बचपन से ही विकलांगता से अभिशप्त लोग हमेशा किसी अन्य की मदद के मोहताज रहते हैं. उनके लिए न कोई सरकारी योजनाएं बनाई जाती हैं और न उन्हें सहारा देने के लिए परिवारीजन ही आगे आते हैं. ऐसे में उनका जीवन अभिशप्तता के उस जाल में उलझ जाता है, जिससे बाहर निकलना उनके लिए नामुमकिन होता है. ऐसे में मोरारका फाउंडेशन की महत्वाकांक्षी सोलर लालटेन परियोजना उम्मीद की किरण लिए पूरे परिदृश्य को किस तरह बदल रही है, यह बताने की शुरुआत हम नवलगढ़ के घोड़ीवारा से करते हैं.
ऊपरी तौर पर तो यह एक सामान्य गांव की परिभाषा गढ़ता दिखाई देता है, लेकिन जब हम इस गांव की नीलम कंवर की दास्तां सुनते हैं तो एक नई और अनोखी तस्वीर दिखाई देती है. नीलम कंवर के पास न तो ज़मीन का कोई टुकड़ा है और न परिवार चलाने के लिए दो जून की रोटी का इंतज़ाम. उसकी मुश्किलें यहीं पर ख़त्म नहीं होती हैं. नीलम अब तक एक आशियाने के लिए तरस रही है और इससे भी बड़ा घाव विकलांगता का. वह बचपन से ही पोलियोग्रस्त है. ऐसे में उसका दु:ख-दर्द हर कोई समझ सकता है, पर यहां कहानी त्रासदी और अभिशाप की नहीं, बल्कि उस वरदान की है, जो उसे मोरारका फाउंडेशन से इस योजना के रूप में मिला है. नीलम की ज़िंदगी में मोरारका फाउंडेशन ने ख़ुशहाली की दस्तक दी है.
दरअसल मोरारका फाउंडेशन ने विकलांग युवाओं के लिए सौर ऊर्जा के इस्तेमाल और उसे रोज़गार का माध्यम बनाने की एक योजना बनाई, जिसके तहत नीलम का चयन हुआ. ग़रीबी, विकलांगता और बेरोज़गारी की मार जिन लोगों पर पड़ती है, उनके लिए एक ख़ुशहाल जीवन की कल्पना करना बेमानी हो जाता है, लेकिन अगर सोच सही हो और सच्चे मन से प्रयास किया जाए तो बदहाल ज़िंदगी को भी ख़ुशहाल बनाया जा सकता है. शेखावाटी के बेरोज़गार एवं विकलांग युवकों को ही लें, कल तक ज़िंदगी इनके लिए बदरंग और अंधकारमय थी, लेकिन मोरारका फाउंडेशन के एक प्रयास ने इनकी ज़िंदगी में इंद्रधनुषी रंग भर दिए और रोशनी भी. योजना के अंतर्गत फाउंडेशन की ओर से नीलम को एक सौर ऊर्जा पैनल दिया गया और 25 सौर ऊर्जा चालित लालटेन. नीलम को सौर ऊर्जा लालटेन के बारे में बाकायदा प्रशिक्षण भी दिया गया. इससे उसे न स़िर्फ रोज़गार मिला है, बल्कि घोड़ीवारा के आसपास के गांवों के लोगों को भी अंधेरे से निजात मिल गई. इलाक़े के ज़्यादातर गांवों में बिजली आपूर्ति नियमित नहीं है, इसलिए छात्र और किसान नीलम से सौर ऊर्जा चालित लालटेन किराए पर ले जाते हैं. दुकानों के अलावा शादियों-समारोहों के सीजन में भी सौर लालटेनों की मांग बढ़ जाती है. इसके एवज में नीलम को प्रति लालटेन एक रात के 10 रुपये मिल जाते हैं.
नीलम के मुताबिक़, वह लालटेन किराए पर देकर हर महीने लगभग दो हज़ार रुपये कमा लेती हैं. इसके साथ ही नीलम सौर ऊर्जा के उपयोग से संबंधित जानकारी जुटाकर गांव के लोगों को जागरूक भी कर रही हैं. अगर कोई नीलम से उनकी मुश्किलों के बारे में पूछता है तो वह उसे अपनी इस क़ामयाबी की दास्तां सुना देती हैं. नीलम बताती हैं कि फाउंडेशन की इस पहल ने किस तरह उनके जीवन के अभिशापों को वरदान में तब्दील कर दिया. मोरारका फाउंडेशन का यह कारवां कटरथला में नहीं रुकता. यह एक गांव से दूसरे गांव होते हुए हर उस असहाय युवक-युवती तक पहुंचता है, जिसे सहारे और आत्मनिर्भरता की ज़रूरत है. इसी उद्देश्य से इस बार यह कारवां जा पहुंचा कोलसिया गांव में. इस गांव के राधेश्याम की कहानी नीलम और कालू से अलग नहीं है. राधेश्याम भी पोलियो की चपेट में है. पिता का साया सिर से उठ चुका है. इससे उसकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई. शेखावाटी की नवलगढ़ तहसील के कटरथला गांव निवासी कालू भाट की कहानी भी नीलम जैसी है. कालू भी बचपन से ही विकलांग है. ज़िम्मेदारियों के नाम पर उसके परिवार में 8 सदस्य हैं. वह 9 भाई-बहनों में सबसे बड़ा है. ग़रीबी की वजह से पढ़ाई भी अधूरी रह गई थी. ज़मीन के नाम पर भी कुछ नहीं है.
पिता मज़दूरी करके किसी तरह परिवार चला रहे थे. नौ सदस्यों वाले इस परिवार के भरण-पोषण का भार कालू पर ही है. एक दौर ऐसा भी आया, जब कालू अपने इस असहाय और नीरस जीवन से तंग आकर कोई भी ़फैसला नहीं कर पा रहा था. इससे पहले कि कालू किसी नतीजे पर पहुंचता, फाउंडेशन ने अपनी इस योजना में उसे भी भागीदार बना लिया. कालू को भी एक सौर ऊर्जा पैनल दिया गया और प्रशिक्षित किया गया. अब कालू को प्रति लालटेन एक रात के 10 रुपये मिल जाते हैं. वह छात्रों को किराए में रियायत भी देता है. आज कालू अपने इस नए रोज़गार से काफी ख़ुश है. अब वह अपने परिवार की सारी ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाने के लायक़ हो गया है. आत्मनिर्भर हो चुका कालू अपनी इस नई ज़िंदगी का श्रेय मोरारका फाउंडेशन को देता है. कालू के जीवन का उजाला पूरे परिवार को रोशन कर रहा है. लालटेन को किराए पर देने से कालू को जो आय होती है, उससे वह अपने भाई-बहनों को पढ़ाता है. वह चाहता है कि उसका परिवार उसी की तरह अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे. फाउंडेशन को धन्यवाद देते हुए कालू की मां बनारसी कहती हैं कि इन लोगों ने हमारी बहुत मदद की, अब हम बहुत ख़ुश हैं. मोरारका फाउंडेशन का यह कारवां कटरथला में नहीं रुकता. यह एक गांव से दूसरे गांव होते हुए हर उस असहाय युवक-युवती तक पहुंचता है, जिसे सहारे और आत्मनिर्भरता की ज़रूरत है.
इसी उद्देश्य से इस बार यह कारवां जा पहुंचा कोलसिया गांव में. इस गांव के राधेश्याम की कहानी नीलम और कालू से अलग नहीं है. राधेश्याम भी पोलियो की चपेट में है. पिता का साया सिर से उठ चुका है. इससे उसकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई. कहने के लिए तो राधेश्याम दसवीं पास है, लेकिन यह आज के स्पर्धा भरे युग में कोई बहुत बड़ी डिग्री नहीं है. नतीजतन, वह बेरोज़गारी की मार का शिकार था. पांच बहनों और मां की ज़िम्मेदारी भी विकलांग राधेश्याम पर है. अपने दोनों पैर गंवा चुके राधेश्याम के कंधों पर इतनी सारी ज़िम्मेदारियों का बोझ है कि अच्छा- खासा कमाने वाला भी हार मान जाए, लेकिन इससे पहले कि उसे किसी विषम परिस्थिति का सामना करना पड़ता, मोरारका फाउंडेशन की इस महत्वाकांक्षी योजना ने उसके जीवन में दस्तक दी. यही दस्तक राधेश्याम को एक मुकम्मल मंजिल तक ले गई. सौर लैंप योजना के तहत राधेश्याम को भी 25 सौर लालटेन और एक सौर ऊर्जा पैनल मिला. इसके अलावा इस बात को ध्यान में रखते हुए कि विकलांगता उसकी पढ़ाई के रास्ते में रोड़ा न बने, फाउंडेशन ने उसे ट्राई साइकिल दी.
अब वह आसानी से कहीं भी आ-जा सकता है. फाउंडेशन के प्रयासों का नतीजा है कि आज राधेश्याम बाकायदा स्कूल जाकर अपनी पढ़ाई पूरी कर रहा है. पढ़ाई के साथ-साथ वह लालटेन किराए पर देता है, जिससे उसे हर माह लगभग दो-तीन हज़ार रुपये की आमदनी हो जाती है और वह न स़िर्फ अपने परिवार का भरण-पोषण आसानी से कर लेता है, बल्कि स्वाभिमान के साथ अपनी ज़िंदगी बसर कर रहा है. जाहिर है, अब उसे मदद के लिए किसी का मुंह नहीं ताकना पड़ता. मोरारका फाउंडेशन की इस विकास यात्रा के तीन प्रमुख नायक नीलम कंवर, कालू भाट और राधेश्याम आज मिसाल बनकर पूरे नवलगढ़ में चर्चा का विषय बने हुए हैं. लोग आज तीनों की बदली हुई ज़िंदगी देखकर हैरान हैं और ख़ुश भी.
इन तीनों की आंखों में एक बेहतर भविष्य का जो सपना पल रहा था, उसे साकार किया एम आर मोरारका फाउंडेशन ने. फाउंडेशन ने अपने इस प्रयोग की सफलता को देखते हुए आसपास के गांवों में भी नीलम, राधेश्याम और कालू जैसे युवाओं को आत्मनिर्भर बनाने की मुहिम शुरू कर दी है. इसके लिए इन तीनों के इस नए रोज़गार का प्रचार किया जा रहा है, पर्चे आदि बांटे जा रहे हैं, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग इस योजना से लाभांवित हों. इतना ही नहीं, अब तो नवलगढ़ तहसील के सभी गांवों को सौर ऊर्जा क्षेत्र बनाए जाने पर विचार किया जा रहा है. मोरारका फाउंडेशन ने अपने अभियान के ज़रिए कई और विकासपरक कार्य किए हैं. पहला काम यह कि बेरोज़गार एवं विकलांग युवाओं को रोज़गार दिलाना. दूसरा, उन लोगों का नज़रिया बदलना, जो अपनी शारीरिक अक्षमता को अभिशाप समझते हैं. इसके अलावा सौर ऊर्जा को रोज़गार के साधन में बदलने का काम एक नसीहत है उन सभी ग्रामीण क्षेत्रों के लिए, जहां आज भी बिजली की व्यवस्था नहीं है.
शाम होते ही अंधेरे के आगोश में लुप्त हो जाने वाले इन गांवों में अगर यह योजना लागू की जाती है तो न स़िर्फ वहां रोशनी फैलेगी, बल्कि हर गांव के कालू, नीलम और राधेश्याम जैसे विकलांग, बेरोज़गार और बेसहारा लोगों को अपने पैरों पर खड़े होने में मदद भी मिलेगी.
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