Thursday, July 4, 2013

गो गोवा गो



खुला नीला आसमान, रेत और पानी के चमकीले नजारों का खूबसूरत मंजर अभी भी  हमारी यादों में ताजा है. गोआ आकर लगा मानो यहां के बीच, जंगल और हर फिजा हमारा बांहें फैलाकर स्वागत करने को आतुर है. हमारे हनीमून को स्पेशल बनाने के लिए षायद गोआ से बेहतर कोई और जगह हो ही नहीं सकती थी, कहते हैं हनीमून के लिए गोवा पहुंचे दिल्ली के अरुण और उनकी नवविवाहित संगिनी करिश्मा मनचंदा. इस जोड़े की हनीमून ट्रिप को यादगार बनाता गोआ प्रकृति का ऐसा खूबसूरत उपहार है जहां जाने की चाहत हर घुमक्कड़ के दिल में बसती है. पिछले साल गोआ गए इस जोड़े के अनुभव इतने उत्साही और रोचक हैं कि गोआ जाने की उत्सुकता और बढ़ जाती है. जाहिर है ऐसा अनुभव गोआ जाने वाले हर पर्यटक की जुबानी सुना जा सकता है.
भारत का सबसे आधुनिक पर्यटन स्थल गोआ विदेशी और भारतीय संस्कृति का बेजोड़ मिलन है. यही वजह है कि पिछले साल यानी 2012 में गोवा में तकरीबन 28-30 लाख पर्यटक आए. इनमें लगभग 4 लाख पर्यटक तो सिर्फ विदेश से ही आए थे. कहते हैं गोआ शब्द की उत्पत्ति कोंकणी शब्द गोयन से हुई है. इस के माने है लंबी घास का टुकडा. गोआ की पर्यटकों में बढ़ती लोकप्रियता का ही सबब है कि यहां की आबादी से ज्यादा तो पर्यटकों का जमावड़ा दिखता है.
गोआ भारत के पष्चिम में स्थित एक छोटा सा राज्य है. 30 मई 1987 को गोआ का पृथक राज्य के तौर पर गठन किया गया था. इससे पहले समय समय पर यहां मौर्य, चालुक्य, मुसलिम षासकों और आखिर में पुर्तगालियों की सत्ता रही. 1961 में गोआ पुर्तगाली षासन से अलग होकर आजाद भारत का हिस्सा बना. पणजी जिसे पंजिम भी कहा जा है, यहां की राजधानी है. पणजी समेत वास्को, मडगांव, ओल्ड गोआ, मापुसा और कांदा यहां के प्रमुख शहर है. मांडवी और जुवारी गोवा की दो प्रमुख नदिया हैं. यहां कई खूबसूरत बीच और जल प्रपात भी हैं. देखा जाए तो छोटेबड़े लगभग 40 समुद्री तटों का षानदार गुलदस्ता है गोआ.
गोआ का नायाब सौंदर्य केवल बीच तक ही सिमटा नहीं है बल्कि यहां के पुराने और ऐतिहासिक चर्च भी खास आकर्शण हैं. ये सैलानियों को पुर्तगाली दौर में ले जाते हैं. इन्हीं पुराने स्मारकों के चलते गोआ को भारत का रोम भी कहा जाता है. इनके अलावा आधुनिक बाजार, रिवर क्रूज, हैंग ग्लाइडिंग, व्हाइटवाटर राफ्टिंग और हौट एयर बलूनिंग जैसी एडवेंचर गतिविधियां हर पर्यटक को यहां बारबार आने पर मजबूर कर देती हैं.

गोआ के खूबसूरत बीच 
गोवा की सबसे खास बात यही है कि यहां आकर भारतीयों को ऐसा महसूस होता मानों वे विदेश यात्रा पर निकले हों. कारण, यहां के समुद्र तट अंतर्राष्ट्रीय स्तर के हैं. षायद यही वजह है कि इस राज्य की विश्व पर्यटन मानचित्र के पटल पर अलग पहचान है. यह जगह शांतिप्रिय और प्रकृतिस्नेही पर्यटकों को खासी लुभाती है. सुहावने मौसम और यहां स्थित समुद्री तटों के कायल पर्यटकों की भीड़ सबसे अधिक गर्मियों के महीनें में ही रहती है. रंगीन मिजाज संगीत की धुनी में डूबी यहां की शामें जितनी हसीन होती है दिन उतने ही खुशगवार होते है.
कलंगूट बीच  
गोआ का यह खूबसूरत बीच पणजी से 16 किलोमीटर दूर है. इसकी बेपनाह खूबसूरती के चलते इसे दुनिया भर के प्रमुख समुद्री तटों में षुमार किया जाता है. यही वजह है इसे क्वीन औफ सी बैंक यानी सागर तट की रानी के नाम से भी पुकारा जाता है. एक दौर था जब 60 के दशक के आसपास यह जगह हिप्पियों का ठिकाना बन चुका थी. लेकिन समय बदला और 90 के दशक में सरकार ने इसे टूरिस्ट स्पौट के तौर पर विकसित कर दिया. अब यहां पर्यटकों की भारी भीड़ रहती है. यह बीच पूरी तरह हौलीडे रिसोर्ट में तब्दील हो चुका है. कलंगूट बीच में रहने, खानेपीने और मनोरंजन के साधनों की कोई कमी नहीं है.
मीरामार बीच 
पणजी से महज 3 किलोमीटर की दूर यह बीच मुलायम रेत और ताड़ के पेढ़ों से सजा है. राजधानी के सबसे करीब बीच यही है. इसका सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि पणजी के होटलों में ठहरे पर्यटक पैदल भी इस बीच के नजारों का लुत्फ उठाने आ जाते हैं. लिहाजा सीजन कोई भी हो, यह जगह सैलानियों से भरी रहती है.
डोना पाउला बीच    
मीरामार बीच की तरह यह बीच भी पणजी के काफी नजदीक है. सिर्फ 7 किलोमीटर की दूरी पर स्थित डोना पाउला बीच, नाम से साफ हो जाता है कि इसे किसी पुर्तगाली के नाम से जाना जाता है. बरहाल यह गोआ का सबसे खूबसूरत बीच है. मजेदार बात यह है कि इस बीच में न तो कोई रेतीला तट है और न ही स्वीमिंग के ठिकाने. लेकिन हां, स्टीमर या बोट के जरिए यहां के दिलचस्प नजारों का आंनद लिया जा सकता है. भारतीय सैलानियों का यह पसंदीदा बीच कहा जा सकता है.
अरमबोल बीच
इसे यहां का सबसे षांत, सुंदर और लंबा बीच माना जाता है. दिनबदिन इस बीच को प्राकृतिक खूबसूरती से भरता हुआ देखा जा सकता है. यहां अकसर विदेषी पर्यटकों का जमावड़ा देखा जा सकता है. आमतौर जो लंबा अवकाश लेकर यहां मजे करने आते हैं उनको यह जगह कुछ ज्यादा ही मुफीद लगती है. इस बीच की खासियत यह है कि कई जगहों पर रेत के लंबे किनारों पर लहरों के आगे जाकर तैरना काफी सुरक्षित और आसान होता है, इसलिए समुद्री लहरों पर ऐडवैंचर का मजा उठाने वाले सैलानियों को यहां दोगुना आनंद मिलता है. बीच से पहले ही अरमबोल गांव मिल जाता है. जिन सैलानियों को अपने बजट का खास ख्याल होता है वे इसी गांव में रहने के सस्ते ठिकाने खोज लेते हैं. राजधानी से 80 किलोमीटर दूर इस बीच के लिए मापुसा होकर बसें मिल जाती हैं.
इन के अलावा गोआ में और भी कई बीच हैं जिनमें बागाटारे, अगोंडा, पोलेलेम, सिनक्यू रिम बीच आदि प्रमुख हैं. गोआ में अनेक सुंदर और विशाल जल प्रपात हैं, जो पर्यटकों को अपनी ओर खींचते रहते हैं.

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वाइल्ड लाइफ के ठिकाने
गोआ में कई दुर्लभ जानवरों और रंगबिरंगे पक्षियों का देखना मनोरम अनुभव होता है. इसके अलावा समुद्री तटों पर कई तरह की मछलियां भी खासी लुभाती हैं. गोवा में कई नैशनल पार्क  हैं जो वन्य जीव प्रेमियों के लिए पर्यटन का उपहार हैं. महावीर वन जीवन अभ्यारण्य, कीटोगाओं वन्य जीव संरक्षण, सलीम अली पक्षी अभ्यारण्य, नेतरावली वन्यजीव संरक्षण, बोंडला सेंचुरी आदि प्रमुख अभ्यारण्य हैं. मोरिजिम बीच में विदेश से पलायन कर आने वाले पक्षियों को देखने का अनुभव रोमांचकारी होता है. इस क्षेत्र में कई इंटरनेशनल बर्डर्स वाचिंग टूर आर्गेनाइज किए जाते हैं. यहां चीता, जंगली बिल्ली, हिरण, सियार, सांभर चीतल, गिलहरी, काले मुंह वाले लंगूर, सांप, मगरमच्छ आदि दुर्लभ प्रजातियां सैलानियों को वाइल्ड लाइफ केे रोमांचक तेवर से वाकिफ कराती हैं.

व्यंजन, फैशन और कार्निवाल
गोआ में सैलानी घूमने के अलावा यहां के सीफूड यानी समुुद्री व्यंजनों के भी खासे दीवाने हैं. सामान्य तौर पर यहां मांसाहारी और षाकाहारी दोनों तरह का खाना मिलता है पर तटीय इलाके के फिश, प्रौन, लौबस्टर जैसे सीफूड दुनिया भर के पर्यटकों के मुंह में पानी ले आते हैं. इसके अलावा ड्रिंक के तौर पर तो यहां की बियर्स की इतनी वैरायटी हैं कि गिनाना मुष्किल है. गोआ के नारियल पानी की बात ही निराली है. कुल मिलाकर गोवा के नजारे जितने खूबसूरत हैं उतने ही लजीज यहां के व्यजंन भी हैं.
गोआ के व्यंजनों के लजीजपन के अलावा फैशन के भी अनूठे मिजाज मौजूद हैं. यों तो यहां की ट्रैडिशनल परिधानों में औरतें मुख्यतः साड़ी, पुरुश शर्ट और हाफ पेंट के साथ हैट का उपयोग करते हैं पर अब मगर बदलते दौर के साथ पहनावा भी बदला है. आज गोआ वेस्टर्न ट्रेंड को अपना रहा है. इसके असर के तौर पर यहाँ टैटूज बनवाने का चलन देखा जा सकता है. तरह तरह के टैटू यहां के सैलानियों के शरीर पर आसानी से देखे जा सकते हैं.
गोआ का एक और आकर्शण है जिसका इंतजार यहां आए हर सैलानी को होता है. यह आकर्शण है मस्ती भरी गोवा कार्निवाल परेड. इस परेड में गोआ की रंगीन संस्कृति के विविध पहलुओं से रूबरू होने का मौका मिलता है. 3 से 4 दिनों तक चलने वाले इस कार्निवाल के दौरान यह फर्क करना आसान नहीं होता है कि दिन है या रात. इस दौरान पूरा गोआ रंगबिरंगा और रोशनी से जगमग दिखता है. फ्लोट्स परेड, गिटार की धुनों, डांस की थिरकन और नौन स्टाप मस्ती से भरे इस कार्निवाल में षामिल होना एक रोमांचक और यादगार अनुभव होता है. कार्निवाल वैसे तो विदेशी कल्चर की देन है. गोआ में यह पुर्तगालियों के जरिये आया और समय के साथ यहां की स्थानीय संस्कृति में रचबस गया. लोक कलाओं व लोक संगीत का समां बांधे इस परेड को हर साल आयोजित किया जाता है. क्रिसमस के अवसर पर निकलने वाले कार्निवाल की भव्यता का नजारा देखते ही बनता है. हर बार एक अलग थीम पर आधारित यह कार्निवाल गोआ का एक प्रमुख आकर्षण है जो इस जगह की शानदार झलक पेश करता है.

कब और कैसे जाएं
गोवा जाने के सड़क, रेल और हवाई मार्ग सेवाएं उपलब्ध है. गोवा राष्ट्रीय और प्रांतीय राजमार्गों के अलावा कोंकण रेलवे के माध्यम से मुंबई, मंगलौर और तिरुवनंतपुरम से भी जुड़ा है. वहीं डबोलिम हवाई अड्डे से मुंबई, दिल्ली, तिरुवनंतपुरम कोच्चि, चेन्नई, अगाती और बेंगलुरु के लिए रेगुलर विमान सेवाएं हैं.घूमने के लिहाज से सितंबर से मई बेहतर है. पर दिसंबर में क्रिसमस के दौरान आना भी बेहतर विकल्प है. अधिक जानकारी के लिए गोआ के पर्यटन विभाग के फोन नंबर 0832 - 2438755 पर संपर्क कर सकते हैं या http://www.goatourism.gov.in   पर भी जानकारी ले सकते हैं.


                                                   

ये खेल नहीं आसान

                                                  अंडर वॉटर हॉकी



भारत में स्पोट्‌र्स का जिक्र अमूमन क्रिकेट पर ही आकर ख़त्म हो जाता है. नाम के लिए भले ही हॉकी राष्ट्रीय खेल है, लेकिन सबसे ज़्यादा शर्मिंदगी देश को इसी खेल में उठानी प़डती है. रही बात फुटबॉल, बॉक्सिंग, कबड्डी, टेनिस और शतरंज जैसे खेलों की, तो इनकी बात स़िर्फ ओलंपिक और कॉमनवेल्थ जैसे आयोजनों तक सीमित रहती है. बाक़ी पूरा देश तो स़िर्फ क्रिकेट से ही टाइम पास करता है. जब भारत में पहली बार फॉर्मूला रेस हुई तो ज़्यादातर लोगों को इस खेल की तकनीकी जानकारी नहीं थी, सिवाय इसके कि इसका टिकट महंगा है और इसमें कारें दौड़ती हैं. जब तक लोग इसे समझते, तब तक यह ख़त्म हो चुका था. स्पोट्‌र्स ऑफ द वीक नामक इस कॉलम में हम हर हफ्ते दुनिया के कुछ प्रेरणादायक, अनोखे, रोचक और अजीबोग़रीब खेलों से रूबरू कराएंगे, जो भारतीय खेलप्रेमियों की नज़रों से अभी भी अछूते हैं. इस हफ्ते का स्पोट्‌र्स ऑफ द वीक है अंडर वॉटर हॉकी यानी पानी के अंदर हॉकी. अंडर वॉटर हॉकी को ऑक्टोपुश भी कहा जाता है. पानी के अंदर खेला जाने वाला यह खेल दुनिया भर में लोकप्रिय और दिलचस्प है. इस खेल की शुरुआत इंग्लैंड में 1954 में हुई थी. स्वीमिंग पूल के भीतर खेला जाने वाला यह खेल सामान्य हॉकी से न केवल कई मायनों में दिलचस्प है, बल्कि इसकी रूपरेखा और नियम-क़ानून भी काफी अलग हैं. इसके ऑक्टोपुश नाम के संबोधन के पीछे की कहानी कुछ यूं है. यह ऑक्टोपुश शब्द दो शब्दों ऑक्टो यानी आठ और पुश यानी धक्का देना से मिलकर बना है. चूंकि पहले इस खेल में एक टीम में आठ खिलाड़ी भाग लेते थे और इसकी बॉल यानी पक को धक्का दिया जाता है. इसीलिए ऑक्टो और पुश को मिलाकर इसे ऑक्टोपुश या ऑक्टोपश नाम दिया गया. हालांकि अब इसमें दस-दस खिलाड़ियों की दो टीमें भाग लेती हैं. मैच में प्रत्येक टीम के छह खिलाड़ी हिस्सा लेते हैं. बाकी खिलाड़ियों को रिजर्व के तौर पर रखा जाता है. खेल की शुरुआत से पहले पक यानी बॉल को पूल की सतह के बीचोबीच रख दिया जाता है. जैसे ही बजर (एक प्रकार का अलार्म साउंड) बजता है, खिलाड़ी अपनी-अपनी स्टिक के साथ पानी की सतह पर जाकर प्रतिद्वंद्वी टीम पर गोल दागना शुरू कर देते हैं. मजे की बात तो यह है कि इसमें रेफरी को भी पानी के अंदर जाकर खिलाड़ियों पर ध्यान देना पड़ता है. दोनों टीमों की तऱफ की दीवारों को ही गोल प्वाइंट माना जाता है. एक बार पानी के अंदर जाने पर खिलाड़ी या तो तब बाहर आते है, जब सामने वाली टीम पर गोल हो जाए या रेफरी को लगे कि कहीं पर नियमों का उल्लंघन हुआ है. ज़रूरत पड़ने पर वह कई तरह की पेनाल्टियां भी देता है. पानी में जाने से पहले सभी खिलाड़ियों को ड्राइविंग मास्क, स्विमफिन, ग्लोव्स आदि पहनने के लिए दिए जाते हैं. अंडर वॉटर हॉकी के लिए हॉकी स्टिक काफी छोटी होती है. ताजा नियमों के अनुसार, यह  350 मिमी से ज़्यादा लंबी नहीं होनी चाहिए. इसका रंग काला और सफेद होता है. वहीं पक का आकार आइस हॉकी की बॉल के आकार जितना होता है. यह बॉल लेड या इसी प्रकार के अन्य किसी मैटेरियल से तैयार की जाती है, जिस पर प्लास्टिक कवर रहता है. मैच शुरू करते समय इस गेंद को पूल की सतह पर बीच में रखा जाता है. हर दो साल में ऑक्टोपुश की वर्ल्ड चैंपियनशिप का आयोजन होता है. चूंकि यह पानी के भीतर खेला जाने वाला खेल है, इसलिए इसके दर्शकों की संख्या कम ही रहती है. फिर भी इसे दुनिया के मजेदार और दिलचस्प खेलों में गिना जाता है. अगले सप्ताह बात होगी किसी और मजेदार खेल पर.

                                                              टो रेसलिंग




इस बार का स्पोट्‌र्स ऑफ द वीक है टो रेसलिंग. रेसलिंग के बारे में तो सभी जानते हैं, लेकिन यह खेल आम रेसलिंग से काफी अलग है. मसलन जिस तरह रेसलिंग में दो प्रतिद्वंद्वी आमने-सामने आकर अपने पूरे शरीर का दम-खम दिखाते हैं, इस खेल में खिलाड़ियों को वैसा नहीं करना पड़ता. यहां न तो खिलाड़ी एक-दूसरे को रिंग में पटखनी देते हैं और न अखाड़े में धोबी पछाड़. इस खेल को खेलने के लिए न तो किसी बहुत बड़े मैदान का इस्तेमाल होता है और न कोई बहुत भव्य ऑडिटोरियम. इस बार का स्पोर्ट ऑफ द वीक इस अजूबे खेल के बारे में, जिसमें हमें आदमी के पैरों के अंगूठे का दम दिखाई देता है. इस खेल में खिलाड़ी अपने पैर के अंगूठे को प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी के पैर के अंगूठे से दो-दो हाथ यानी दो-दो पैर कराता है. वैसे तो रेसलिंग यानी कुश्ती का खेल काफी पुराना है, लेकिन इस तरह की रेसलिंग कम से कम भारत के लिए तो विचित्र और अनूठी है. हालांकि अभी हमारे यहां भी यानी भारत में बहुत से बच्चे आपस में पंजा लड़ाते हुए, बाजुओं का जोर दिखाते हुए मिल जाते हैं, लेकिन बाकायदा नियमों के मुताबिक़ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर टो रेसलिंग की वर्ल्ड चैंपियनशिप कहीं नहीं होती. टो रेसलिंग असल में यूके में पॉपुलर होना शुरू हुआ. इसके बाद यह खेल धीरे-धीरे कई अन्य देशों में पॉपुलर हो गया. आज कई बड़े देशों में इसका आयोजन होता है. इसकी लोकप्रियता का ही नतीजा था कि इसकी वर्ल्ड चैंपियनशिप आज से कई सालों पहले 1970 में वेट्टन में कराई गई. अगर आप इस बात को जानने के इच्छुक हैं कि टो रेसलिंग पहली बार कब और कहां खेला गया तो इसकी भी जानकारी है. माना जाता है कि वर्ष 1970 से काफी पहले यह खेल स्टैफोर्डशायर, यूके के ओल्डे रोयाल ओक में पहली बार खेला गया. हर वर्ष स्टैफोर्डशायर में ही वर्ल्ड टो रेसलिंग चैंपियनशिप आयोजित होती है. इसमें महिला और पुरुष दोनों भाग ले सकते हैं. हाल के दिनों में ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे देशों को भी इस खेल ने खास तौर पर आकर्षित किया है. मतलब साफ है, न केवल यूके, बल्कि दुनिया भर में टो रेसलिंग की लोकप्रियता ब़ढ रही है. इस खेल के नियम काफी मजेदार होते हैं. इसे खेलने के लिए दोनों खिलाड़ियों को अपने जूते-मोजे उतारने पड़ते हैं. मजे की बात यह है कि इस नियम का पालन खिलाड़ी आदर स्वरूप एक-दूसरे के जूते-मोजे उतार कर करते हैं. फिर इसके बाद वन टू थ्री और कहीं-कहीं आई डिक्लेयर टो वॉर यानी मैं टो वॉर की घोषणा करता हूं, जैसे वाक्यों से यह दिलचस्प खेल शुरू हो जाता है. इस खेल प्रतियोगिता में प्रतियोगी अपने-अपने पांव के अंगूठे को आपस में भ़िडाते हैं और प्रतिद्वंद्वी के अंगूठे को पटखनी देने की कोशिश करते हैं. जो पीनिंग में सफल हो जाता है, वही विनर बनता है. अब आप सोच रहे होंगे कि पीनिंग का क्या मतलब होता है तो हम आपको बता दें कि यह दरअसल उस समय अंतराल का संकेत होता है, जिस दौरान खिलाड़ी अपने प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी के पैर के अंगूठे को दबाकर रखता है. यह समय अंतराल तीन सेकेंड के लिए दूसरे प्रतियोगी के पैर पर पैर रखने का होता है. वैसे देखा जाए तो यह खेल ऑर्म रेसलिंग और थम्ब रेसलिंग से काफी मिलता-जुलता है. यह दिलचस्प खेल आप भी ट्राई कीजिए. अगले हफ्ते बात होगी किसी और खेल पर.

                                                वाइफ कैरिंग (भारयस्यमीथम)



इस बार के स्पोर्टस ऑफ द वीक का नाम है वाइफ कैरिंग. यानी अपनी बीबी को अपने कंधों में उठाना. स़िर्फ उठाना ही नहीं उसे अपने कंधों पर सवार करके एक रेस भी लगानी होती है इस खेल में. यह खेल दुनिया भर के खेलों में काफी दिलचस्प माना जाता है. मूलरूप से फिनलैंड में जन्मे इस खेल की लोकप्रियता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. आज यह स्पोर्ट कई विदेशी मुल्कों से निकलकर भारत में भी पहुंच चुका है. हांगकांग में भी हर साल आयोजित होने वाले वाइफ कैरिंग कांपिटिशन में पतियों का जोश देखकर तो ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि शादी के बाद पति के मन में पत्नी के लिए प्यार कम हो जाता है. यह खेल देखिए, आपको मालूम हो जाएगा कि किस तरह से हसबैंड अपनी कमर की बिना परवाह किए भारी भरकम बीबियों को उठाकर रेस में भाग लेते हैं और विजेताओं को सम्मानित किया जाता है. सीटी बजते ही औरतें अपने अपने पतियों के  कंधे पर सवार हो जाती हैं और क़रीब 250 मीटर की दौड़ शुरू हो जाती है. फिनलैंड के सोनकाजावरी शहर में हर साल यह प्रतियोगिता होती है और दुनिया भर के पति पत्नी 50 यूरो की फीस देकर शामिल होते हैं. वहीं नॉर्थ अमेरिका में यह खेल कोलंबस डे के दिन यानी अक्टूबर के वीकेंड में न्यूरी मताइन में खेला जाता है. इसके अलावा यूएसए और हांग कॉन्ग समेत कई देशों में भी यह ज़बरदस्त पॉपुलर है. इसी पॉपुलरिटी ने इसे गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड में भी दर्ज कर दिया है. अगर आप सोच रहे हैं कि स़िर्फ पत्नी को कंधे में उठाकर भागने से ही आप इस रेस के चैंपियन बन जाएंगे तो एक बार और सोचिए. यह इतना आसान नहीं है. रास्ते में बाधा भी है और पानी भी. तैर कर निकलना है और छलांग भी लगानी है. पत्नी कंधे से गिर गईं तो आउट. और बाद में पति का क्या हश्र होगा, कोई गारंटी नहीं.. इसलिए पहले ही कह दिया जाता है कि प्रतियोगी अपनी सुरक्षा का ज़िम्मा ख़ुद उठाएं और ज़रूरत समझें तो बीमा करा कर आएं. पता नहीं इसमें पत्नी से पिटाई का क्लेम मिलेगा या नहीं. कभी कभी जानलेवा भी.. अगर इस स्पेार्ट के नियमों की बात करें तो वज़न का ख्याल रखना है, पत्नी 49 किलो से कम की नहीं होनी चाहिए. अगर हो तो फिर बाक़ी का वजन किसी तरह पूरा करना होगा. जीत गए तो पत्नी के वज़न के बराबर की बीयर मिलेगी और हार गए तो. ख़ुद ही सोचिए. 14 साल से चली आ रही प्रतियोगिता हर साल लोकप्रिय होती भारत के केरला के तिरुअनंतपुरम तक आ पहुंची है. तिरुअनंतपुरम में यह प्रतियोगिता पिछले साल यानी 2011 को 1 जनवरी के दिन एकॉर्न इंडिया ने आयोजित करवाई थी. यह संस्था पर्यावरण जागरूकता अभियान से जुड़ी है. यह संस्था भारत के विभिन्न इलाक़ों में इस प्रतियोगिता को ऑर्गेनाइस कराने का दावा भी करती है. अगर केरल की बात करें तो यह इस खेल को मलयाली भाषा में भारयस्यमीथम के नाम से जाना जाता है. वहीं एशियन कंट्री में इसे मटुकिनीना भी कहते हैं. अगर इसके इतिहास की बात करे तो फिनलैंड में इस खेल की शुरुआत को लेकर कई किस्से हैं. मसलन हेरको रेसवो नाम के एक चोर को इस खेल का आविष्कारक कह सकते हैं. दरअसल यह चोर 1880 के आसपास अपने गैंग के साथ गांवों में चोरी के साथ वहां की औरतों को चुराकर ले जाते थे. इसके लिए उसके गैंग के लोग औरतों को अपने कंधों पर उठाकर भागते थे. इस तरह से यह काम एक मज़बूत दमखम और मस्कुलर पॉवर वाला माना गया है. ग़ौरतलब है किसी भी खेल में मस्कुलर एक्टिविटी ही देखी जाती हैं. सो धीरे धीरे इसने एक विधिवत खेल की शक्ल लेली. और चोरी की जगह लोग अपनी पत्नियों को उठाए इस खेल में काम जाकर लेने लगे. है न मजेदार कहानी. अगले हफ्ते बात होगी किसी और दिलचस्प खेल पर.

                                                    स्नोबॉल फाइटिंग



इस बार का स्पोट्‌र्स ऑफ द वीक है स्नोबॉल फाइटिंग. जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर होता है कि यह एक फाइटिंग गेम है. एक ऐसा फाइटिंग गेम, जिसमें न तो मुक्कों से लड़ाई होती है और न हथियारों से. स्नोबॉल फाइटिंग में बर्फ को हथियार बनाया जाता है. इसमें दो टीमें एक-दूसरे पर बर्फ के गोलों की बौछार करती हैं और फिर होता है स्नोबॉल में बर्फ और खेल का दोहरा मज़ा. वैसे आप लोगों ने बचपन में कई बार पिलो फाइट यानी तकियों की लड़ाई वाला खेल ज़रूर खेला होगा. स्नोबॉल फाइटिंग भी काफी हद तक पिलो फाइट से मिलता जुलता है. अंतर इतना है कि पिलो फाइट घर के अंदर यानी इंडोर गेम है, जबकि स्नोबॉल फाइटिंग घर के बाहर यानी उस जगह पर खेला जाता है, जहां पर्याप्त मात्रा में बर्फ की उपलब्धता हो. अरे भाई, बर्फ के गोले बनाने के लिए बर्फ की ज़रूरत तो पड़ेगी न! 10 फरवरी, 2006 को मिशीगन टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी के लगभग 3749 छात्रों ने मिलकर यह खेल खेला था. इतनी बड़ी संख्या में स्नोबॉल फाइटिंग प्रतियोगिता में शामिल होने पर इसे एक वर्ल्ड रिकॉर्ड के तौर पर माना गया. इसके अलावा जापान में हर साल स्नोबॉल फाइटिंग प्रतियोगिता यूकिगासेन आयोजित की जाती है. जापानी में यूकिगासेन का अर्थ होता है हिम युद्ध. जर्मनी में बाकायदा इसकी वर्ल्ड चैंपियनशिप आयोजित की जाती है. वैसे अब यह खेल कई देशों में खेला जाने लगा है. मसलन पेससिंलवेनिया, बेल्जियम, वाशिंगटन डीसी, नॉर्थ अमेरिका, वर्जीनिया और उन तमाम मुल्कों में, जिन्हें बर्फीली जलवायु वाला देश माना जाता है. कहा जाता है कि क़रीब बीस साल पहले जापान के माउंट शोवा-शिनज़ैन रिसॉर्ट ने ठंड के मौसम में पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए यह खेल ईजाद किया था. यह खेल शतरंज, पेंटबॉल और बैकयार्ड ब्रावलिंग का मिश्रण है. इसे 44 बाई 12 गज के मैदान में खेला जाता है. हॉकी के मैदान जैसी लाल और नीले रंग की लकीरों से मैदान को बांटा जाता है. मैच में तीन मिनट के तीन भाग होते हैं. जो टीम दो भाग जीत लेती है, वह विजेता होती है. हर भाग में जिस टीम के अधिक खिलाड़ी खड़े पाए जाते हैं, वह जीत जाती है. इसके अलावा बर्फ के गोलों से बचते हुए जो दूसरी टीम का झंडा छीन लेता है, उसकी टीम जीत जाती है. फिलहाल जापान में यूकिगासेन की दो हज़ार से ज़्यादा टीमें हैं. पिछले साल अमेरिका में भी इसकी कई प्रतियोगिताएं हुई थीं. ऐसा भी नहीं है कि इस खेल में हमेशा मज़ा ही आता है, कभी-कभी यह मजेदार खेल कई प्रतियोगियों पर भारी भी पड़ जाता है. उदाहरण के तौर पर 9 दिसंबर, 2009 की घटना को ले लीजिए. इस दिन लगभग 4000 छात्रों ने बॉसकाम हिल पर स्नोबॉल फाइटिंग प्रतियोगिता में भाग लिया, लेकिन इस दौरान कई प्रतियोगियों को काफी चोटें आईं. कई लोगों की नाक टूटी तो कई लोगों ने अपनी कुहनियां तुड़वाईं. यहां तक तो ठीक था, लेकिन मामला तब बिगड़ गया, जब भीड़ ने बेकाबू होकर लूटपाट शुरू कर दी और सार्वजनिक संपत्ति को नुक़सान पहुंचाया. जिस रिकॉर्ड  को तोड़ने के लिए इसका आयोजन किया गया था, वह तो नहीं टूटा, कई लोग अपना अंग भंग ज़रूर करा बैठे.

                                                           वुड चॉपिंग



इस बार का स्पोट्‌र्स ऑफ द वीक है वुड चॉपिंग. वुड चॉपिंग यानी लकड़ियों की कटाई. पहले पहल तो इस खेल को देखकर लगता है कि शायद यह मज़दूरों का खेल है या फिर शहरों से दूर बसी उस आबादी का, जिसे लकड़ियों में खाना बनाना होता है. लेकिन जैसे ही अमेरिका और आस्ट्रेलिया में होने वाली वुड चॉपिंग चैंपियनशिप में शामिल होते हैं तो आप जान जाते हैं कि यह शौक़ीन मिज़ाज लोगों का एक अजूबा खेल है. आपने कालिदास की कहानी तो ज़रूर सुनी होगी. कालिदास पेड़ की जिस शाख पर बैठे थे, उसे ही काट रहे थे. जब उन्होंने ऐसा काम किया था, तब उन्हें दुनिया का सबसे बड़ा मूर्ख समझा गया था और आज भी लोग उस घटना को चट़खारे भरे अंदाज़ में एक-दूसरे पर फब्तियां कसने के लिए सुनाते रहते हैं, लेकिन कालिदास की अब उसी घटना को दुनिया के कई देश वुड चॉपिंग खेल के ज़रिए दोहरा रहे हैं. अब उन्हें कालिदास की तरह मूर्ख तो क़तई नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इस खेल में भाग लेने वाले प्रतियोगियों को बाक़ायदा ईनाम मिलता है. अब लकड़ी के मोटे लट्ठे को काटना खेल बन गया है. इस लट्ठे पर खड़े होकर तेज़ धार कुल्हाड़ी से इसे काटना होता है. जिसने जल्दी इसे दो टुकड़ों में काट दिया, वह जीत गया. इसके अलावा कई देशों में कुल्हाड़ी की जगह आरी का भी इस्तेमाल होता है. जर्मनी सहित कई यूरोपीय देशों, ऑस्ट्रेलिया, नार्वे, स्विट्‌ज़रलैंड, इंग्लैंड, कनाडा, स्लोवेनिया, स्पेन, फ्रांस, न्यूजीलैंड एवं अमेरिका में यह खेल खेला जाता है और टेलीविज़न चैनलों पर इसका सीधा प्रसारण होता है. अगर इस खेल की शुरुआत पर ग़ौर करें तो कहा जाता है कि यह खेल 1870 के आसपास तस्मानिया में पहली बार खेला गया था. इसकी शुरुआत भी बड़ी दिलचस्प थी. असल में तस्मानिया में 1870 के आसपास दो कुल्हाड़ी धारियों ने एक लकड़ी को सबसे पहले काटने के लिए क़रीब 50 डॉलरों की शर्त रखी थी. इसी शर्त ने वुड चॉपिंग को खेल का रूप दे दिया. हालांकि यह खेल उन्हीं देशों में खेला जाता है, जहां जंगल बहुत हैं और जहां की अर्थव्यवस्था का़फी हद तक लकड़ियों के व्यापार पर निर्भर करती है. वुड चॉपिंग की पहली वर्ल्ड चैंपियनशिप 1891 में लैटरोब में हुई थी. मोटे तौर पर इस खेल में कोई खास नियम तो नहीं होता. हां, किसी देश में कुल्हाड़ी तो किसी देश में विभिन्न प्रकार की आरियां इस्तेमाल होती हैं. कहीं पर लकड़ी का गट्ठा चॉप किया जाता है तो कहीं बाक़ायदा पूरा पेड़ काट दिया जाता है. प्रतियोगिता इस बात की होती है कि कौन सा चॉपर पेड़ को सबसे पहले काटकर गिराता है. वुड चॉपिंग के खेल में दुनिया के दो चैंपियन न्यूजीलैंड से आते हैं. जेसन व्यानयाड और डेविड बोल्सटैड नामक इन दो चैंपियनों की वजह से न्यूजीलैंड वुड चॉपिंग का टॉप लीडिंग कंट्री माना जाता है. इनमें से डेविड बोल्सटैड का गत नवंबर माह में निधन हो गया. न्यूजीलैंड के बाद ऑस्ट्रेलिया और यूके ऐसे देश हैं, जहां से वुड चॉपिंग के बेस्ट एक्समैन आते हैं. कुल मिलाकर लकड़ी काटने का यह फनी और मेहनत वाला खेल भले ही भारत में औपचारिक तौर पर न खेला जा हो, लेकिन हमारे गांवों में इस खेल के बादशाह सदियों से जंगलों में लकड़ियां काट रहे हैं.