Thursday, January 13, 2011

काल कोठरी में खत्‍म होता बचपन



कहते हैं, क़ानून अंधा होता है. इसके इस अंधेपन की वजह से कितने लोगों की ज़िंदगियों में अंधेरा छा जाता है, इसका जीता-जागता उदाहरण बिहार के मुंगेर ज़िले का मनोज कुमार सिंह है. यह शख्स पिछले तेरह सालों से मंडल कारा मुंगेर की काल कोठरी में उस सज़ा को भुगत रहा है, जो उसके लिए है ही नहीं.

उसकी सज़ा लगभग दस साल पहले ही खत्म हो चुकी थी, लेकिन राज्य सरकार की लापरवाही, लालफीताशाही और क़ानूनी दांव-पेचों के चलते जेल में बंद वह आज भी अपनी रिहाई की बाट जोह रहा है. खानापूर्ति के लिए राज्य सरकार, राज्य सलाहकार बोर्ड, ज़िला सलाहकार बोर्ड, राज्य एवं ज़िला बाल संरक्षण इकाई जैसी कई संस्थाएं गठित की गई हैं, लेकिन सभी अपनी ज़िम्मेदारी को दूसरे के सिर डाल कर पल्ला झाड़ लेती हैं. इन सबका अब तक का यही काम है कि इन्होंने 10 वर्षों में मात्र तीन किशोर बंदी रिहा कराए हैं.

 इसके अलावा अन्य विचाराधीन किशोर बंदियों को रिहाई कब नसीब होगी, इसका जवाब किसी के पास नहीं है. मामला स़िर्फ इस तरह के ज़ुर्म में सजायाफ्ता किशोर बंदियों का ही नहीं है, बल्कि उनका भी है, जो अन्य कई मामलों में जेल में बंद हैं. दहेज उत्पीड़न के मामलों (डाउरी एक्ट 498 ए) में परिवार समेत उन दुधमुंहे बच्चों को भी जेल में डाल दिया जाता है, जो 18 साल तो क्या, 18 महीनों के भी नहीं होते. तो क्या तब किशोर न्याय अधिनियम की खुलेआम धज्जियां नहीं उड़तीं? 22 फरवरी, 1997 से जेल में बंद मनोज सज़ा के समय किशोर (16 वर्ष 5 माह) था और किशोर न्याय (बालकों की देखरेख एवं संरक्षण) अधिनियम 2002 की धारा 15 के तहत किसी भी किशोर, जिसकी उम्र 18 साल से कम हो, को अधिकतम तीन वर्ष की सज़ा होती है. इस हिसाब से मनोज की रिहाई तीन साल में हो जानी चाहिए थी.

चूंकि वारदात के समय उसकी उम्र 16 वर्ष 5 माह थी और किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम 1986 के तहत 16 साल की उम्र तक के बच्चों को ही बाल कैदी माना जाता है, इस हिसाब से उसे बाल क़ैदी नहीं माना गया और हत्या के जुर्म में आजीवन कारावास की सज़ा हुई थी, लेकिन 2002 के संशोधन के बाद बाल क़ैदी की उम्र 18 वर्ष कर दी गई है.

 मुंगेर के थाना तारापुर के लौंगाय गांव के मनोज कुमार उ़र्फ अमित कुमार मधुकर को हत्या के इल्ज़ाम में 4 फरवरी, 1986 को आजीवन कारावास की सज़ा हुई. इसके बाद वह पटना हाईकोर्ट तक अपील करते हुए ज़मानत पर रहा, लेकिन 22 फरवरी, 1997 को उसे जेल जाना पड़ा. तेरह सालों से काल कोठरी में सज़ा काट रहे मनोज को तीन साल बाद यानी 2000 में रिहा हो जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. कहने को इस अधिनियम को लचीला और कल्याणकारी बनाने के लिए केंद्र सरकार समय-समय पर संशोधन करती रही है, ताकि अधिक से अधिक कारा संसीमित दोषसिद्ध किशोर खुली हवा में सांस ले सकें और समाज की मुख्यधारा से जुड़कर देशहित में कुछ योगदान दें,

 लेकिन यह सब कागजों में ही सिमट कर रह जाता है. कई बंदी हैं, जो आज भी रिहाई की आस में हैं. जब एक जागरूक वकील एवं सामाजिक कार्यकर्ता ओम प्रकाश पोद्दार ऐसे मामलों की पड़ताल करते हैं तो पता चलता है कि मनोज जैसे कई किशोर और भी हैं, जो अपना बचपन न जाने कब खो चुके हैं. इस मामले पर पोद्दार ने राज्य गृह विभाग, समाज कल्याण विभाग और राज्य मानवाधिकार आयोग में भी गुहार लगाई है. इस बाबत जब किशोर न्याय परिषद, मुंगेर जेजे वार्ड से जवाब मांगा गया तो उसने भी जवाबदेही से मुंह फेर लिया. राज्य कारा प्रशासन और सलाहकार परिषद को भी इससे कोई वास्ता नहीं है. हालांकि 10 जून, 2008 में राज्य सलाहकार परिषद का गठन हुआ, जिसकी पहली बैठक 16 जुलाई, 2008 को हुई. इसमें प्रस्तुत 9 मामलों में 6 पर विचार करने के बाद 3 लोगों को दोषमुक्तकरार देकर रिहा करने का प्रस्ताव पारित हुआ. इन रिहा हुए तीन किशोर बंदियों में पटना के डॉक्टर उत्पलकांत के पुत्र सिद्धार्थ, अरिणित दास केंद्रीय कारा बेउर पटना और जितेंद्र सिंह शामिल हैं. ग़ौरतलब है कि इन तीनों किशोर बंदियों को मुक्त करने का आधार इनकी उम्र का 18 वर्ष से कम होना था. ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि जब इन तीन किशोरों को आज़ाद किया गया, तो फिर मनोज को रिहाई क्यों नहीं मिली?


 खानापूर्ति के लिए राज्य सरकार, राज्य सलाहकार बोर्ड, ज़िला सलाहकार बोर्ड, राज्य एवं ज़िला बाल संरक्षण इकाई जैसी कई संस्थाएं गठित की गई हैं, लेकिन सभी अपनी ज़िम्मेदारी को दूसरे के सिर डाल कर पल्ला झाड़ लेती हैं. इन सबका अब तक का यही काम है कि इन्होंने 10 वर्षों में मात्र तीन किशोर बंदी रिहा कराए हैं. इसके अलावा अन्य विचाराधीन किशोर बंदियों को रिहाई कब नसीब होगी, इसका जवाब किसी के पास नहीं है. मामला स़िर्फ इस तरह के ज़ुर्म में सजायाफ्ता किशोर बंदियों का ही नहीं है, बल्कि उनका भी है, जो अन्य कई मामलों में जेल में बंद हैं. दहेज उत्पीड़न के मामलों (डाउरी एक्ट 498 ए) में परिवार समेत उन दुधमुंहे बच्चों को भी जेल में डाल दिया जाता है, जो 18 साल तो क्या, 18 महीनों के भी नहीं होते. तो क्या तब किशोर न्याय अधिनियम की खुलेआम धज्जियां नहीं उड़तीं? हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक़, भागलपुर के महिला कारा मंडल में महिला क़ैदियों की संख्या 73, सजायाफ्ता क़ैदी 54, विचाराधीन 19 और उनके साथ 8 बच्चे भी शामिल हैं. ग़ौरतलब है कि इनमें से ज़्यादातर बच्चे दहेज उत्पीड़न मामले में ही परिवार के साथ बंदी हैं. अब इसमें इन बच्चों का क्या कसूर है?