हाल ही में केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी नेे 2012 तक देश भर में चार हज़ार से अधिक सामुदायिक रेडियो स्टेशन खोलने की घोषणा की. हमेशा की तरह जनहित में एक और योजना घोषित हो गई, पर शायद अंबिका जी को पता नहीं है कि इस देश में योजनाओं की घोषणा करना जितना आसान है, उन्हें कार्यान्वित कर पाना उससे कहीं ज़्यादा मुश्किल है. मंत्री जब भी किसी क्षेत्र के दौरे पर होते हैं या मीडिया से मुखातिब होते हैं, घोषणाओं की एक लंबी फेहरिस्त जारी कर देते हैं. इसके बाद मीडिया और सरकार का काम पूरा हो जाता है और इन योजनाओं का क्रियान्वयन भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है. फिर भले ही इन योजनाओं को व्यवसायिक संस्थान अपने तरीके से तोड़- मरोड़ कर निजी स्वार्थों के लिए प्रयोग करें. सामुदायिक रेडियो यानी कम्युनिटी रेडियो की भी यही कहानी है. विकास से वंचित और पिछड़े समुदायों को ब़ढावा देने के लिए शुरू किए गए सामुदायिक रेडियो स्टेशन भी व्यवसायिक कंपनियों की कमाई का ज़रिया बनते जा रहे हैं.
एक ग़ैर सरकारी आंकड़े के मुताबिक, कम्युनिटी रेडियो के ज्यादातर लाइसेंस प्राइवेट सेक्टर के गिने-चुने मीडिया ग्रुपों को ही दिए गए हैं. पिछले साल तक सरकार ने एफएम चैनल चलाने के लिए अलग-अलग राज्यों के लगभग 100 शहरों में विभिन्न कंपनियों को लगभग 350 लाइसेंस बांटे. इस बंदरबांट में लाइसेंस बड़े संस्थानों की ही झोली में गए और छोटे समूह अपनी जगह भी नहीं बना पाए यानी उन्हें कोई भागीदारी नहीं मिली. रेडियो के इस कारोबार को विदेशी कंपनियां अपने कब्जे में लेने के लिए उतावली हैं. लाभ कमाने के लिए बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश के लिए मीडिया संस्थान आगे आ रहे हैं और इसके लिए सामुदायिक रेडियो के नाम पर एफएम को प्रोत्साहित किया जा रहा है.
सब जानते हैं कि रेडियो में विज्ञापन कमाई का एक बहुत बड़ा जरिया है. जबकि भारत सरकार ने 2002 में आईआईटी/आईआईएम सहित सुस्थापित शैक्षणिक संस्थानों में सामुदायिक रेडियो को स्थापित करने के लिए लाइसेंस प्रदान करने हेतु एक नीति अनुमोदित की थी. बाद में पुनर्विचार करते हुए सरकार ने अब विकास और सामाजिक परिवर्तन से संबधित मुद्दों पर और अधिक भागीदारी की अनुमति देने के उद्देश्य से सिविल सोसाइटी एवं स्वैच्छिक संगठनों को अपने सीमा क्षेत्र के अंतर्गत लाकर इस नीति को विस्तार दिया. इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सामुदायिक रेडियो को चलाने के इच्छुक संगठन ग़ैर लाभकारी संगठन के रूप में गठित होने चाहिए. इसके अलावा सामुदायिक रेडियो चलाने के लिए सरकार मुफ्त में लाइसेंस देती है. बशर्ते इसमें करियर, व्यवसाय, महिला सशक्तिकरण, स्वास्थ्य, स्थानीय संगीत, खेल और स्थानीय मुद्दों पर आधारित कार्यक्रमों का प्रसारण किया जाए, लेकिन होता कुछ और है.
वर्ष 1991 के आसपास जैसे ही उदारीकरण के नाम पर बाजार खुला, देश में कई माध्यमों की अवधारणाओं का अंकुर फूट पड़ा. यह वह दौर था, जब प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सूचना का अधिकार जैसे माध्यम गांव तक बेअसर हो रहे थे. इन माध्यमों को प्रभावी बनाने के साथ-साथ बाज़ार में खड़ा करने की पुरजोर कोशिशों के बीच ही कम्युनिटी रेडियो की अवधारणा पनपी. अगर वैश्विक स्तर पर बात करें तो सामुदायिक रेडियो का बीज 1940 के दशक में लैटिन अमेरिका में पड़ा था और दक्षिण एशिया में नेपाल पहला देश है, जहां 1997 में सामुदायिक रेडियो की शुरुआत हुई. भारत में पहली बार सामुदायिक रेडियो की शुरुआत आकाशवाणी के सहभागी के तौर पर भुज (गुजरात) में हुई. लगभग 10 से 12 किमी तक की रेंज कवर करने वाले इस सामुदायिक रेडियो की जब नींव डाली गई थी, तब इसका मकसद ग्रामीण जनता की आवश्यकता, प्राथमिकता, समस्या, सुझाव और समाधान से जुड़ा था. शुरुआत में तो सब ठीक चला, लेकिन जैसे-जैसे निजी क्षेत्रों और बहुराष्ट्रीय संस्थानों का उदय हुआ, बड़े-बड़े व्यापारियों की मुनाफाखोर नज़रें रेडियो बाजार पर टिक गईं और सामुदायिक समस्याओं के निवारण के लिए बना यह साधन आज मनोरंजन का साधन मात्र बनकर रह गया है. इससे भी ज़्यादा चिंता का विषय यह है कि आज इसके नाम पर कई गतिविधियां बगैर सामुदायिक सहयोग से चल रही हैं. कम्युनिटी रेडियो में बतौर आरजे (रेडियो जॉकी) काम कर रहे सुशांत सिंह बताते हैं कि आज कम्युनिटी रेडियो में काम करने वाले कर्मचारी प्रशासनिक पहुंच के दम पर काम कर रहे हैं या फिर वे लाइसेंस धारक कंपनियों के फिरंगी रिश्तेदार हैं.
कुल मिलाकर जिस तबके के लोगों के सामाजिक, कलात्मक, रचनात्मक और आर्थिक विकास के लिए यह रेडियो शुरू किया गया था, वहां अब इसका नामोनिशान तक नहीं दिखता. हालांकि बिहार और हरियाणा के गांवों में चलने वाले कुछ सामुदायिक रेडियो आज भी अपने लक्ष्य की तऱफ बढ़ रहे हैं, पर इतना नाकाफी है. सरकारी ज़ुबान में बोलें तो सामुदायिक रेडियो का स्वरूप लोकतांत्रिक है, जिसमें हर व्यक्ति को बोलने, सुनने और जनहित के कार्यक्रम बनाने की पूरी आज़ादी है. इस माध्यम के ज़रिए ग्रामीणों और मूलभूत सुविधाओं से वंचित तबकों के विकास और सशक्तिकरण की राह खुलती है. इससे जुड़कर हम विकास से वंचित, उपेक्षित और सताए हुए लोगों की मुक्ति का माध्यम बनकर समुदाय में गुणात्मक परिवर्तन ला सकते हैं, लेकिन ऐसा कितने सामुदायिक रेडियो स्टेशनों में हो रहा है, यह शोध का विषय है.
राघव रेडियो का जिंदा रहना जरूरी
एक तऱफ सरकार सामुदायिक रेडियो स्टेशन के लाइसेंस के लिए इच्छुक संस्था को कई विभागों के चक्कर कटवाती है, वहीं बिहार के वैशाली जिले के मंसूरपुर में रहने वाले राघव महतो की कहानी चौंकाने वाली है. राघव ने बिना किसी सरकारी मदद के अपने दम पर कम्युनिटी रेडियो का संचालन किया है. राघव ने एक साल के दौरान इकट्ठे किए हुए यंत्रों और उपकरणों के साथ रेडियो स्टेशन शुरू किया था. यह स्टेशन मुजफ्फरपुर, वैशाली और सारण ज़िलों में एक सामुदायिक रेडियो सेवा संचालित करता था. इस पर स्थानीय बोली में स्थानीय ख़बरें, गीत, एड्स जागरूकता, पोलियो उन्मूलन, गुमशुदगी की खबरें, साक्षरता पहल से संबंधित कार्यक्रम और इलाक़े में हो रहे अपराधों की सूचना आदि का नि:शुल्क प्रसारण किया जाता था. राघव रेडियो की बढ़ती लोकप्रियता देख 2006 में केंद्रीय संचार मंत्रालय ने राघव से चैनल की वैधानिकता पर रिपोर्ट मांगी. लाइसेंस न होने पर ज़िला अधिकारियों ने भारतीय टेलीग्राफ क़ानून के उल्लंघन के आरोप में राघव रेडियो बंद कर दिया. इतना ही नहीं, राघव को दोषी मानकर कुछ समय के लिए गिरफ़्तार भी किया गया, लेकिन मंसूरपुर गांव के लिए वह हीरो था. कई संस्थानों की मदद से अब इस अशिक्षित युवक की प्रेरणादायी कहानी एनसीईआरटी की किताबों में शामिल की गई है. वर्तमान में राघव राजस्थान के अजमेर ज़िले में एक सामुदायिक रेडियो स्टेशन बेयरफुट कम्युनिटी रेडियो स्टेशन में परियोजना प्रमुख के तौर पर काम कर रहे हैं. अगर प्रशासन और सरकार राघव जैसी प्रतिभाओं का हौसला बढ़ाए तो कम्युनिटी रेडियो की परिकल्पना साकार होने से कोई नहीं रोक सकता, पर सरकार के रवैए से ऐसा लगता नहीं है.