एक समय था जब भारत को गांवों को देश कहा जाता था. किसान और ज़मीन से ही देश की अर्थव्यवस्था जुड़ी हुई थी. लेकिन समय बदला और शहरों के विकास की आंधी में गांव कहीं पीछे छूट गए. कहा जाने लगा कि शहर के लोग गांव के लोगों से हर हाल में बेहतर हैं. लेकिन नोएडा से लिए गए आंकड़े कुछ और ही कहानी बयां करते हैं. नोएडा में जिस तरह से शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में लड़का-लड़की का लिंगानुपात बिगड़ा हुआ है उसे देखकर यही लगता है की शहरी क्षेत्र के लोगों में लड़के की चाह कुछ ज़्यादा ही ज़ोर मार रही है.
ऐसा कुछ करते समय उनको इस बात का एहसास बिल्कुल भी नहीं होता है कि आने वाले समय में अगर लड़कियां नहीं होंगी तो उनके लड़कों की शादी के लिए देखे गए उनके सपने कहां से पूरे होंगे? पर शायद इन मां-बाप को अभी केवल इतना ही दिखाई दे रहा है कि वे आज अपने घरों में लड़कियों को आने से रोक सकने में समर्थ हो पा रहे हैं? आने वाले समय में उनके यही क़दम उन्हें पता नहीं कहां-कहां भटकने को मजबूर कर देंगे? आंकड़ों से पता चलता है कि 2001 की जनगणना के बाद से अब कन्या लिंगानुपात में कुछ सुधार हुआ है, पर आज भी यह संतोषजनक नहीं है.
एक तऱफ जहां ग्रामीण क्षेत्रों में यह अनुपात 920/1000 है वहीं शहरी क्षेत्र में यह 855/1000 पर अटकी हुई है. इसका क्या मतलब निकाला जाए कि शहरी क्षेत्रों के लोग अपनी शिक्षा का इस तरह से उपयोग कर रहे हैं. . इसका क्या मतलब निकाला जाए कि शहरी क्षेत्र में लोग अपनी शिक्षा का इस तरह से उपयोग कर रहे हैं और कुछ लालची चिकित्सकों की सहायता से कुछ रुपए खर्च करके वे पूरे समाज के ताने बाने को छिन्न-भिन्न करने पर आमादा हैं.
क्या शिक्षा का यही अर्थ लगाया जाए कि कुछ लोग आधुनिक तकनीक का ग़लत इस्तेमाल करके अपने मन की करने पर लगे हुए हैं. अभी तक जिन जांचों से गर्भ में होने वाली बीमारियों का पता लगाया जाता था, उसका दुरुपयोग आज भ्रूण लिंग परीक्षण के लिए किया जा रहा है? क्या आने वाले समय में भारत चिकित्सा जगत से जुड़े इन नए आयामों के प्रयोग के लायक़ समझा भी जाएगा? क्या हमारी शिक्षा अब इतनी ही रह गई है कि हम अपने भविष्य के निर्धारण के समय इस तरह से लड़कियों को नियंत्रित करते चलें? प्रकृति अपने हिसाब से चलती है और इस तरह से प्राकृतिक असंतुलन को जन्म देने वाले यह नहीं जानते हैं कि अनजाने में वे कहीं न कहीं से सामाजिक संघर्ष को बढ़ावा दे रहे हैं? अभी तक जो काम छोटे स्तर पर किया जा रहा है अगर उसे ही पूरा देश अपना ले तो इस समाज का क्या होगा.
आने वाले समय में लड़कों के लिए शादी योग्य लड़कियां कहां से आएंगीं? धिक्कार है ऐसे चिकित्सकों पर जो केवल कुछ रुपयों के लालच में इस तरह की घटिया हरकतें करने से भी बाज़ नहीं आते हैं? क्या आधुनिक और सभ्य समाज इसी तरह के होते हैं? इस काम की शुरुआत पंजाब और हरियाणा से हुई थी और आज भी वहां पर स्थिति कुछ सुधरी सी नहीं लगती है? कई ख़बरें तो ऐसी भी मिली कि वहां के लड़कों के लिए केरल और बिहार से लड़कियां लाई जा रही हैं? इस सारे मसले पर हम सभी को अपनी-अपनी नैतिकता के साथ जीना सीखने की आवश्यकता है और जब तक हम यह नहीं सीख सकेंगे तब तक यह असंतुलन दूर नहीं होगा. अंत में तो यही कहा जा सकता है कि गांवों के हालात शहरों से बदतर हैं और शहरों को इनसे सबक लेने की ज़रूरत है.