गया. इस विवाद को सुलझाने के बजाय धनराज इस मामले को एक तरह से तूल देते हुए यह बयान देते हैं कि इन खिलाड़ियों को अपने देश के लिए खेलने के लिए हॉकी इंडिया के अधिकारियों के सामने नाक नहीं रगड़नी चाहिए. हालांकि धनराज ने इसके अलावा जो सवाल उठाए हैं, वे कई मायनों में तार्किक हैं, मसलन पूर्व कप्तान ने इस निर्णय और हॉकी इंडिया में बड़ा पद ले चुके अपने पूर्व टीम साथी परगट पर टिप्पणी करते हुए कहा कि एक समय परगट भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष सुरेश कलमा़डी को माफिया कहा करते थे, लेकिन जब उन्हीं के बनाए हॉकी इंडिया में जब उनके सामने अच्छे पद की पेशकश की गई तो वह सबकुछ भूलकर पद की तऱफ लपक पड़े. धनराज ने विश्व श्रृंखला हॉकी की तऱफदारी करते हुए कहा कि यह भारतीय हॉकी खिलाड़ियों के हक़ और हित में है और इसीलिए मैं इसमें शामिल हूं.

अब इन हालात में कैसे कोई उम्मीद कर सकता है कि पहले से क़ब्र में पैर लटकाए हुए इस राष्ट्रीय खेल का भला कैसे होगा. एक बात तो बिल्कुल समझ में नहीं आती है कि किसी भी देश के लिए राष्ट्रीय खेल को परिभाषित करने के लिए क्या मापदंड होते हैं. इस बात को भी दरकिनार कर दिया जाए तो यह सवाल उठता है कि क्या राष्ट्रीय खेल की इस बदहाली का ज़िम्मेदार खेल मंत्रालय और प्रशासन नहीं है. अगर इस खेल की बदहाली यूं ही जारी रही तो बहुत दुख के साथ कहना प़ड सकता कि हॉकी स़िर्फ नाम का ही राष्ट्रीय खेल रह जाएगा.

Monday, August 1, 2011

क्रिकेट, विज्ञापन और फजीहत



जब खिलाड़ियों पर सफलता और पैसे का नशा चढ़ता है तो फिर सारी नैतिकता दांव पर लग जाती है. उस दौरान यह भी ध्यान नहीं रहता है कि क्या सही और क्या ग़लत. दिखाई देता है तो स़िर्फ पैसा. उसके लिए भले ही किसी को अपमानित करना पड़े या फिर किसी को गाली ही क्यों न देनी पड़े. हाल में दो शराब कंपनियों के विज्ञापन के बाद भारतीय टीम के दो खिलाड़ियों में उपजा विवाद कुछ यही कहानी बयान करता है. अभी तक टीम इंडिया के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी और साथी खिलाड़ी हरभजन सिंह क़रीबी दोस्त के तौर जाने जाते थे लेकिन एक विज्ञापन ने इन दोनों के बीच खाई पैदा कर दी थी, जिसकी वजह से ये एक-दूसरे के खिला़फ क़ानूनी जंग पर उतर आए थे.

अब यह क़ानूनी विवाद भले ही खत्म हो गया हो, लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि खिलाड़ियों के बीच सामंजस्य का अभाव है. अगर इनमें ज़रा भी आपसी सद्भाव होता तो दोनों इस मामले को लेकर एकजुट होते और अगर ज़रूरी होता तो अनजाने में अथवा जानबूझ कर हुई इस ग़लती को सुधारने की कोशिश करते, लेकिन ये कंपनी के कर्मचारियों जैसा व्यवहार कर रहे हैं. इन्हें इस बात का ज़रा भी एहसास नहीं है कि खेल और खिलाड़ी ही इनका साथ हमेशा देंगे, न कि ये शराब बनाने वाली कंपनियां.

दरअसल, एक शराब कंपनी का विज्ञापन पिछले कुछ दिनों से टीवी पर प्रसारित हो रहा था. इसमें धोनी के अवतरित होने से पहले एक सिख युवक ब़डे-ब़डे गोले बना रहा होता है कि उसी बीच उसके पिता उसे थप्पड़ रसीद कर गाली देते हुए कहते हैं (कुछ गालियां बीप भी की जाती हैं) कि इतने ब़डे-ब़डे गोले क्यों बना रहा है तो जवाब में वह सिख युवक कहता है कि आई एम मेकिंग लार्ज…बस यहीं से धोनी कहते हैं कि ब़डा करने से कुछ नहीं होगा, कुछ अलग करो. इस बात से अब सभी वाक़ि़फ हो चुके हैं कि यह विज्ञापन हरभजन के ही विज्ञापन का स्पूफ था और थप्प़ड खाने वाला वह युवक हरभजन से मिलता-जुलता चरित्र. इस स्पूफ में मैक्डॉवेल के विज्ञापन में धोनी प्रतिद्वंद्वी कंपनी परनॉड रिकॉर्ड के ब्रांड रॉयल स्टैग के विज्ञापन में हरभजन की भूमिका का मजाक उड़ाते दिख रहे थे. बस जैसे ही यह विज्ञापन हरभजन और उनके परिवार ने देखा, उन्हें इस पर आपत्ति हो गई. हरभजन और उनके वकील देवानी एसोसिएट्स एंड कंसल्टेंट्स ने विजय माल्या की यूबी स्पिरिट्स को मैक्डॉवेल नंबर वन प्लेटिनम व्हिस्की के उस विज्ञापन के लिए नोटिस भेज दिया. इसमें कहा गया है कि मैक्डॉवेल नंबर वन का धोनी वाला विज्ञापन हरभजन, उनके परिवार और सिख समुदाय का मजाक है.

नोटिस की एक कॉपी ईटी के पास मौजूद है. इसमें सभी बड़े समाचारपत्रों और टीवी चैनलों में भज्जी के परिवार से बिना शर्त सार्वजनिक माफी मांगने के अलावा नोटिस मिलने के तीन दिन के अंदर विज्ञापन हटाने की मांग की गई थी. नोटिस में कहा गया कि यूबी अपनी प्रसारण/विज्ञापन एजेंसी को उक्त विज्ञापन का प्रसारण तुरंत रोकने का निर्देश दे. वकील श्याम देवानी के हस्ताक्षर वाले नोटिस में कहा गया था कि मेरे क्लाइंट ने आपको ग़लती मानने और संशोधन करने का मौक़ा देने के लिए नोटिस भेजा है. इसमें असफल रहने पर हमारे पास क़ानूनी कार्रवाई करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा. नोटिस खर्च के हर्जाने के तौर पर हरभजन के परिवार को एक लाख रुपये देने की भी मांग की गई है. नोटिस भज्जी की मां अवतार कौर ने भेजा था. इसमें कहा गया है कि भज्जी वाली विज्ञापन फिल्म सा़फ है, अच्छी है और इससे किसी की भावनाओं को ठेस नहीं लगती. जबकि दूसरा विज्ञापन उनके परिवार की प्रतिष्ठा और साख को नुकसान पहुंचाने वाला है.

हरभजन की ओर से भिजवाए गए क़ानूनी नोटिस के जवाब में विजय माल्या ने सा़फ कर दिया था कि वह किसी भी सूरत में विज्ञापन वापस नहीं लेंगे. माल्या ने हरभजन सिंह से किसी भी क़ीमत पर मा़फी मांगने से इंकार कर दिया था. माल्या ने कहा कि वह भज्जी के लीगल नोटिस का जवाब अब क़ानून से ही देंगे. उनका इरादा भज्जी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं था और उन्होंने अपने विज्ञापन में उनका कोई मज़ाक नहीं उड़ाया है. इसलिए वह अपना विज्ञापन वापस नहीं लेंगे. माल्या ने तर्क दिया था कि बहुत सारे न्यूज चैनलों में नेताओं-अभिनेताओं का मज़ाक उड़ाया जाता है तो क्या उन सभी को नोटिस भेज दिया जाता है. जब वहां वैसा नहीं होता तो विज्ञापन जगत में ऐसा कैसे हो सकता है. मेरे वकील भज्जी के नोटिस को पढ़ रहे हैं, जो उचित होगा, वह किया जाएगा. जबकि माल्या की प्रतिद्वंद्वी कंपनी के मुताबिक़ उसने हरभजन सिंह को क़ानूनी कार्रवाई की सलाह नहीं दी थी, लेकिन अब अगर भज्जी ने यह क़दम उठा लिया है तो वह उनका हर तरीक़े से सपोर्ट करेगी. लेकिन इसी बीच शायद विजय माल्या को इस बात का इल्म हो गया कि इस विज्ञापन से न स़िर्फ हरभजन के प्रशंसकों में उनकी साख गिरेगी बल्कि उनकी आईपीएल टीम का बिज़नेस भी प्रभावित हो सकता है. इसलिए उन्होंने इस विज्ञापन को वापस लेने का फैसला ले लिया. लेकिन माल्या के सुर बदलने के पीछे का सही कारण यह तो कतई नहीं है कि उन्हें अपनी इस करनी पर कोई अ़फसोस है. वह प्रोफेसनल बिज़नेसमैन हैं और उनको पब्लिसिटी बटोरना बहुत अच्छी तरह से आता है. अब इस विज्ञापन का प्रसारण भले ही बंद हो गया हो लेकिन इस बात से तो कोई इंकार नहीं कर सकता है कि जितने दिन भी यह विज्ञापन प्रसारित हुआ है, उससे हरभजन की छवि को जो नुक़सान होना था, वो हो चुका है. और साथ ही माल्या को एक विज्ञापन के माध्यम से जो चर्चा मिलनी थी, वो भी मिल गई, अब ऐसे में अब विज्ञापन के प्रसारण को रोकने का कोई विशेष औचित्य नहीं है.


इस बात से धोनी भी इंकार नहीं कर सकते कि उन्हें पता नहीं था कि इस विज्ञापन में हरभजन का मज़ाक उड़ाया जा रहा है. ज़ाहिर है, ऐसे में अगर धोनी में ज़रा भी नैतिकता होती तो टीम के प्रति सद्भावना दिखाते हुए वह इस तरह के विज्ञापन में काम करने से मना कर सकते थे. ऐसा तो है नहीं कि धोनी अगर इसमें काम करने से इंकार कर देते तो उनसे यह विज्ञापन ही छीन लिया जाता.

धोनी अगर वह हरभजन की भावनाओं का ख्याल करते हुए स्क्रिप्ट में बदलाव की मांग करते तो आज यह विवाद पैदा ही नहीं होता, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. इससे कई बातें स्पष्ट होती हैं. पहली बात तो यह कि धोनी को अपने साथी खिलाड़ियों की इज़्ज़त करनी नहीं आती है और दूसरी बात यह कि वह खेल से ज़्यादा पैसे और ग्लैमर को तवज्जो देते हैं. इस मसले में उन्हें सचिन तेंदुलकर से सीख लेनी चाहिए. ग़ौरतलब है कि धोनी इससे पहले भी शराब कंपनी को प्रमोट करने के चक्कर में कई शहरों में विरोध का सामना कर चुके हैं. यह तो खैर मनाइए कि टीम इंडिया आजकल सफलता के चरम पर है, ऐसे में इन खिलाड़ियों को मनमानी करने का मौक़ा मिल जाता है, वरना अब तक बोर्ड इनके खिला़फ अनुशासनसत्मक कार्यवाही कर चुका होता. ताज्जुब की बात यह है कि अभी तक धोनी ने औपचारिक तौर पर ही सही, इस मसले पर कोई टिप्पणी नहीं की है. इससे इतना तो सा़फ है कि कहीं न कहीं धोनी को एहसास हो गया है कि हरभजन सिंह के साथ ग़लत हुआ है.

अब यह क़ानूनी विवाद भले ही खत्म हो गया हो, लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि खिलाड़ियों के बीच सामंजस्य का अभाव है. अगर इनमें ज़रा भी आपसी सद्भाव होता तो दोनों इस मामले को लेकर एकजुट होते और अगर ज़रूरी होता तो अनजाने में अथवा जानबूझ कर हुई इस ग़लती को सुधारने की कोशिश करते, लेकिन ये कंपनी के कर्मचारियों जैसा व्यवहार कर रहे हैं. इन्हें इस बात का ज़रा भी एहसास नहीं है कि खेल और खिलाड़ी ही इनका साथ हमेशा देंगे, न कि ये शराब बनाने वाली कंपनियां. जिस दिन इनके सितारे बुलंदी पर नहीं होंगे तो सबसे पहले साथ छो़डने वालों में इन कंपनियों का ही नाम आएगा. राहुल द्रव़िड और गांगुली इस बात के जीते-जागते उदाहरण हैं. अगर इन खिलाड़ियों में ज़रा सी भी नैतिकता है तो इन्हें यह समझने में देर नहीं करनी चाहिए कि पैसा और ग्लैमर खेल और साथी खिलाड़ियों से बढ़कर नहीं है.

ब्रांड वॉर कोई नई बात नहीं

इससे पहले भी कई एड वॉर के चक्कर में सेलिब्रिटी और खिलाड़ी आपस में उलझ चुके हैं. कुछ दिनों पहले आमिर की फिल्म डेल्ही बैली में एक कार का कथित रूप से मज़ाक उड़ाए जाने पर विवाद खड़ा हो गया था. आरोप था कि फिल्म में जानबूझ कर उस कार का इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि एक अन्य हीरो (शाहरु़ख खान) इस कंपनी की कार का प्रचार करते हैं. कंपनी अपनी कार को कथित तौर पर अनादरपूर्ण तरीक़े से दिखाए जाने के लिए डेल्ही बेली के निर्देशक एवं प्रोडक्शन हाउस के खिला़फ क़ानूनी कार्यवाही करने की सोच रही थी. इसके अलावा माइक्रोसॉफ्ट ने एक विज्ञापन अभियान भी शुरू किया, जिसमें एप्पल के आईफोन और गूगल के एंड्‌रॉयड सिस्टम की खिल्ली उड़ाई गई है. यूट्यूब पर डाले गए इस विज्ञापन में प्रतियोगियों का मज़ाक उड़ाते हुए दिखाया गया है कि कुछ फोन की डिजाइन खराब होने के कारण उपभोक्ताओं में खराब आचार-व्यवहार को बढ़ावा मिल रहा है. माइक्रोसॉफ्ट ने इस अभियान में लोकप्रिय टीवी कलाकार रॉब डायर्डेक और अभिनेत्री मिंका केली को शामिल किया है. ऐसा ही वाकया डिटर्जेंट कंपनियों के मामले में दिखाई दिया. जब हिंदुस्तान यूनीलीवर लिमिटेड (एचयूएल) के प्रोडक्ट रिन डिटर्जेंट और प्रॉक्टर एंड गैंबल (पी एंड जी) कंपनी के प्रोडक्ट टाइड डिटर्जेंट के विज्ञापन ने ब्रांड वॉर छेड़ दिया था. उस दौरान भी पी एंड जी ने एचयूएल के खिला़फ याचिका दायर कर दी थी. इस मामले में समीक्षा मार्केटिंग कंसल्टेंट्स के चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर जगदीप कपूर कहते हैं, मुझे लगता है कि इस तरह आपा नहीं खोना चाहिए. यह व़क्त ही ब्रांड वॉर का है, फिर इस तरह आगबबूला होने का कोई मतलब नहीं. यदि किसी ब्रांड पर ऐसे हमले हो रहे हैं तो उसे शांतिपूर्वक लेना चाहिए. इसे स्वस्थ प्रतियोगिता के नज़रिए से देखा जाए तो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है.