Saturday, July 6, 2013

कब कसेगा कानूनी शिकंजा धर्म के ठेकेदारों पर




धार्मिक स्थलों में आस्था के नाम पर जमा भीड जिस तरह से भगदड में कीडेमकौडों की तरह दबकुचलकर मर रही है उसका न तो धर्म के ठेकेदारों, पंडों और पुजारियों की मोटी चरबी पर कोई फर्क पड रहा है और न ही पुलिस प्रशासन पर. अगर ऐसा नहीं होता तो धर्म के नाम पर लोगों की जान से खेलने वाले ये पंडे, पुजारी और तथाकथित धर्मगुरू आज सलाखें के पीछे होते.

हाल ही में रिलीज फिल्म ओह माई गाॅड  पर भगवान का मजाक उडाने पर काफी बवाल मचा हुआ है. वजह, इस फिल्म में परेश रावल का किरदार दैवीय प्रकोप यानी भ्ूाकंप की वजह से हुए अपने नुकसान के लिए भगवान पर ही केस कर देते हैं. वह भगवान को न सिर्फ अदालत में घसीटता है बल्कि उसके अस्तित्व और शक्तियों को लेकर खोखले धर्म और उसे प्रचारकों की फजीहत करता है. खैर, यह तो सिनेमा की बात थी. काश.. वास्तविक जीवन में ऐसा हो सकता. अगर ऐसा होता तो भगवान के तथाकथित ठिकानों मंदिर, आश्रमों, तीर्थ स्थलों और रथ यात्राओं में हुए हादसों के लिए उस पर कोर्ट केस चलता. पर ऐसा संभव नहीं है. पर जिस तरह से धर्मिक स्थलों पर लोग तडपतडप कर मर रहे हैं उनका इंसाफ तो होना ही वाहिए. क्या उनकी मौत यों ही जाया चली जाएगी?
इसकी सजा तो उनको मिलनी चाहिए, जो इन हादसों के लिए जिम्मेदार हैं. मसलन, मंदिर के पुजारी, भगवान के नाम पर जमा करोडों के दान से अपनी जेब में भरने वाले प्रबंधक, धर्म की कमाई खा रहे धर्म प्रचारक आदि सब मासूम लोगों की गैर इरादतन हत्या के दोशी तो हैं.जिस तरह कभीकभी सिलसिलेवार ढंग से विस्फोटों और सडक हादसों में लोगों की जान जाती है ठीक वैसे ही इस साल 23 सिंतबर, 24 सिंतबर और 25 सिंतबर को, लगातार तीन दिन तक  मथुरा के बरसाना, देवघर और कानपुर के मंदिरों में मची भगदड़ में लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. इन हादसों ने जाने कितने परिवारों को उजाड कर रख दिया. बात भले ही चैंकाने वाली लगे मगर सच है कि हर साल भारत में जितने लोग सडक दुर्घटना, आपसी झगडों या आतंकी गतिविधियों में जान गंवाते हैं, लगभग उतने ही लोग धर्म के नाम पर हर साल मारे जाते हैं. कभी मंदिरों में हुई भगदड के नाम पर, कभी तीर्थ यात्रा के लिए जाते वक्त बस दुर्घटनओं में तो कभी रथ यात्रा के आयोजनों के नाम पर.



अगर आपको यकीन नहीं आता है तो आंकडें उठा कर देख लीजिए. हरिद्वार की भगदड़ में 16,  केरल के अयप्पा मंदिर मे 102, भक्तिधाम मनगढ़ में 63 महिला व बच्चे, जोधपुर में चामुंडा देवी मंदिर में मची भगदड़ में 250, हिमाचल के नैना देवी मंदिर में 162, महाराष्ट्र में माधरा देवी मंदिर में 340 लोग यांे ही बेमौत मारे गए. ये तो महज कुछ उदाहरण है. हकीकत में आंकडे बहुत ज्यादा है. इन हादसों के लिए पुलिस और प्रशासन की अव्यवस्था को दोश देते हुए मामले रफा दफा कर दिए गए. न किसी को सजा न किसी पर मुकदमा.
  दुख की बात तो यह है कि आम दुर्घटना, झगडों और आंतकी गतिविधियों में पुलिस के पास एक्शन लेने के लिए आरोपी होते हैं पर मंदिर और तीर्थ स्थलों में हुए हादसे भगवान की मर्जी समझकर दबा दिए जाते है. अब चूंकि धर्म के व्यापारी इस बात को भलीभांति समझते हैं कि इन हादसों के लिए कि भगवान को तो सजा दी नही जा सकती और रही बात मंदिर के पंडों और पुजारियों की तो वे ठहरे भगवान के प्रतिनिधि, सो उनके भी सारे खून माफ. लेकिन यह बात समझ से परे हैं कि जो भक्त धर्म में अंधे होकर सैकडों मील भगवन से अपनीे खुशहाली और लंबी उम्र की कामना करने जाते हैं, उन्हें वही  भगवान इस तरह की मौत देता है, उन्हें यह बात समझ में क्यों नही आती? अगर भगवान सबकी रक्षा करने के लिए बना है तो इन हादसों के दौरान अपने भक्तों की रक्षा क्यों नहीं कर पाता? अगर सब भगवान की मर्जी से हो रहा है तो इन हादसों में धर्म के ठेकेदार, मंदिरों के पंडे, पुजारी, प्रबंधन से जुडे लोग क्यों इन हादसों का शिकार नहीं होते? सिर्फ आम आदमी ही क्यों मरता है? ऐसा इसलिए क्योंकि मंदिरों के पंडे, पुजारी ख्ुाद की सुरक्षा का पूरा इंतजाम रखते है और आमजन का भीड में धक्के खाकर मरने के लिए छोड देते हैं.
सोमवार यानी 24 सितंबर को झारखंड में देवघर के एक आश्रम में भगदड़ मचने से 9 लोगों की मौत हो गई. सरकार ने मृतकों के परिजनों को मुआवजे का ऐलान किया है. लेकिन सवाल ये है कि बेगुनाहों की मौत का जिम्मेदार कौन है? जाहिर सी बात है तिक इसके जिम्मेदार वो है जो अपनी धर्म की दुकान चलाने के लिए लोगों का मंदिरों में जमा करते हैं. मंदिरों में आने वालों भक्तों के दान, चंदे और चढावे की शकल में मिलने वाली दौलत से मौज उडाने वाले पंडों पर इनकी सुरक्षा की भी तो जिम्मेदारी है.
3 दिसंबर 1984 को भोपाल गैस कांड में जहरीली गैसे की खबर से मची भगदड में कई लोगों ने अपनी जान गंवाई थी. जिसके दोशी वारेन एंडेरसन पर आत तक मुकदमा चल रहा है  साथ ही कैमिकल कंपनी डाउ पर कई तरह के प्रतिबंध लगे हैं पर जब 30 सितम्बर 2008 को जोधपुर में चामुंडा देवी मंदिर में बम विस्फोट की अफवाह से मची भगदड़ में 250 लोगों की मौत हुई और 60 लोग घायल हो गए तब किसी पर मुकदमा नहीं चला और न ही मंदिर पर किसी  भी तरह का प्रतिबंध नही लगा. आखिर क्यों? दोनों ही हादसों में हुई भगदड में मारे गए लोगों की जान की कीमत तो एक हैं फिर धर्म  के ठेकेदारों को क्यों नहीं इन हत्याओं का दोशी माना गया. क्यों इनकी धर्म की दुकान को डाउ कैमिकल की तरह प्रतिबंधित किया गया.
 अगर राजनीतिक रैली या किसी मनोरंजक कांसर्ट में इसी तरह की भगदड के चलते कुछ लोगों की मौत हो जाती तो कार्यक्रम के आयोजकों तुरंत मामला दर्ज कर लिया जाता पर मंदिरों में धर्म की कमाई खाने वाले इन पंडों को कोई सजा  नही मिलती.
10 जनवरी 1999 को दिल्ली के बहुचर्चित बीएमडब्लयू केस में संजीव नंदा को अपनी गाडी के नीचे कुचलकर किसी की जान लेने के लिए 5 साल की जेल हुई थी. इसी तरह 28 सितंम्बर 2002 को जब बाॅलीवुड स्टार सलमान खान ने मुंबई में अपनी लैंड क्रूजर फुटपाथ पर सो रहे लोगों पर चछा दी थी तो डन्हें भी जेल जाना पडा था और उसके लिए आज भी वे अदालतो ंके चक्क्र काट रहे हैं. दोनों ही मामलों से जुडे दोशियों को बाकायदा सलाखों के पीछे जाकर अपने अपराध की सजा भुगातनी पडी पर जब दक्षिण भारत में आयोजित होने वाली रथ यात्रा के दौरान कुछ लोग रथ के पहियों के नीचे कुचलकर मर गए तो रथ संचालकों और आयोजकों पर कोई केस दर्ज क्यों नहीं हुआ? इन्हें सिर्फ इसलिए छोड दिया क्योंकि ये धर्म की तोप पर सवार थे. जिस तरह सामाजिक अपराधों, हादसों पुलिस प्रशासन सख्त रवैया अपनाता है, धार्मिक मसलों पर क्यों उसका सख्त रवैया अचानक से ठंडा पड जाता है.
   23 सितंबर को ही मथुरा के राधारानी मंदिर में हादसा इसलिए हुआ क्योंकि वीआईपी दर्शन के फेर में पंडे और प्रशासन आम भक्तों को भूल गए और दर्शन के बाद निकलने का रास्ता संकरा हो गया. इसकी वजह से ही भगदड़ मची.अब चूंकि वीआईपी भक्तों का चढावा आम भक्तों की तुलना में भारी होता है. इसलिए आम भक्तों की भीड को रोक कर रखा गया. अब इन पंडे, पुजारियों के लालच की कीमत इन भक्तों चुकानी पडी. वहीं जब 13 जून 1997 को दिल्ली के उपहार सिनेमा हाउस में अग्निकांड में  59 लोग मर गए थे तब तब न सिर्फ उस सिनेमा हाउस को बंद करवया गया था बल्कि उनके वीआईपी मालिकों को इस हादसे का जिम्मेदार ठहराते हुए बाकायदा जेल की हवा भी खानी पडी थी. अगर उपहार कांड के वीआईपी मालिकों को सजा दी जा सकती है तो मथुरा के इन वीआईपी दर्शनाथर््िायों और उनको वरीयता देने वाले पुरोहित और पंडों को  जेल में क्यों नही डाला जाता?
 16 मई 2008 को  राजेश और नुपुर तलवार के घर में एक लाश मिली जो उनकी बेटी आरूशि तलवार की थी. उसके अगले दिन यानी 17 मई को  तलवार दंपती के घर फिर से एक लाश मिली. यह लाश उनके नौकर हेमराज की थी. उसके बाद से आज तक राजेश और नुपुर तलवार जेल और अदालतों के चक्कर काट रहे हैं. पर वहीं जब तथाकथित धर्मगुरू आसाराम बाबू के आश्रम में लगातार लाशें मिलती हैं तो आसाराम पर कोई मामला नहीं बनता. इसका क्या मतलब हुआ?
यह तुलना मात्र इसलिए की जा रही है ताकि इस पहलू पर गौर किया जा सके  अन्य सामाजिक मामलों में जिस तरह आरोपियों को कानून की लाठी से हांका जाता है वहीं धार्मिक स्थलों पर हुए हादसों के जिम्मेदार धर्म के ठेकेदार, पुरोहित और पंडों और धर्म की दुकान से मलाई खा रहे मंदिरों के प्रंबधकों पर किसी तरह की कार्रवाई क्यों नहीं की जाती. आखिर धर्म को ढाल बनाकर  कब  तक ये लोग मासूम लोगों की जान से खेलते रहेंगे.
ऐसे ही एक हादसे के शिकार 85 वर्षीय रामलखन गिरि का कहना है कि मंदिरों में श्रद्धालुओं की सुरक्षा भगवान भरोसे ही रहती है. बडी हास्यास्पद बात है कि जिस भगवान की शरण में पंडे और पुजारी लोगों को उनके पाप हरने, उम्र बढाने और जीवन में खुशहाली लाने का लालीपौप देकर जमा करते हैं, उसी जगह बेचारे धर्मांध कीडे मकौडे की तरह दबकुचलकर मरने पर मजबूर हैं. अब इन पंडों से कौन पूछे कि कहां गई लोगों को जीवन देने वाली भगवान की शक्ति और उनका प्रसाद. इस बात का जवाब किसी के पास नहीं हैं कि भगवान के दर्शन के लिए जाने वाली बसें हादसे का शिकार हो जाती है तो भगवान बचााने के लिए क्यों नहीं आता. जबकि हर बस या गाडी पर भगवान की मूर्ति जरूर लगी होती है. क्या फायदा ऐसे भगवान का जो अपने ही भक्तों को न बचा सके.




पंडे ही कराते हैं भगदड

मंदिरों में होने वाली इन भगादडों के पीछे पंडों, पुराहितों का लालच और धर्म की दुकान को डिमांड में बनाए रखने वाली मानसिकता काम करती है. मंदिर परिसर में अकसर दर्शन के बीच में-बीच में परदा गिरा दिया जाता है. हजारों कोस से आए श्रद्धालु परदा गिरने पर उसके हटने के इंतजार मंदिर परिसर में ही जमे रहते हैं. दर्शन के बीच में परदा गिरने से लोगों में जहां दर्शन करने की होड़ लग जाती है, वहीं इसी से धक्का-मुक्की शुरू होती है. नतीजन ये हादसे हो जाते हैं. इसके अलावा पुजारियों का एक और बचकाना बयान सुनिए. इनके मुताबिक भोग-प्रसाद लगाते समय दर्शन इसलिए नहीं कराए जाते क्योंकि इससे भगवान को नजर लग सकती है. सोचने वाली बात है कि जिस भक्त के प्रसाद के चढावे से भगवान को भोग  और पुजारियों की जेब और पेट भरा जाता  है उन्हीं की नजर भगवान को लगेगी, इस पर कौन यकीन करेगा.  क्या भगवान में इतनी भी शक्ति नहीं हैं कि वह अपने भक्तों की नजर से भी न बच सके.




धर्म का खूनी खेल

  • 8 नवम्बर, 2011. हरिद्वार में एक धार्मिक कार्यक्रम के दौरान गंगा नदी के तट पर मची भगदड़ में 16 लोगों की जान गई.
  • 14 जनवरी, 2011. केरल के धार्मिक स्थल शबरीमाला के नजदीक पुलमेदु में मची भगदड़ में कम से कम 102 श्रद्धालु मारे गए थे और 50 घायल हुए.
  •  4 मार्च, 2010. उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में कृपालुजी महाराज आश्रम में प्रसाद वितरण के दौरान 63 लोग मारे गए जबकि 15 घायल.
  • 3 जनवरी, 2008. आंध्र प्रदेश के दुर्गा मल्लेस्वारा मंदिर में भगदड़ मचने से पांच लोगों की जान गई.
  • जुलाई 2008.  ओडिशा में पुरी के जगन्नाथ यात्रा के दौरान छह लोग मारे गए और 12 घायल हो गए.
  • 30 सितम्बर 2008. जोधपुर में चामुंडा देवी मंदिर में बम विस्फोट की अफवाह से मची भगदड़ में 250 ंकी मौत, 60 घायल.
  • 3 अगस्त, 2008 हिमाचल प्रदेश में भारी बारिश के कारण नैना देवी मंदिर की एक दीवार ढह गई, 160 लोगों की मौत हो गई, जबकि 230 घायल हो गए.
  • 27 मार्च, 2008.  मध्य प्रदेश के करिला गांव में एक मंदिर में भगदड़ मचने से आठ श्रद्धालु मारे गए थे और 10 घायल हो गए.
  • अक्टूबर 2007. गुजरात के पावागढ़ में धार्मिक कार्यक्रम के दौरान 11 लोगों की जान चली गई थी.
  • 26 जून, 2005. महाराष्ट्र के मंधार देवी मंदिर में मची भगदड़ में 350 लोगों की मौत हो गई थी और 200 घायल हो गए थे.
  • अगस्त 2003. महाराष्ट्र के नासिक में कुम्भ मेले में मची भगदड़ में 125 लोगों की जान चली गई थी.



                                   

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