Wednesday, January 23, 2013

ग्राम स्‍वराज की ओर बढ़ते कदम



कहते हैं कि जब सरकारी तंत्र पूरी तरह से सड़ने लगे और लोकतंत्र स़िर्फ नाम का ही रह जाए तो ऐसे में विकास का रास्ता ज़डों की ओर लौटने से ही मिलता है. किसी भी देश के विकास की इमारत में उस देश के गांव और किसान नींव का काम करते हैं. भारत के  परिप्रेक्ष्य में तो यह नींव और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि भारत कृषि प्रधान देश है. जब इस देश में शहर और गांव के फासले नहीं थे, तब भारत के गांव ही इस देश की तकदीर और तस्वीर हुआ करते थे. सत्ता के नाम पर गांव में पंचायतें और मुखिया थे. पंच यानी पंचायतें, परमेश्वर का रूप मानी जाती थीं. न्याय व्यवस्था इतनी पारदर्शी थी कि पंच गांव के हर आदमी की सलाह के बाद ही सारे फैसले लेता था. इसलिए तब भारत के गांवों की तस्वीर इतनी चमकती थी.

 समय बदला. देश आज़ाद हुआ और भारत में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र क़ायम हो गया. देश में विकास की आंधी आ गई. कई क्रांतियां हुईं. देश की तस्वीर बदलने लगी. कल तक का ग्रामीण भारत देखते-देखते इंडिया हो गया और भारत के किसान और ग्रामीण इंडिया के विकास की आंधी में कहीं खो से गए. नतीजतन, गांवों का विकास ठप्प हो गया और महाराष्ट्र के विदर्भ से लेकर बिहार और उत्तर प्रदेश के गावों की बदहाली प्रदर्शन और धरनों के रूप में सामने आने लगी. इसी बीच एक बार फिर स्वराज की अवधारणा पनपी. कुछ जागरूक लोग ग्राम स्वराज अभियान से जुड़े. उन्होंने ही स्वराज लाने का यानी कि ग्राम सभा सुचारू कराने का तथा गांव का हर फैसला ग्राम सभा में ही कराने का इरादा रखते हुए इस अभियान को चलाया. और इसी स्वराज की कोख से हिवरे बाज़ार का जन्म हुआ.

महाराष्ट्र के अहमद नगर ज़िले का गांव हिवरे बाज़ार, एक ऐसा गांव जहां के लोग रोज़गार के लिए पलायन नहीं करते. गांव में रोज़ाना स्कूल की कक्षा लगती है, आंगनबाड़ी रोज़ खुलती है. राशन की दुकान भी ग्राम सभा के निर्देशानुसार संचालित होती है, सड़कें इतनी सा़फ कि आप वहां कुछ फेंकने से शरमा जाएंगे, जल संरक्षण में अव्वल इस गांव की सत्ता दिल्ली में बैठी सरकार नहीं चलाती, बल्कि उसी गांव के लोग इसे संचालित करते हैं. एक शब्द में यह भी कहा जा सकता है कि हिवरे बाज़ार ग्राम स्वराज का प्रतिनिधित्व करता है. हिवरे बाजार की कहानी से प्रेरणा लेकर कुछ जागरूक लोग उत्तर प्रदेश में ग्राम स्वराज को लोगों तक पहुंचा रहे हैं. इसके लिए वे समूह बनाकर गांव-गांव जाकर लोगों को हिवरे बाज़ार की कहानी बता रहे हैं और साथ ही उन्हें प्रोत्साहित कर रहे हैं, एक ऐसा ही गांव बनाने के लिए. इसी क्रम में पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के बागपत ज़िले में गांव-गांव जाकर लोगों को हिवरे बाज़ार की फिल्म दिखाई गई और फिर स्वराज की बात रखने का प्रयोग किया गया. इस अभियान के तहत गांव-गांव जाकर उस गांव के सक्रिय और गंभीर लोगों के साथ चर्चा की जाती और फिर एक बड़ी बैठक का आयोजन किया जाता है.



 इस बैठक में लोगों के साथ गांव की ज़रूरतों और समस्याओं पर चर्चा की जाती. हर गांव की आम समस्याएं होती हैं. मसलन, एक किसान को अपनी ज़मीन की फरद निकलवानी है, तो उसे पटवारी से लेकर एसडीएम तक न जाने किस-किस से गुहार लगानी पड़ती है. ग़रीब आदमी को अगर आय, जाति, निवास का प्रमाण पत्र बनवाना हो तो उसे भी ग्राम सचिव से लेकर उपर तक के अधिकारियों के धक्के खाने पड़ते हैं, लेकिन रिश्वत दिए बिना फिर भी उसका काम नहीं होता है. किसी गांव में बिजली के तार टूटे पड़े हैं तो कहीं ट्रांसफॉर्मर ही नहीं है. कहीं लोगों ने कहा कि सबसे पहले लड़कियों का स्कूल बनना चाहिए तो किसी गांव के लोगों ने कहा कि शहर से जोड़ने वाली बस होनी चाहिए. किसी गांव में गांव के अंदर की सड़कें खराब हैं तो किसी को अपने गांव को शहर से जोड़ने वाली सड़क ठीक करवानी है. कुल मिलाकर हल्की सी बातचीत से ही समझ में आ जाता है कि गांव में लोगों को क्या चाहिए. हर गांव वाला जानता है कि उसके गांव की क्या ज़रूरते हैं और इसके लिए उन्हें विशेषज्ञ होने की ज़रूरत नहीं है. इन सबके बाद इस बात पर परिचर्चा होती है कि पिछले चार-पांच सालों में गांव में सरकार ने क्या काम कराए हैं. आम लोगों की बातों और शिकायतों से पता चलता है कि गांव में जो काम कराए गए हैं, उनमें से ज़्यादातर की तो गांव में आवश्यकता ही नहीं थी.

लोगों से बिना पूछे योजनाएं बनीं, उनका पैसा आया और चूंकि लोगों की ज़रूरत ही नहीं थी, अत: लोगों ने भी उस ओर ध्यान नहीं दिया और सारा पैसा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया. बैठक में मौजूद गांववालों के मुताबिक़ सरकारी योजनाओं के बारे में न तो उनसे पूछा जाता है कि आपको क्या चाहिए और न ही इन योजनाओं के अमल में लाने में उन्हें कोई भूमिका ही दी जाती है. जबकि सारी कर सारी योजनाएं तो उनके गांव के लिए होती है. इसका सही उपाय बताते हुए उन्हें हिवरे बाज़ार गांव के विकास की कहानी को फिल्म के रूप में दिखाया गया. उन्हें बताया गया कि अगर उनमें भी विकास की चाह हो तो उनके गांव भी हिवरे बाज़ार की कहानी को दोहरा सकते हैं. उन्हें बताया गया कि अगर उनके गांव में भी ग्राम सभाएं विधिवत तरीक़े से होने लगें तो सारी की सारी समस्या ही खत्म हो जाएगी. हां, इसमें ज़रूरत स़िर्फ इस बात की है कि इस बार के पंचायत चुनाव में किसी ऐसे व्यक्ति को प्रधान बनाया जाए जो कि ग्राम सभाएं करे, उनकी समस्याएं सुने. महाराष्ट्र के अहमदनगर ज़िले का गांव हिवरे बाज़ार, एक ऐसा गांव है.

जहां के लोग रोज़गार के लिए पलायन नहीं करते. गांव में रोजाना स्कूल की कक्षा लगती है, आंगन वाड़ी रोज़ खुलती है, राशन की दुकान भी ग्राम सभा के निर्देशानुसार संचालित होती है, सड़कें इतनी सा़फ कि आप वहां कुछ फेंकने से शरमा जाएंगे, जल संरक्षण में अव्वल इस गांव की सत्ता दिल्ली में बैठी सरकार नहीं चलाती, बल्कि उसी गांव के लोग इसे संचालित करते हैं. एक शब्द में यह भी कहा जा सकता है कि हिवरे बाज़ार ग्राम स्वराज का प्रतिनिधित्व करता है. हिवरे बाज़ार की कहानी से प्रेरणा लेकर कुछ जागरूक लोग उत्तर प्रदेश में ग्राम स्वराज को लोगों तक पहुंचा रहे हैं. इस मुहिम को कई चरणों में पूरा किया गया. पहले चरण में इस तरह की बैठकें  लगभग सात गांवों में की गईं. इसके नतीजे भी का़फी सकारात्मक रहे. सभी गांवों में खासकर नौजवानों में यह उत्साह देखने को मिला कि वे अपने गांव के हालात सुधारने के लिए वाकई  कुछ करना चाहते हैं. स्वराज अभियान में उन्हें एक रास्ता दिखाई दे रहा है. वैसे तो यह अभियान प्रदेश में होने वाले पंचायत चुनावों को ध्यान में रख कर चलाया जाता है, लेकिन अब इसे पंचायत चुनाव के अलावा भी दिखाया जा रहा है. हिवरे बाज़ार की कहानी सुनकर लोग खुद आह भरते हुए बात करने लगते हैं कि काश! हमारा गांव भी ऐसा हो पाता. इस बातचीत को आगे बढ़ाते हुए नौजवान साथी अपने गांव में भी स्वराज लाने का यानी कि ग्राम सभा सुचारू कराने का तथा गांव का हर फैसला ग्राम सभा में ही कराने का इरादा रखते हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत ज़िले में काम कर रहे उत्साही कार्यकर्ता मनोज आर्य अब तक अपने ज़िले के 30 प्रमुख गांवों में हिवरे बाज़ार की कहानी दिखा चुके हैं. उनका काम करने का तरीक़ा बड़ा सीधा-सादा है. वो फिल्म की दो-तीन सीडी लेकर गांवों में जाते हैं. इन गांवों में उनके पहले से कुछ पुराने मित्र हैं, जो इस काम में उनकी मदद करते हैं. इन्हीं मित्रों के जरिए वे गांव में प्रचारित करवा देते हैं कि फलां तारीख को गांव के बारे में एक फिल्म दिखाई जाएगी.



इसके  लिए आवश्यक सीडी प्लेयर, टीवी सेट और बैटरी या जेनरेटर का इंतजाम प्राय: गांव वाले ही कर देते हैं. अब तक जहां कहीं भी मनोज ने फिल्म दिखाई है, वहां ग्रामीणों की प्रतिक्रिया बड़ी सकारात्मक रही है. गांव के लोग पूरे ध्यान से फिल्म देखते हैं. फिल्म देखने के बाद कई युवा फिल्म के प्रचार-प्रसार के लिए काम करने में भी रुचि दिखाते हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी हिवरे बाज़ार की सीडी जोर-शोर से दिखाई जा रही है. लोगों को स्वराज के प्रति जागरूक किया जा रहा है. इसी तरह फैज़ाबाद, आजमगढ़, सुल्तानपुर बस्ती आदि ज़िलों के कार्यकर्ता पीपुल्स एक्शन फॉर नेशनल इंटीग्रेशन (पानी संस्था) के कार्यक्रम में इकट्ठा हुए. सबने अपने अपने अनुभव बांटे. प्रतापगढ़ से आई सुशीला मिश्र ने जब एक गांव में महिलाओं के समूह को यह फिल्म दिखाई तो गांव की महिलाओं ने उन्हीं से आग्रह किया कि दीदी इस बार आप ही प्रधान बन जाओ. फिर हम भी अपने गांव को हिवरे बाज़ार की तरह बना लेंगे.

पानी संस्था से जुड़े शशि भूषण अब तक इस फिल्म को विभिन्न ज़िलों के 70-80 स्थानों पर दिखा चुके हैं. जहां-जहां उन्होंने सीडी दिखाई, वहां के लोगों में कुछ कर गुज़रने का जज्बा पैदा हुआ है. कुछ ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों की परिस्थितियां महाराष्ट्र से अलग हैं, इसलिए हिवरे बाज़ार का प्रयोग यहां पूरी तरह से स़फल नहीं हो सकता. हालांकि ऐसी नकारात्मक बात करने वाले कम ही मिले हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही चंदौली, कुशीनगर आदि ज़िलों में भी यह अभियान चल रहा है. गांव वालों के प्रतिक्रिया से कम से कम इतना तो स्पष्ट है कि वह अपने गांव के विकास के लिए कितने उत्साहित है. बस उन्हें सही सहयोग की ज़रूरत है. साथ ही अगला  पंचायती राज चुनाव उनके गांव में स्वराज लाने का एक बेहतरीन मौक़ा लेकर आएगा. अगर लोग इस मौक़े को भुना पाए तो फिर हर गांव की कहानी हिवरे बाज़ार की कहानी बन जाएगी

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