Thursday, May 19, 2011

सौरभ की वापसी के मायने



बंगाल टाइगर, दादा, बाबू मोशाय और सौरव गांगुली, ये सारे नाम उस शख्स के हैं, जिसका एक दौर में भारतीय क्रिकेट पर ऐसा दबदबा था कि लोग बोलते थे कि यह भारतीय क्रिकेट टीम का अब तक का सबसे सफल और शानदार कप्तान है. लेकिन यह उगता हुआ सूरज इतनी जल्दी अस्त होगा, ऐसा किसी ने सोचा नहीं था. अर्श से फर्श और फर्श से अर्श तक के स़फर के सही मायने दादा से बेहतर कोई और नहीं समझ सकता है.

 कप्तानी से हटने के बाद फर्श तक पहुंचना और कमेंट्री करने से लेकर आईपीएल 4 के अंतिम दौर में बतौर उपकप्तान वापसी करना, फिर से अर्श तक पहुंचने की जद्दोजहद की अजीब दास्तां है. कल तक युवराज जैसे कई युवा प्रतिभाओं को निखारने वाला यह खिलाड़ी आज उसी की कप्तानी में खेलने को मजबूर है. इसे मजबूरी कहें या सीमित विकल्प, लेकिन दादा खुद को किस किनारे स्थापित करना चाहते हैं, इस पर संशय बरक़रार है. कभी उनके लिए कहा जाता है कि दादा अब क्रिकेट को अलविदा कहने की पोजीशन में हैं तो कभी वह आईपीएल जैसी फटा़फट  श्रंख्ला में वापसी कर अपने अंदर बचे हुए हुनर को सबके सामने लाने की कोशिश करते दिखाई देते हैं, जैसे वह यह साबित करने की कोशिश कर रहे हों वह अभी तक चुके हुए साबित नहीं हुए हैं.

 इतने बड़े क्रिकेटर की वापसी क्या ऐसी होनी चाहिए थी. क्या सौरव अब इतने मजबूर हो गए हैं कि उन्हें किसी के रहमो-करम की ज़रूरत है. जब उन्हें शुरुआत में आईपीएल में शामिल करने के लायक़ नहीं समझा गया तो अब उन्हें शामिल नहीं होना चाहिए था. पुणे वारियर्स के टीम निदेशक अभिजीत सरकार ने कहा कि गांगुली को लेना कोई जुआ नहीं है. उन्होंने कहा कि भारत में गांगुली जैसा क्रिकेट का जानकार कोई और नहीं है और वह अपनी उपयोगिता साबित कर देंगे. अजीब बात है, अभिजीत सरकार को उनकी उपयोगिता इतनी जल्दी समझ में आ गई. लगता है, यह बात नेशनल टीम के चयनकर्ताओं को नहीं सूझी. जब वर्ल्ड कप के दौरान सौरव कमेंट्री कर रहे थे, उस व़क्त सब ठीक नहीं था, क्योंकि उससे पहले ही आईपीएल 4 के संभावित खिलाड़ियों की सूची में उनका नाम नहीं था. पहले और तीसरे सत्र में कोलकाता नाइट राइडर्स के कप्तान रहे गांगुली को 10 में से किसी फ्रेंचाइजी ने नीलामी में नहीं खरीदा था. फिर अचानक से सहारा पुणे वारियर्स उन्हें आईपीएल के अंतिम दौर में शामिल करता है. यहीं पर मामला अटक जाता है. आ़िखर उस प्लेयर का क़द इसी बात से मापा जा सकता है कि जिस पर किसी ने भी बोली न लगाई हो, उसे मजबूरी में कहें या फिर ज़रूरत पड़ने पर शामिल किया जाता है. क्या इस क़द में दादा फिट बैठते हैं.

हालांकि यहां पर इस बात पर ग़ौर कर सकते हैं कि दादा ने इस चयन पर खुद अपनी स्वीकृति दी है. अब दादा ने यह फैसला किस तरह लिया है, यह तो वह ही बता सकते हैं, लेकिन प्रशंसकों और उनके आलोचकों के लिए यह चर्चा का विषय ज़रूर हो सकता है कि क्या उन्हें क्रिकेट खेलने की चाह ने इस फैसले पर हांमी भरने को प्रेरित किया, या फिर आईपीएल में मिलने वाली रक़म ने. इतना तो तय है कि यह फैसला उन्होंने देश के लिए खेलने की खातिर तो लिया नहीं है, क्योंकि देश के लिए खेलने की चाहत को आईपीएल में खेलने से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता. हर खिलाड़ी का सपना होता है कि वह एक दिन देश के  लिए खेले. देश के  लिए खेलने की चाहत में कहीं न कहीं गर्व और देशभक्ति की भावना जुड़ी रहती है और ऐसे में यदि कोई फिट खिलाड़ी 40 की उम्र में भी राष्ट्रीय टीम में शामिल होने के  लिए कोशिश करता है तो तब उसकी भावनाओं को समझा जा सकता है. लेकिन यहां आईपीएल में गर्व और देशभक्ति जैसी कोई बात नहीं जुड़ी है. आप यहां एक शहर की किसी फ्रेंचाइजी के लिए खेलते हैं. और तो और कई खिलाड़ियों के जन्म स्थान और फ्रेंचाइजी टीम में कोई रिश्ता भी नहीं है. बहरहाल दादा ने युवराज की कप्तानी में उस टीम की ओर से खेलने का फैसला लिया जो पहले से ही प्वाइंट रैंकिंग में फिसड्डी बनी हुई है.


 पुणे की डूबती नैया को पार लगाने के लिए अब टीम में उन्हें शामिल किया गया है, लेकिन चोटी की टीम को मात देने के लिए टीम को हर दृष्टि से बेहतरीन प्रदर्शन करना होगा, जो वारियर्स के लिए इतना आसान नहीं होगा. इस टीम ने टूर्नामेंट में अब तक शुरुआती दो मैचों को छोड़कर लगभग सभी में हार का मुंह देखा है. हालांकि दादा मुंबई इंडियंस के  खिला़फ हुए मैच में मैदान पर नहीं उतरे. उस मैच में भी पुणे को मुंबई के हाथों पिटना पड़ा. युवराज सिंह की कप्तानी वाली पुणे वारियर्स लगातार छह मैच हारकर टूर्नामेंट से बाहर होने की कगार पर है. फ्रेंचाइजी को उम्मीद है कि अपार अनुभव रखने वाले गांगुली के आने से उनकी बल्लेबाज़ी मज़बूत होगी. पुणे वारियर्स के टीम निदेशक अभिजीत सरकार ने कहा कि गांगुली को लेना कोई जुआ नहीं है. उन्होंने कहा कि भारत में गांगुली जैसा क्रिकेट का जानकार कोई और नहीं है और वह अपनी उपयोगिता साबित कर देंगे. अजीब बात है, अभिजीत सरकार को उनकी उपयोगिता इतनी जल्दी समझ में आ गई. लगता है, यह बात नेशनल टीम के चयनकर्ताओं को नहीं सूझी. हालांकि यह पहला मौक़ा नहीं है जब दादा को इस तरह से दरकिनार कर टीम से बाहर किया गया हो. इससे पहले भी कप्तान सौरव गांगुली को अच्छे प्रदर्शन के बावजूद एक दिवसीय टीम से बाहर किया गया था. इस बात का दर्द उन्हें अब भी सालता है.

 एक दिवसीय टीम से बाहर किए जाने के बारे में यदि गांगुली से कोई पत्रकार ज़रा सा भी कुछ पूछता है तो उनके दिल का दर्द जैसे बाहर निकल आता है और वह अपने मन की बात दबा नहीं पाते हैं. गांगुली कहते थे किमैं नहीं जानता कि वनडे टीम में वापसी के लिए आ़िखर क्या करूं. वह यह भी कहते थे कि मुझे यह भी नहीं पता कि इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) में अच्छा प्रदर्शन करने पर क्या मुझे भारतीय वनडे टीम में जगह मिल पाएगी. उनका मानना था कि फॉर्म में होने के बावजूद उन्हें ऑस्ट्रेेलिया में हुई एक दिवसीय मैचों की कॉमनवेल्थ बैंक सीरीज के लिए चुनी गई भारतीय टीम से हटा दिया गया था. उन्होंने कहा कि एक साल में क़रीब 1300 रन बनाने के बावजूद मुझे टीम में जगह नहीं दी गई. यह बात तब की है जब दादा को बुरी तरह से घेरकर टीम से बाहर का रास्ता दिखाया गया था, लेकिन उसके बाद उनके जख्मों पर मलहम लगाते हुए शाहरु़ख ने अपनी कोलकाता नाइट राइडर्स में उन्हें बतौर कप्तान चुना. ऐसा लगा जैसे इस बार दादा ज़ोरदार वापसी करेंगे, लेकिन शुरुआत में सब ठीक चलने के बाद अचानक पता नहीं क्या हुआ कि चौथे सीजन से उनका पत्ता सा़फ हो गया. सबसे गंभीर बात तो यही थी कि किसी भी फे्रंचाइजी ने उन पर भरोसा नहीं जताया. सरकार कहते हैं कि वह पैसे के लिए आईपीएल नहीं खेल रहे हैं, बल्कि उन्हें कुछ साबित करना है. वह का़फी सम्मान के  हक़दार हैं, लेकिन उनके साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया गया. वह यह भी कहते हैं कि उनकी टीम कई खिलाड़ियों की फिटनेस समस्या से जूझ रही है. लिहाज़ा उन्होंने गांगुली के बारे में सोचा.

टूर्नामेंट की शुरुआत में ही एंजेलो मैथ्यूज बाहर हो गए जो सर्वश्रेष्ठ ऑल राउंडर थे. आस्ट्रेलियाई टी 20 के उपकप्तान टिम पेन, दक्षिण अफ्रीकी कप्तान ग्रीम स्मिथ भी चोटिल हैं. आशीष नेहरा भी फिट नहीं है. हम नेहरा की फिटनेस रिपोर्ट का इंतज़ार कर रहे थे. टीम प्रबंधन का मानना है कि गांगुली सर्वश्रेष्ठ उपलब्ध विकल्प हैं. वह जुझारू हैं और वापसी के बादशाह भी. हमें यक़ीन है कि वह अपनी उपयोगिता साबित करेंगे. इससे पहले दादा को लेकर आईपीएल में अटकलों का बाज़ार का़फी गर्म था. कहा जा रहा था कि वह कोलकाता की टीम में बतौर कोच भी हिस्सेदारी ले सकते हैं, लेकिन इस बात से सभी वाक़ि़फ थे कि कल तक एक-दूसरे को गले लगाकर खेलबो लड़बो, जीतबो एंथम गाने वाले दादा और शाहरु़ख के बीच अब पहले जैसी बात नहीं रही है. दोनों की दोस्ती में दरार तभी पड़ गई थी जब दो बार कोलकाता नाइट राइडर्स की कप्तानी करने के बाद आईपीएल के चौथे संस्करण में शाहरु़ख ने दादा को अपनी टीम में शामिल करने के लायक़ ही नहीं समझा. आपको याद होगा कि इस बात पर बंगाल में दादा के प्रशंसकों ने शाहरु़ख के िखला़फ जमकर प्रदर्शन भी किया था. इसके अलावा एक खास तबक़े में भीदादा को दोबारा कोलकाता में न शामिल करने के कारण शाहरु़ख को का़फी लोगों की आलोचना सहनी पड़ी थी. हालांकि इसके बाद भी शाहरु़ख दुनिया भर में इस बात का ढोल पीटते रहे कि दादा आज भी उनके क़रीब हैं, लेकिन सच्चाई क्या है, यह सभी जानते हैं. कुछ वरिष्ठ खिलाड़ी सौरव के इस फैसले पर कुछ अलग ही राय रखते हैं.


कुछ लोगोंे का मानना है कि नीलामी में नहीं खरीदे जाने के बाद गांगुली ने खिलाड़ी के तौर पर इसे अपने क्रिकेट करियर का अंत मान लिया होगा, लेकिन उसके बाद जब अचानक उन्हें पुणे में शामिल होने का ऑफर मिला तो उन्होंने इसे एक मौक़े के तौर पर लिया होगा यानि उन्हें अब फिर नए सिरे से शुरुआत करनी होगी. उन्हें उस टीम की नैया पार लगाने की ज़िम्मेदारी दी गई है, जो लगभग डूबने की कगार पर है. फ्रेंचाइजी और गांगुली ने सोच समझ कर निर्णय लिया होगा, लेकिन इस फैसले ने मन में कई सवाल खड़े कर दिए हैं. अपना बेहतरीन क्रिकेट खेल चुकने और क्रिकेट से बहुत दिनों दूर रहने के  बाद वापस इससे जुड़ना क्या बद्धिमत्ता वाला निर्णय कहा जा सकता है? सौरव को बांग्लादेश क्रिकेट बोर्ड ने उनकी टीम के बल्लेबाज़ी कोच बनने का प्रस्ताव दिया है. बांग्लादेश बोर्ड ने इस खबर की पुष्टि भी कर दी है कि वह दादा को अपने साथ जोड़ना चाहते हैं. जल्द ही वह दादा को एक औपचारिक पत्र भेजेंगे. बांग्लादेश बोर्ड के चेयरमैन मोहम्मद जलाल यूनुस के मुताबिक़ वह दादा की क़ाबिलियत का लाभ उठाना चाहते हैं. इससे पहले क़यास लगाए जा रहे थे कि वह कोच्चि टीम की कप्तानी संभाल सकते हैं. उनका यह सपना सच भी हो जाता अगर श्रीलंका के खिलाड़ी वापस अपने देश लौट जाते. इस पूरे घटनाक्रम में स़िर्फ एक बात पोजिटिव यह रही कि अब दादा के प्रशंसक एक बार फिर से उन्हें मैदान में देख सकेंगे. आ़िखरकार लंबे समय से लग रहे सभी क़यासों पर विराम लगा है.

इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि सौरव के टीम में शामिल होने से पुणे टीम में अनुभव की कमी दूर हो सकती है, लेकिन ऐसा नहीं लगता कि सहारा को यह फैसला लेने में कुछ ज़्यादा ही व़क्त लग गया. इसके अलावा जिस तरह का रवैया दादा को लेकर अब तक अपनाया जाता रहा है, उसे देखते हुए तो दादा को इतनी जल्दी फैसला नहीं लेना चाहिए था, क्योंकि पता नहीं कब शाहरु़ख की तरह सहारा भी किसी सीजन में उनसे अपना पल्ला झाड़ ले, तब दादा कहां जाएंगे.

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