Saturday, June 29, 2013

बीडी मजदूर : जीवन में खुशहाली कब आएगी




किसी भी देश की आर्थिक उन्नति उसके औद्योगिक विकास पर निर्भर करती है. अगर वह किसी विकासशील देश की बात हो तो वहां के लघु उद्योग ही उसके आर्थिक विकास की रीढ़ होते हैं. भारत भी एक विकासशील देश है. ज़ाहिर है, भारत के विकास की कहानी के पीछे भी इन्हीं उद्योगों का योगदान है, लेकिन अब भारत धीरे-धीरे विकासशील देशों की कतार में का़फी आगे आ चुका है. यहां ब़डी-ब़डी मल्टीनेशनल कंपनियां पैसा लगा रही हैं. अरबपतियों की लिस्ट में भारत ठीकठाक पायदान पर अपनी जगह बना रहा है. हम कह सकते हैं कि भारत में औद्योगिक क्रांति अपनी सफलता के चर्मोत्कर्ष पर है, लेकिन इस सबके बीच शायद हम उन उद्योगों और उनमें काम करने वाले लोगों को भूल गए हैं, जिन्होंने भारत के आर्थिक विकास में न स़िर्फ महती भूमिका निभाई, बल्कि आज भी जब भारत पर आर्थिक संकट मंडराता है तो इन्हीं उद्योगों की बदौलत देश का आर्थिक तंत्र टिक पाता है.

वर्तमान में अगर बीड़ी उद्योग के स्वरूप की बात की जाए तो भारत में क़रीब 300 बड़े काऱखाने बीड़ी बनाने के काम में लगे हैं और कई हज़ार अन्य छोटे काऱखाने हैं. यह उद्योग क़रीब 44 लाख लोगों को सीधे तौर पर रोज़गार देता है और क़रीब 40 लाख लोग बीड़ी से संबंधित अन्य कामों में लगे हुए हैं.




यही हाल अस्तित्व के संकट से जूझ रहे बीड़ी उद्योग का है. एक दौर था, जब भारतीय बाज़ार में सिगरेट कंपनियां इस क़दर नहीं छाई हुई थीं, उस वक़्त भारत का बीड़ी कारोबार ज़ोरों पर था. उस वक़्त सिगरेट बहुत खास तबक़ा ही पिया करता था. उस दौरान बी़डी के कारोबार से जु़डे व्यवसायी और उत्पादन प्रक्रिया में शमिल मज़दूर अपने-अपने रोज़गार से खुश थे. समय बदला, सिगरेट की खपत ब़ढ गई और बी़डी कारोबारियों का मुना़फा कम होने लगा. लेकिन जैसा कहते हैं कि व्यापारी तो अपना ऩफा कहीं न कहीं से निकाल ही लेता है, सो बीड़ी व्यापारी भी उन राज्यों की तऱफ अपना व्यापार ब़ढाने लगे, जहां बीड़ी की खपत ज़्यादा होती है. इन इलाक़ों में मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों का नाम लिया जा सकता है. इस क़दम से बी़डी का उत्पादन ब़ढ गया और व्यापारी भी मुना़फे  में आ गए, लेकिन इस बदलाव की सबसे ब़डी मार जिन पर प़डी, वे थे बी़डी मज़दूर. वे कहीं के नहीं रहे. वे दैनिक मज़दूर की तरह दिहा़डी पर ही सिमट कर रह गए. वर्तमान में अगर बीड़ी उद्योग के स्वरूप की बात की जाए तो भारत में क़रीब 300 बड़े काऱखाने बीड़ी बनाने के काम में लगे हैं और कई हज़ार अन्य छोटे काऱखाने हैं. यह उद्योग क़रीब 44 लाख लोगों को सीधे तौर पर रोज़गार देता है और क़रीब 40 लाख लोग बीड़ी से संबंधित अन्य कामों में लगे हुए हैं. अब अगर आप सोच रहे हों कि इस धंधे से जुड़े मज़दूरों का मेहनताना क्या है तो आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि राज्य सरकारों द्वारा बीड़ी लपेटने के काम में लगे लोगों के लिए जो मज़दूरी निर्धारित की गई है, वह प्रति 1000 बीड़ी लपेटने पर उत्तर प्रदेश में 29 रुपये और गुजरात में 66.8 रुपये है. अब आप सोच सकते हैं कि इतनी दिहा़डी में कोई अपने के लिए रोटी का इंतज़ाम कैसे करता होगा, परिवार का पेट पालने की बात तो बहुत दूर है. ऐसा नहीं है कि इस व्यापार में मुना़फा नहीं है. असल में मुना़फा तो बहुत है, लेकिन मज़दूरों का शोषण जानबूझ कर किया जाता है. एक रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत के बीड़ी उद्योग ने वर्ष 1999 में क़रीब 16.5 अरब उत्पाद कर और 20 अरब विदेशी विनिमय राजस्व भारत सरकार के लिए एकत्रित किया. इन आंक़डों से इतना तो समझा जा सकता है कि सरकार और इससे जु़डे व्यवसायी इन मज़दूरों के  विकास के  प्रति कितने उदासीन हैं. इनकी तुलना अगर सिगरेट कंपनियों के मज़दूरों से की जाए तो देखेंगे कि उनके  लिए न स़िर्फ अच्छे मेहनताने का इंतज़ाम है, बल्कि काऱखाने में उनको स्वास्थ्य संबंधी कई सुविधाएं भी मुहैया कराई जाती हैं. लेकिन बी़डी मज़दूरों के लिए न तो कोई काऱखाना होता है और न उनकी सुरक्षा का कोई इंतज़ाम. इसलिए वे बेचारे अपने घरों में ही बैठकर बी़डी बनाते हैं और न्यूनतम दिहा़डी में मालिकों को सप्लाई करते हैं. असली मुना़फा मालिक खाता है.

यह तो रही मेहनताने की बात और ज़रा बी़डी मज़दूरों के स्वास्थ्य संबंधी प्रभावों और स्वास्थ्य के नाम पर मिलने वाली सुविधाओं पर नज़र डालते हैं. इस बात से तो सभी वाक़ि़फ हैं कि बीड़ी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है. यह हानि स़िर्फ पीने वालों को ही नहीं, बल्कि उन्हें भी होती है, जो इसके निर्माण कार्य से जुड़े होते हैं. इन मज़दूरों को टीबी, अस्थमा, फेफड़े के रोग और चर्म रोग होने का खतरा बना रहता है. जो महिलाएं अपने शिशुओं को काम पर ले जाती हैं, उन शिशुओं को नन्हीं सी उम्र में ही तंबा़कू  की धूल और धुंआ झेलना पड़ता है. जो बाल मज़दूर इस काम में लगे हैं, उन्हें श्वास और चर्म रोग होना आम बात है. बीड़ी लपेटने के दौरान मज़दूर किसी भी तरह के दस्ताने और मास्क आदि का प्रयोग नहीं करते, जिससे उनके शरीर में तंबा़कू आदि के कण प्रवेश कर जाते हैं. शोध बताते हैं कि जो लोग बीड़ी के पत्ते की कटाई के काम में लगे हुए हैं, उनके पेशाब में निकोटिन की मात्रा पाई गई है. 45 साल की उम्र आते-आते बीड़ी मज़दूरों के हाथों की उंगलियों की ऊपरी सतह की खालें मर जाती हैं और वे काम करना बंद कर देती हैं. इस परिस्थिति में वे लोग जो बी़डी बनाने का काम नहीं कर पाते, भीख मांगना शुरू कर देते हैं. आश्चर्य की बात यह है कि इन मज़दूरों के स्वास्थ्य से संबंधित उक्त सारी जानकारियां सरकारी सर्वे में ही सामने आती हैं और इसके बावजूद सरकार स़िर्फ काऱखाना मालिकों के हितों का ही ध्यान रखती है.


कहने के लिए सरकार बी़डी मज़दूर कल्याणकारी फंड के तहत उन्हें शिक्षा, चिकित्सा, बीमा योजना, घर का किराया आदि प्रदान करने की बात करती है. इसके अलावा काम के  दौरान बी़डी मज़दूर को यदि किसी प्रकार की समस्या आती है तो उसे बीमा योजना के  अंतर्गत आर्थिक सहायता प्रदान किए जाने की बात कही जाती है, लेकिन ये सारी सुविधाएं कितने मज़दूरों को मिलती हैं, इसका आंक़डा किसी के पास नहीं है. पिछले दिनों सरकार ने चिकित्सा स्मार्ट कार्ड के ज़रिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना का लाभ बी़डी मज़दूरों को भी देने की मंज़ूरी दे दी है. इस योजना के तहत बी़डी मज़दूरों के परिवारों को तीस हज़ार रुपये वार्षिक सहायता दी जाएगी. इससे अधिक की राशि कल्याण आयुक्त द्वारा मौजूदा नियमों के अनुसार पैनल में रखे गए अस्पतालों को सीधे दी जाएगी. अब इस योजना का लाभ पाकर कितने बीड़ी मज़दूरों का जीवन संवरता है, देखने वाली बात होगी. इस तरह ये मज़दूर आर्थिक और सामाजिक स्तर पर इस क़दर पिछ़ड जाते हैं कि फिर इनका पूरा परिवार सज़ा के तौर पर इसी व्यसाय का ग़ुलाम बनकर रह जाता है. दरअसल इस तरह धंधे में ज़्यादातर वही लोग काम करते हैं, जो समाज के उस तबक़े से संबंधित हैं, जहां न तो शिक्षा है और न रोज़गार के अवसर. नतीजतन, पी़ढी दर पी़ढी लोग बीड़ी के धुएं में उड़ जाते हैं.

ऐसा नहीं है कि लोग इस व्यवसाय से छुटकारा नहीं पा सकते. ये लोग चाहें तो जबलपुर के अंसार नगर के बी़डी मज़दूरों से बहुत कुछ सीख सकते हैं. कुछ साल पहले इस इलाक़े के कुछ युवाओं ने ठान लिया कि वे बी़डी नहीं बनाएंगे. उन्होंने एम्ब्रोडरी और सिलाई की ट्रेनिंग ली और घर पर ही काम शुरू किया. आज 30 लाख की आबादी वाले इस इलाक़े में आधे से अधिक घरों में यह काम हो रहा है. इन लोगों को चाहिए कि ये संगठित होकर सरकार से अपने हक़ की मांग करें और सभी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ हासिल करें या फिर अंसार नगर के मज़दूरों की तरह बी़डी के इस जाल से आज़ाद होकर एक नई शुरुआत करें.



सरकार को वास्तविकता की जानकारी नहीं

झारखंड में असंगठित मज़दूरों की संख्या लाखों में है. इसमें बीड़ी मज़दूरों का एक बड़ा तबक़ा शामिल है. इनका दुर्भाग्य यह है कि इनकी वास्तविक संख्या राज्य सरकार के पास नहीं है. राज्य सरकार बीड़ी उद्योग से जुड़े मज़दूरों की हालत से नावाक़ि़फ है. इन परिस्थितियों में राज्य या केंद्र सरकार द्वारा बीड़ी मज़दूरों के लिए बनाई गईं योजनाएं कितनी उपयोगी होंगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है. सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, राज्य सरकार के श्रम नियोजन एवं प्रशिक्षण विभाग की जानकारी में पाकुड़ ज़िले में मात्र 2589 मज़दूर हैं, पर वास्तविकता यह है कि इस ज़िले में बीड़ी मज़दूरों की संख्या 25 हज़ार से भी अधिक है. हैरत की बात तो यह है कि पाकुड़ स्थित भारत सरकार के श्रमिक औषधालय में भी मज़दूरों की सही संख्या दर्ज नहीं है. इस औषधालय में निबंधित मज़दूरों की संख्या 4457 है. इसका मतलब यह है कि पाकुड़ ज़िले के मज़दूरों की वास्तविक संख्या न तो राज्य सरकार के पास है और न पाकु़ड स्थित श्रम औषधालय में. कमोबेश यही स्थिति चतरा ज़िले की है. राज्य सरकार के श्रम नियोजन एवं प्रशिक्षण विभाग से मिले आंकड़ों के अनुसार, देवघर में बीड़ी मज़दूरों की संख्या 4897, साहबगंज में 251, दुमका में 892, गोड्डा में 867, हज़ारीबाग में 600, पूर्वी सिंहभूम में 6500 और पलामू में 384 है. इनमें से कोई भी आंकड़ा वास्तविक आंकड़ों से मेल नहीं खाता है. वास्तविकता यह है कि अकेले साहबगंज, पूर्वी सिंहभूम और देवघर में ही लाखों की संख्या में बीड़ी मज़दूर काम करते हैं. इन आंकड़ों से बीड़ी मज़दूरों की उपेक्षा का अंदाज़ा सहज लगाया जा सकता है. सरकार के अलावा बी़डी बनाने वाली कंपनियों के पास भी बीड़ी मज़दूरों की वास्तविक संख्या नहीं है. सच पूछा जाए तो बीड़ी कंपनियां जानबूझ कर मज़दूरों की वास्तविक संख्या ज़ाहिर नहीं करना चाहती हैं. वे नहीं चाहतीं कि मज़दूरों का संगठन मज़बूत हो और वह उनके लिए परेशानी का सबब बने. दरअसल, झारखंड में बीड़ी उद्योग चलाने वाली लगभग सभी कंपनियां बाहर की हैं. ये कंपनियां बिचौलियों और दलालों के माध्यम से झारखंड में बीड़ी का कारोबार चलाती हैं. इसके कारण कंपनियों का मज़दूरों से सीधे तौर पर कोई सरोकार नहीं होता. कंपनियां यह चाहती भी नहीं हैं. यही वजह है कि मज़दूरों को मिलने वाला लाभ इस धंधे में लगे बिचौलिए और दलाल गटक लेते हैं. दुर्भाग्य की बात यह है कि झारखंड राज्य गठन के 11 साल बाद भी बीड़ी मज़दूरों की समस्या किसी राजनीतिक पार्टी का एजेंडा नहीं बनी. बीड़ी मज़दूरों की तमाम समस्याओं की जड़ उनका असंगठित होना है.

- आलोका