हॉकी के खिलाड़ियों को हर विदेशी दौरे के प्रति मैच के लिए महज़ 50 डॉलर यानी दो हज़ार रुपये और भारत में प्रति मैच 1800 रुपये मिलते हैं. वहीं हमारे होनहार क्रिकेटरों को एक टेस्ट मैच के लिए 7 लाख रुपये, एक वन डे के लिए 4 लाख रुपये और एक टी-20 मैच के लिए 2 लाख रुपये बतौर फीस मिलते हैं. यानी क्रिकेट और हॉकी के खिलाड़ियों की फीस में ज़मीन-आसमान का अंतर है. इसके अलावा अगर मौजूदा प्रदर्शन पर चर्चा की जाए तो हॉकी खिलाड़ी एशियन चैंपियनशिप ट्रॉफी जीतकर आए हैं.
इसके बावजूद खिलाड़ियों द्वारा फीस लेने से इंकार करने के बाद खेल मंत्रालय ने ईनाम की राशि बढ़ाई, जबकि इंग्लैंड में शर्मनाक प्रदर्शन करने वाली क्रिकेट टीम को वहां खेले गए 4 टेस्ट, एक टी-20 और पांच वन डे मैच खेलने के लिए सालाना कांट्रैक्ट से मिलने वाली भारी-भरकम धनराशि के अलावा हर खिलाड़ी को 50 लाख रुपये मैच की फीस के तौर पर दिए गए. यह तुलना इसलिए की गई, क्योंकि अगर क्रिकेट खिलाड़ी अपनी इस भारी-भरकम फीस के बावजूद अपनी फीस बढ़ाने की मांग कर सकते हैं तो पिछले दिनों एशियन चैंपियनशिप ट्रॉफी जीतकर आई हॉकी टीम के खिलाड़ियों ने अपनी फीस न लेने का फैसला करके क्या ग़लत किया? ख़ैर, असली मामला यह है कि जब हॉकी के खिलाड़ियों ने फीस लेने से इंकार कर दिया और बाक़ी लोगों, जिनमें राज्य सरकारों से लेकर अन्य उद्योगपति भी शामिल हैं, ने टीम हॉकी को पुरस्कार देने की भरमार कर दी, तब केंद्रीय खेल मंत्री अजय माकन ने अचानक एक प्रेस कांफ्रेंस की और एशियन हॉकी चैंपियनशिप जीतने वाली भारतीय टीम के हर खिलाड़ी को बतौर ईनाम 1.5 लाख रुपये देने की घोषणा कर दी. ग़ौरतलब है कि एशियन हॉकी चैंपियनशिप जीतने वाली भारतीय टीम ने प्रत्येक खिलाड़ी को 25-25 हज़ार रुपये का ईनाम लेने से इंकार कर दिया था. उन्होंने इस फैसले पर नाराज़गी भी जताई थी. बाद में हर तऱफ से आलोचना होते देख अजय माकन ने यह कांफ्रेंस की. माकन के मुताबिक़, सरकार खिलाड़ियों को नकद पुरस्कार देने में कभी पीछे नहीं रहेगी और इसमें संसाधनों की कमी आड़े नहीं आने दी जाएगी. अब अगर ऐसा ही था तो फिर खिलाड़ियों को पहले 25 हज़ार रुपये देने की बात क्यों की गई? इसका जवाब भी माकन को देना चाहिए, क्योंकि 25 हज़ार और ड़ेढ लाख में छह गुने का अंतर होता है. इस बदलाव से दो बातें निकल कर सामने आती हैं.
पहली बात तो यह कि अगर खेल मंत्रालय के पास पहले से ही इतना पैसा था तो वह 25 हज़ार रुपये की मामूली रकम देकर शेष पैसों का क्या करना चाहता था? दूसरी बात यह कि अगर खिलाड़ियों ने पहले मिलने वाली राशि लेने से इंकार न किया होता तो क्या उनके हिस्से में डेढ़ लाख के बजाय स़िर्फ 25 हज़ार रुपये ही आते यानी एक लाख पच्चीस हज़ार रुपये हर खिलाड़ी के खाते से बचते. अब सवाल यह उठता है कि इतना सारा पैसा किसकी जेब में जाता? खेल मंत्रालय की बातों में एक बहुत बड़ा विरोधाभास नज़र आता है. कभी वह कहता है कि उसके पास टीम के खिलाड़ियों को देने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है और इसके पीछे वजह भी वह लाजवाब बताता है. उसके मुताबिक़, हॉकी क्रिकेट की तरह न तो पापुलर है और न हॉकी के मैचों के लिए बड़ी संख्या में स्पांसर मिलते हैं. अब आपको बताते हैं कि इस बात में कितनी सच्चाई है. 15 दिसंबर से 22 जनवरी के बीच भारतीय हॉकी महासंघ और निम्बस के संयुक्त तत्वावधान मेंविश्व सीरीज हॉकी खेली जाएगी. इसमें 140 भारतीयों समेत दुनिया भर के 200 खिलाड़ी भाग लेंगे. इस सीरीज के प्रमोटर निम्बस स्पोट्र्स का कहना है कि इसके पहले ही सत्र में खिलाड़ी 40 लाख रुपये से अधिक कमाई कर सकते हैं. यानिक कोलासो, जो निम्बस के मुख्य संचालन अधिकारी हैं, के मुताबिक़ हाल में मिली जीत के बाद इस सीरीज की अहमियत और बढ़ गई है. अब खिलाड़ियों को वित्तीय सुरक्षा मिलेगी और देश में हॉकी का स्तर मज़बूत होगा. ग़ौरतलब है कि इस सीरीज के साथ भारतीय हॉकी टीम के कप्तान राजपाल सिंह के अलावा अर्जुन हलप्पा, प्रभजोत सिंह, एड्रियन डिसूजा, भरत छेत्री, शिवेंद्र सिंह, रोशन मिंज और धनंजय महाडिक ने अनुबंध किया है.
इसके अलावा दो साल का प्रतिबंध झेल रहे संदीप सिंह और सरदारा सिंह भी इससे जुड़े हैं. यह जानकर ताज्जुब होगा कि इस सीरीज में ईनामी राशि साढ़े चार करोड़ रुपये है. अच्छी बात यह है कि इसमें भारतीय और विदेशी खिलाड़ियों को बराबर कमाने का मौक़ा मिलेगा. एक अच्छी बात जो स्पांसर न मिलने की बात को सिरे से नकारती है, वह यह कि हॉकी विश्वकप में भारत और पाकिस्तान के बीच मैच की औसत टीवी रेटिंग भारतीय क्रिकेट टीम के टेस्ट मैचों की रेटिंग के बराबर या उससे अधिक रही. अब अगर टेलीविज़न रेटिंग के स्तर पर भी हॉकी मैच इतने देखे गए तो फिर स्पांसर न मिलने का सवाल ही नहीं पैदा होता है. असल में अगर खेल मंत्रालय हॉकी की सही मार्केटिंग करे और खिलाड़ियों को उनका वाजिब मेहनताना दे तो विश्व सीरीज हॉकी भी आईपीएल की तरह मुना़फे वाली संस्था हो सकती है. आपको बता दें कि भारत में अगर क्रिकेट के बाद सबसे ज़्यादा दर्शक हैं तो वे हमारे राष्ट्रीय खेल हॉकी के हैं. किसी भी खेल में अच्छे प्रदर्शन के लिए पुरस्कार ज़रूरी है. यह बात क्रिकेट पर भी पूरी तरह लागू होती है. लेकिन दु:ख से ज़्यादा इस बात पर गुस्सा आता है कि हमारे देश में खिलाड़ियों को विश्व हॉकी जैसी प्रतिस्पर्धा जीतने के बाद भी उचित फीस के लिए तरसना पड़ता है. अब यह जीत का गम नहीं तो और क्या है? एक सवाल वर्षों के बाद भी जस का तस है कि इस राष्ट्रीय खेल की दुर्दशा के लिए आख़िर कौन ज़िम्मेदार है, इसके कर्ताधर्ता और सरकार या फिर कोई और?