Friday, May 27, 2011

सिर्फ छह महीने में पता चल जाएगाः ममता सफल होंगी या असफल मुख्यमंत्री



जनता ने तो सत्ता का पोरिवर्तन कर दिया है, अब पोरिवर्तन करने की बारी ममता बनर्जी की है. अकेले दम पर लगभग दो तिहाई सीटें बटोरने के बाद भी अगर ममता बनर्जी कांग्रेस को सरकार में शामिल होने का न्योता देती हैं तो इसे सिर्फ उनकी भलमनसाहत या कहें कि गठबंधन धर्म निभाने की बात नहीं माना जाना चाहिए. वैसे भी राजनीति में भलमनसाहत जैसे शब्दों के लिए जगह नहीं होती. पश्चिम बंगाल में सालों तक विपक्ष की भूमिका निभाने वाली ममता बनर्जी को यह अच्छी तरह मालूम है कि जनता ने जो पोरिवर्तन किया है, वह महज 34 साल पुरानी सत्ता की वजह से ही नहीं किया है. जनता ने यह बदलाव इस आशा के साथ भी किया है कि ममता अब उनकी जिंदगी और पश्चिम बंगाल का पोरिवर्तन करेंगी. पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आबादी लगभग 25 फीसदी से भी ज्यादा है, लेकिन उसकी सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक हालत क्या है, यह सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट देखकर पता चल जाता है. लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय के हित से जुड़े सबसे अहम मुद्दे यानी रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट पर तृणमूल का रुख अब तक साफ नहीं हो सका है.

 यह रिपोर्ट, अल्पसंख्यक समुदाय में भी जो वंचित तबका है, उसे शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरी में आरक्षण देने की बात कहती है. जाहिर है, ममता के लिए यह भारी जीत एक भारी जिम्मेदारी भी साथ लेकर आई है. अपने प्रचार के दौरान तृणमूल ने वामपंथियों पर यह आरोप भी लगाया कि उनके 34 सालों के शासन में राज्य में 72 हज़ार छोटी-बड़ी औद्योगिक इकाइयां बंद हुईं. सिर्फ हावड़ा में 12 हज़ार कल-कारखाने बंद हो गए. नतीजतन, बेरोजगारी बढ़ी, लेकिन जब वाममोर्चा की सरकार ने नंदीग्राम और सिंगूर में उद्योग लगवाने की कोशिश की तो ममता बनर्जी ने इसका जमकर विरोध किया. इस मुद्दे पर कि किसानों से जबरन जमीन छीनी जा रही है. लेकिन अब ममता सत्ता में हैं और वामपंथी विपक्ष में. सवाल यह है कि अब ममता बंगाल में उद्योगपतियों को कैसे बुला पाएंगी, कैसे और किन नीतियों के आधार पर जमीन का अधिग्रहण करेंगी, क्या वह लगभग सवा सौ साल पुराने भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव करने के लिए यूपीए सरकार पर दबाव बनाएंगी? दूसरी ओर, नक्सलवाद को लेकर तृणमूल का जो रुख रहा है और जिस तरह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर नक्सलवादियों ने तृणमूल का समर्थन किया है, उसे देखते हुए ममता बनर्जी के समक्ष इस समस्या का समाधान निकालना एक बहुत बड़ी चुनौती है. जाहिर है, यह मुद्दा भी तृणमूल के लिए एक भारी टास्क साबित होने वाला है.

गौरतलब है कि जमीन पर अधिकार न होना और रोजगार के घटते अवसर जैसी वजहों ने भी नक्सल समस्या को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई. ऐसे हालात में बंगाल के औद्योगिक विकास का खाका तैयार करना ममता बनर्जी के लिए दोधारी तलवार पर चलने जैसा होगा, क्योंकि यह मामला सीधे-सीधे रोजगार और जमीन से जुड़ा है और जनता इनमें से किसी एक को पाने के लिए दूसरे को खोना नहीं चाहेगी. इसके अलावा पश्चिम बंगाल के युवाओं की एक बड़ी संख्या (करोड़ों में) ने इस चुनाव में तृणमूल का समर्थन किया है. बेरोजगारी से त्रस्त इस युवा ऊर्जा का इस्तेमाल ममता बनर्जी कैसे करेंगी, कहां और किस रचनात्मक कार्य में? इस चुनाव में पश्चिम बंगाल के अल्पसंख्यक समुदाय ने भी तृणमूल का आंख मूंदकर समर्थन किया है. यहां मुस्लिम आबादी लगभग 25 फीसदी से भी ज्यादा है, लेकिन उसकी सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक हालत क्या है, यह सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट देखकर पता चल जाता है. सरकारी नौकरी में इस समुदाय की हिस्सेदारी महज 2.1 फीसदी है. ममता बनर्जी ने वैसे तो अपने घोषणापत्र में अल्पसंख्यकों के लिए नए मदरसों और एक विश्वविद्यालय की स्थापना की  बात कही है, लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय के हित से जुड़े सबसे अहम मुद्दे यानी रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट पर तृणमूल का रुख अब तक साफ नहीं हो सका है. यह रिपोर्ट, अल्पसंख्यक समुदाय में भी जो वंचित तबका है, उसे शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरी में आरक्षण देने की बात कहती है. यूपीए गठबंधन में शामिल तृणमूल कांग्रेस की ओर से अब तक इस रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू कराने के लिए न तो कोई दबाव बनाया गया और न कोई पहल होती दिखी. जाहिर है, तृणमूल को इस मसले पर अपना पक्ष साफ करना चाहिए. न सिर्फ इतना, बल्कि इस रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू कराने के लिए एक नई पहल भी करनी चाहिए. तृणमूल ने अपने घोषणापत्र में कहा था कि सत्ता में आने के सौ दिनों के भीतर पश्चिम बंगाल में शासन-प्रशासन की कार्यप्रणाली बदल दी जाएगी और लोगों को अंतर दिखने लगेगा.


इसके अलावा तृणमूल ने सत्ता मिलने के बाद अगले 200 दिनों का एजेंडा भी पहले से तय कर लिया था, जिसमें कोलकाता को अंतरराष्ट्रीय वित्तीय केंद्र बनाने की योजना शामिल है. साथ ही नए मेडिकल कॉलेज, मदरसे, मुस्लिम विश्वविद्यालय, हिंदी स्कूल और 300 नए आईआईटी खोलने की बात है, दार्जिलिंग एवं जंगल महल के लिए विशेष विकास योजना बनाने की बात है, सार्वजनिक क्षेत्र के बंद कारखानों को फिर चालू करना और नए कारखाने खोलने की बात है, लेकिन सवाल उठता है कि क्या ममता बनर्जी ये सारे काम महज़ 200 दिनों के भीतर कर पाएंगी? क्योंकि विकास का जो खाका इस एजेंडे में दिख रहा है, उसके लिए एक बेहतर बुनियादी संरचना मसलन, बिजली, सड़क, बेहतर कानून-व्यवस्था की दरकार होगी. बिहार का उदाहरण बताता है कि नीतीश कुमार को सिर्फ सड़कों का जाल बिछाने में ही पांच साल लग गए. वह भी काम अभी अधूरा है. बिजली की स्थिति अभी भी बिहार में नहीं सुधर सकी है. कहने का मतलब यह कि एक बीमारू प्रदेश को फिर से पटरी पर लाने में काफी लंबा समय लगता है. ऐसे में ममता बनर्जी पर दबाव अधिक होगा.


 जाहिर है, ममता बनर्जी को अपने पास उपलब्ध संसाधनों और विकास का जो स्वप्न उन्होंने जनता को दिखाया है, के बीच के गहरे अंतर का अंदाजा है. यही वजह है कि जब बात सरकार गठन और उसमें शामिल होने के लिए कांग्रेस को निमंत्रण देने की आई, तो यह समझना मुश्किल नहीं था कि ममता ने यह कदम क्यों उठाया, क्योंकि वह उस अंतर को कम करने के लिए केंद्र सरकार यानी कांग्रेस की मदद भी चाहती हैं. बहरहाल, पश्चिम बंगाल की जनता को अब पोरिवर्तन का इंतजार है, जिसकी जिम्मेदारी ममता बनर्जी को निभानी है.

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