Wednesday, August 31, 2011

हार का ठीकरा किसके सिर


अब टीम इंडिया इंग्लैंड के साथ अपने आख़िरी टेस्ट मैच का अंजाम चाहे जो भी देखे, लेकिन 3-0 की हार से हुआ आगाज़ यह बताने के लिए काफी है कि भारतीय क्रिकेट टीम की न तो लाज बची है और न ताज. ताज तो उसने अपने शर्मनाक प्रर्दशन के साथ ही गंवा दिया था, लेकिन लाज गंवाई उसने हार का ठीकरा बेमतलब की बातों पर फोड़कर. सीधे-सीधे अपने अति आत्मविश्वास और लचर प्रदर्शन को हार का ज़िम्मेदार न मानते हुए धोनी वही पुराने डायलाग्स दोहराते नज़र आए. कभी कहते हैं कि किसी भी टीम के लिए हर मैच जीतना आसान नहीं है और कभी कहते हैं कि हम लोगों ने काफी समय से इतना क्रिकेट खेला है कि आराम करने का मौक़ा ही नहीं मिला. वहीं कुछ लोग टीम की हार का ठीकरा कोच फ्लेचर के सिर फो़ड रहे हैं. ताज्जुब की बात है कि जब टीम कोई बड़ा मैच जीतती है तो कोच को जीत का उतना हिस्सेदार नहीं माना जाता, जितना हार का. ख़ैर, अगर हम धोनी की इन बातों को तार्किक भी ठहराएं तो यह बात समझ के बाहर है कि टीम इंडिया इतने बड़े अंतर से कैसे हार गई. नंबर एक की सीट पर काबिज टीम का प्रदर्शन इतना भी नहीं गिरता कि वह अपना सूपड़ा इस तरीक़े से साफ कराए. आस्ट्रेलिया का ही उदाहरण ले लीजिए. वह विश्व विजेता रह चुकी है और हारती भी है, लेकिन उसकी हार में टीम का ज़बरदस्त संघर्ष दिखाई देता है.

मैं समझ सकता हूं कि बीसीसीआई टेस्ट मैचों की शर्मनाक हार के कारणों का पता लगाना चाहता है. यह स्वागत योग्य क़दम है. मुझे उम्मीद है कि यह एकतरफा जांच नहीं होगी.

- वसीम अकरम



ग़ौर करने वाली बात है कि भारतीय टीम ने इंग्लैंड में छह पारियों में एक बार भी अपना स्कोर 300 के पार नहीं किया. इसके अलावा टीम की अधिकतर पारी 90 ओवर से कम में ही सिमट गई. मतलब टीम एक पूरे दिन भी मैदान पर टिकने में नाकाम रही. जिस टीम में सचिन, सहवाग, लक्ष्मण और द्रविड़ जैसे सूरमा हैं, वह अपनी बल्लेबाज़ी के लिए परेशान है. यह बात भी गले नहीं उतरती है. टेस्ट मैच में यह ज़रूरी होता है कि आप धैर्य के साथ पिच पर टिकें और कम से कम 90 ओवरों की बल्लेबाज़ी करें. तभी कोई टीम जीत की नींव रख पाती है. बर्मिंघम टेस्ट का ही उदाहरण लें तो एक ओर जहां भारत की पहली पारी 62.2 ओवरों तक टिकी, वहीं दूसरी पारी महज़ 55.3 ओवरों में ही सिमट गई. इसके विपरीत इंग्लैंड ने पहली ही पारी में 188 ओवर खेले. इंग्लैंड के हाथों तीसरे टेस्ट में एक पारी और 242 रनों की करारी हार के बाद भारत ने टेस्ट टीम में नंबर वन की हैसियत खो दी है. इसके  साथ ही आईसीसी टेस्ट रैंकिंग शुरू होने के बाद 32 वर्षों में इंग्लैंड पहली बार टेस्ट रैंकिंग में पहले नंबर पर पहुंचा है. लगभग 20 महीनों तक नंबर वन की रैंकिंग वाली महेंद्र सिंह धोनी की टीम एजबेस्टन टेस्ट में अपनी दूसरी पारी में भी 242 रनों पर धराशायी हो गई. जबकि खेल का एक दिन बाक़ी था. ज़रा सोचिए कि इंग्लैंड के एक खिला़डी कुक ने अकेले ही पूरी भारतीय टीम से ज़्यादा रन जोड़े. इस हार को हम हाल में किसी अन्य देश में भारत की सबसे बुरी हार के तौर पर शुमार कर सकते हैं. अगर क्रिकेट के इतिहास में थोड़ा पीछे जाकर देखें तो इससे पहले भारत को सबसे ख़राब हार का सामना वर्ष 1958 में करना पड़ा था, जब कोलकाता में वेस्टइंडीज़ ने उसे एक पारी और 336 रनों से हराया था, लेकिन उस दौरान भारतीय टीम क्रिकेट के खांचे में फिट होने की कोशिश कर रही थी, लेकिन आज के दौर में जब भारतीय क्रिकेट टीम ने दुनिया भर में कामयाबी का झंडा लहरा दिया है तो ऐसे में इतनी अपमानजनक हार क्रिकेट प्रेमी पचा नहीं पा रहे हैं.

हाल में बीसीसीआई की कार्यकारी समिति की बैठक में फैसला किया गया कि निवर्तमान अध्यक्ष शशांक मनोहर और भावी अध्यक्ष एन श्रीनिवासन हार के कारणों की जांच करेंगे. इस पर वसीम अकरम कहते हैं, मैं समझ सकता हूं कि बीसीसीआई टेस्ट मैचों की शर्मनाक हार के कारणों का पता लगाना चाहता है. यह स्वागत योग्य क़दम है. मुझे उम्मीद है कि यह एकतरफा जांच नहीं होगी. अकरम के मुताबिक़, मुझे एक बात ने चिंतित किया कि क्या भारत के पास तेंदुलकर, द्रविड़, लक्ष्मण और सहवाग जैसे खिलाड़ियों की जगह भरने के लिए कुशल खिलाड़ी हैं? रैना, कोहली और रोहित शर्मा जैसे खिलाड़ियों को अभी मीलों दूरी तय करनी है. चयनकर्ताओं के लिए यह बड़ा मुश्किल काम होगा. टीम में लगभग हर क्षेत्र में लापरवाही और कमज़ोरियां देखी गईं. चाहे वह बल्लेबाज़ी हो, क्षेत्ररक्षण, गेंदबाज़ी और मनोबल हो. इन सभी आयामों में टीम इंडिया पूरी तरह से चित्त रही. टीम की इस दुर्दशा के लिए कोच फ्लेचर भी कई मायनों में ज़िम्मेदार हैं. भारतीय क्रिकेट टीम में बतौर कोच जब गैरी क्रिस्टन शामिल थे, तब टीम अपने स्वर्णिम दौर से गुजर रही थी. जबसे कमान फ्लेचर ने संभाली है, टीम इंडिया का लचर प्रदर्शन दिखा है. यह संयोग भी हो सकता है, लेकिन कुछ तर्क ऐसे हैं, जिनके आधार पर फ्लेचर को टीम इंडिया की इस दुर्दशा का ज़िम्मेदार मान सकते हैं. मसलन उनका एक बयान, जिसमें उन्होंने टीम इंडिया की हार के लिए पिच को ज़िम्मेदार ठहराया. ग़ौरतलब है कि लॉर्ड्स और नॉटिंघम के बाद एजबेस्टन में भी भारतीय बल्लेबाज़ों के फ्लॉप शो के  बाद फ्लेचर ने कहा था कि इसके लिए इंग्लैंड की तेज पिचें ज़िम्मेदार हैं, लेकिन क्या वाकई में ऐसा है? इस बात से सभी वाक़ि़फ हैं कि फ्लेचर इंग्लैंड टीम के साथ आठ साल गुजार चुके हैं. अब किसी भी देश में इतना व़क्त बिताने के बाद अगर कोई कोच यह कहता है कि हम वहां की पिच और परिस्थितियों से वाक़ि़फ नहीं हैं तो थोड़ा ताज्जुब होता है. ऐसा नहीं था कि टीम ने ऐसी पिचें पहली बार देखी थीं. दक्षिण अफ्रीका में भी टीम को तेज उछाल वाली पिचें मिली थीं, लेकिन तब भारतीय टीम ने अपनी रणनीति में लगातार बदलाव कर सीरीज 1-1 से ड्रा खेली थी. हैरत की बात यह है कि ख़राब पिच की दुहाई वह कोच दे रहा है, जिसने आठ साल उसी देश में गुजारे हैं. फ्लेचर के पास ब्रिटिश नागरिकता भी है. ऐसे में फ्लेचर का वहां की परिस्थितियों से वाक़ि़फ न होना शक पैदा करता है.

सच तो यह है कि टीम इंडिया पिछले कुछ समय से इस कदर जीतती आ रही है कि उसने कभी अपनी कमज़ोरियों पर ध्यान देने की ज़रूरत ही नहीं समझी. क़िस्मत और कुछ खिलाड़ियों का प्रदर्शन साथ रहा तो जीतते गए और अगर उन्होंने साथ छोड़ा तो चारों खाने चित्त. कोच के मसले को दरकिनार करके अब बात करते हैं उस जूनियर चैंपियन टीम की, जो किसी भी बहाने में यक़ीन नहीं करती है. वह तो स़िर्फ प्रदर्शन करना जानती है. वहीं सीनियर टीम इंडिया कोच, पिच और थकान को अपनी हार में बतौर ढाल इस्तेमाल कर रही है. अभी हाल में ऑस्ट्रेलिया में संपन्न हुए इमर्जिंग प्लेयर्स टूर्नामेंट में शिखर धवन की अगुवाई में खेली इंडिया इमर्जिंग प्लेयर्स टीम ने टूर्नामेंट के दोनों फॉर्मेट टी-20 और तीन दिवसीय मैचों में जीत हासिल की. इस टीम ने सीनियर टीम इंडिया में लगातार फ्लॉप हो रहे खिलाड़ियों के लिए एक संकेत दिया है कि जीत का कोई विकल्प नहीं होता है. अगर वह ऑस्ट्रेलिया जैसे कठिन वेन्यू पर टूर्नामेंट जीतने का माद्दा रख सकती है तो सीनियर टीम इंडिया को उससे सबक लेने की ज़रूरत है.

Wednesday, August 17, 2011

हॉकी सिर्फ नाम का राष्ट्रीय खेल



कहते हैं जब कोई भी संस्थान या व्यक्ति अपने पतनके दौर से गुज़रता है तो एक दिन उसका उत्थान भी होता है, यानी उतार-च़ढाव की स्थिति सब पर लागू होती है. अगर नहीं लागू होती है तो वह है हमारी भारतीय हॉकी टीम. जी हां, दुनिया में हर बदहाल संस्था और टीम के दिन बहुर सकते हैं, लेकिन भारतीय हॉकी टीम के बारे में यही कह सकते हैं कि यह फिर से कामयाबी का सवेरा शायद ही कभी देख सके. बात स़िर्फ खिताबों के जीतने की ही नहीं, बल्कि हॉकी की संस्थात्मक स़डन से है.

 आज हॉकी के अंदर और बाहर का पूरा तंत्र इस क़दर स़ड चुका है कि जब भी हॉकी से जु़डी खबर आती है तो कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर होता है जिससे हमारे राष्ट्रीय खेल की फज़ीहत हो जाती है. अंतरराष्ट्रीय मुक़ाबलों में शर्मनाक हार झेलना तो बहुत पुरानी बात हो चुकी है. अब हम अपने देश में ही आपसी ल़डाई देख रहे हैं. कभी कोच के सेक्स स्कैंडल हॉकी को शर्मसार करते हैं तो कभी खिला़डी खुद के मेहनताने को लेकर स़डक पर विरोध प्रदर्शन के लिए उतर आते हैं. इतना ही नहीं टीम के खिलाडि़यों के आपसी संबंधों पर भी विवाद होते रहते हैं. फिर डोपिंग में फंसे खिला़डी बची खुची कसर पूरी कर देते हैं. कुल मिलाकर हॉकी आज अपने निम्नतम दौर से गुज़र रही है, लेकिन मुश्किलें हैं कि फिर भी खत्म होने का नाम ही नहीं लेती हैं.

अभी ताज़ा मामला चैम्पियंस ट्रॉफी और ओलंपिक क्वालीफाइंग टूर्नामेंट की मेज़बानी को लेकर उठ रहा है. इस बात से तो सभी वाक़ि़फ हैं कि पिछले कुछ दिनों से अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ (एफआईएच), हॉकी इंडिया (एचआई) और भारतीय हॉकी महासंघ (आईएचएफ) के बीच हुए आपसी समझौते से नाराज़ चल रहा था. इस बात का अंदेशा लगाया जा रहा था कि अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ (एफआईएच) ज़रूर कोई न कोई ठोस क़दम उठाएगा, ऐसा ही हुआ. हॉकी इंडिया (एचआई) और भारतीय हॉकी महासंघ (आईएचएफ) के बीच हुए आपसी समझौते से नाराज़ अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ (एफआईएच) ने भारत से चैंपियंस ट्रॉफी और ओलंपिक क्वालीफाइंग टूर्नामेंट की मेज़बानी छीन ली है. उसके इस क़दम ने न स़िर्फ हॉकी संघ की फज़ीहत की है, बल्कि इससे देश की भी फज़ीहत होती है. दरअसल एफआईएच ने अपने बयान में कहा था कि एफआईएच भारतीय खेल मंत्रालय द्वारा एचआई और आईएचएफ के बीच कराए गए समझौते को लेकर बेहद चिंतित है.


 इसके लिए एफआईएच से सलाह लेने की भी ज़रूरत नहीं समझी गई. एचआई, आईएचएफ और खेल मंत्रालय के बीच हुए समझौते के मुताबिक़ दोनों संगठनों ने आपसी मतभेदों को भुलाकर भारतीय हॉकी के विकास के लिए साथ मिलकर काम करने फैसला किया था. ग़ौरतलब है कि एफआईएच इस बात को लेकर नाराज़ था कि एचआई ने उससे सलाह के बग़ैर आईएचएफ के साथ साझा तौर पर काम करने संबंधी समझौता किया. एफआईएच के मुताबिक़ एचआई और आईएचएफ के बीच हुआ समझौता ओलंपिक और उसके चार्टर के खिला़फ है और यही कारण है कि वह भारत से चैंपियंस ट्रॉफी और ओलंपिक  क्वालीफाइंग टूर्नामेंट की मेज़बानी छीन रहा है. ग़ौरतलब है कि दोनों आयोजन नई दिल्ली में इस वर्ष के अंत में और 2012 की शुरुआत में होने थे. ऐसा नहीं है कि यह अचानक हो गया हो. दरअसल एफआईएच ने अपने बयान में कहा था कि एफआईएच भारतीय खेल मंत्रालय द्वारा एचआई और आईएचएफ के बीच कराए गए समझौते को लेकर बेहद चिंतित है. इसके लिए एफआईएच से सलाह लेने की भी ज़रूरत नहीं समझी गई. एचआई, आईएचएफ और खेल मंत्रालय के बीच हुए समझौते के मुताबिक़ दोनों संगठनों ने आपसी मतभेदों को भुलाकर भारतीय हॉकी के विकास के लिए साथ मिलकर काम करने फैसला किया था. हालांकि घरेलू स्तर पर दोनों संगठन अलग-अलग काम करेंगे. घरेलू स्तर पर दोनों के लिए बराबर ज़िम्मेदारियां तय करने के लिए एक संयुक्त कार्यकारिणी और कार्यकारी समिति का गठन किया जाएगा. नए संगठन को राष्ट्रीय टीम के चयन, उसकी तैयारी, विदेशी आयोजनों के लिए टीमों को भेजने और राष्ट्रीय कैंप आयोजित करने का काम सौंपा जाएगा. फिलहाल यह व्यवस्था 2012 तक के लिए की गई है. इसके बाद इन संगठनों की ज़िम्मेदारियों पर फिर से विचार किया जाएगा. ज़ाहिर सी बात है कि इस फैसले से एफआईएच खुश नहीं था. उसने सा़फ कहा है कि भारत के दो हॉकी संगठनों के बीच हुआ यह समझौता उसे म़ंजूर नहीं है. एफआईएच अध्यक्ष लेनार्दो नेगरे ने खेल मंत्री अजय माकन को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने इस बात का ज़िक्र किया कि इस मामले की गंभीरता को समझते हुए एचआई और भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्षों के बीच एक बैठक कराई जाए, जिसमें एफआईएच की चिंताओं को लेकर चर्चा होनी चाहिए.


 एफआईएच ने कहा कि उसके मुताबिक़ एचआई ही भारत में हॉकी का संचालन करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था है और इस नाते उसे ही भारतीय टीम के चयन और अंतरराष्ट्रीय आयोजनों की मेज़बानी का अधिकार मिलना चाहिए. एफआईएच किसी भी हाल में आईएचएफ को मान्यता नहीं दे सकता. एफआईएच ने वर्ष 2000 में आईएचएफ की मान्यता रद्द कर दी थी. अब हो सकता है कि इस मामले पर फिर कई बैठकें हों, पर इतना तो तय है कि हॉकी की जो फज़ीहत होनी थी, वह तो हो ही गई. समझने वाली बात यह है कि यहां पर हॉकी से ज़्यादा फज़ीहत भारत की हुई है. किसी भी देश के लिए ऎन व़क्त पर म़ेजबानी का छिनना बहुत ही शर्मिंदगी भरा होता है. खैर, जो होना था वह तो हो ही गया. लेकिन दिक्क़त तो इस बात को लेकर और ब़ढ जाती है कि ऐसे मौक़े पर जहां देश की अस्मिता के लिए टीम और प्रबंधन को एकजुट होकर देश को संदेश देना चाहिए था, उल्टा वे आपस में ही उलझे हुए हैं. पिछले दिनों कुछ खिलाडियों के अभ्यास शिविर छो़डकर विश्व श्रृंखला हॉकी के लिए भारतीय हॉकी महासंघ और नियो स्पोर्ट्स के मुंबई में हुए संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में शामिल होने की वजह से पनपा विवाद भी थमने का नाम नहीं ले रहा है. पूर्व भारतीय कप्तान धनराज पिल्लै ने हॉकी इंडिया से कारण बताओ नोटिस पाने वाले पांच वरिष्ठ खिलाड़ियों को सलाह दी है कि वे भारतीय हॉकी टीम में खेलने के लिए इस संस्था के  अधिकारियों के सामने गिड़गिड़ाए नहीं. इस बात से तो सभी वाक़ि़फ है कि हॉकी इंडिया ने कुछ दिनों पहले ही पांच वरिष्ठ खिलाड़ियों अर्जुन हलप्पा, संदीप सिंह, एड्रियन डिसूजा, सरदारा सिंह और प्रभजोत सिंह को बेंगलुरु में चल रहा अभ्यास शिविर छोड़कर विश्व श्रृंखला हॉकी के लिए भारतीय हॉकी महासंघ और नियो स्पोर्ट्स के मुंबई में हुए संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में शामिल होने की वजह से कारण बताओ नोटिस जारी किया था. हॉकी इंडिया की अनुशासन समिति के अध्यक्ष परगट सिंह ने इन पांचों खिलाड़ियों को नोटिस जारी किया था.


 बस विवाद यहीं से शुरू हो गया. इस विवाद को सुलझाने के बजाय धनराज इस मामले को एक तरह से तूल देते हुए यह बयान देते हैं कि इन खिलाड़ियों को अपने देश के लिए खेलने के लिए हॉकी इंडिया के अधिकारियों के सामने नाक नहीं रगड़नी चाहिए. हालांकि धनराज ने इसके अलावा जो सवाल उठाए हैं, वे कई मायनों में तार्किक हैं, मसलन पूर्व कप्तान ने इस निर्णय और हॉकी इंडिया में बड़ा पद ले चुके अपने पूर्व टीम साथी परगट पर टिप्पणी करते हुए कहा कि एक समय परगट भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष सुरेश कलमा़डी को माफिया कहा करते थे, लेकिन जब उन्हीं के बनाए हॉकी इंडिया में जब उनके सामने अच्छे पद की पेशकश की गई तो वह सबकुछ भूलकर पद की तऱफ लपक पड़े. धनराज ने विश्व श्रृंखला हॉकी की तऱफदारी करते हुए कहा कि यह भारतीय हॉकी खिलाड़ियों के हक़ और हित में है और इसीलिए मैं इसमें शामिल हूं.

अब इन हालात में कैसे कोई उम्मीद कर सकता है कि पहले से क़ब्र में पैर लटकाए हुए इस राष्ट्रीय खेल का भला कैसे होगा. एक बात तो बिल्कुल समझ में नहीं आती है कि किसी भी देश के लिए राष्ट्रीय खेल को परिभाषित करने के लिए क्या मापदंड होते हैं. इस बात को भी दरकिनार कर दिया जाए तो यह सवाल उठता है कि क्या राष्ट्रीय खेल की इस बदहाली का ज़िम्मेदार खेल मंत्रालय और प्रशासन नहीं है. अगर इस खेल की बदहाली यूं ही जारी रही तो बहुत दुख के साथ कहना प़ड सकता कि हॉकी स़िर्फ नाम का ही राष्ट्रीय खेल रह जाएगा.

Monday, August 1, 2011

क्रिकेट, विज्ञापन और फजीहत



जब खिलाड़ियों पर सफलता और पैसे का नशा चढ़ता है तो फिर सारी नैतिकता दांव पर लग जाती है. उस दौरान यह भी ध्यान नहीं रहता है कि क्या सही और क्या ग़लत. दिखाई देता है तो स़िर्फ पैसा. उसके लिए भले ही किसी को अपमानित करना पड़े या फिर किसी को गाली ही क्यों न देनी पड़े. हाल में दो शराब कंपनियों के विज्ञापन के बाद भारतीय टीम के दो खिलाड़ियों में उपजा विवाद कुछ यही कहानी बयान करता है. अभी तक टीम इंडिया के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी और साथी खिलाड़ी हरभजन सिंह क़रीबी दोस्त के तौर जाने जाते थे लेकिन एक विज्ञापन ने इन दोनों के बीच खाई पैदा कर दी थी, जिसकी वजह से ये एक-दूसरे के खिला़फ क़ानूनी जंग पर उतर आए थे.

अब यह क़ानूनी विवाद भले ही खत्म हो गया हो, लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि खिलाड़ियों के बीच सामंजस्य का अभाव है. अगर इनमें ज़रा भी आपसी सद्भाव होता तो दोनों इस मामले को लेकर एकजुट होते और अगर ज़रूरी होता तो अनजाने में अथवा जानबूझ कर हुई इस ग़लती को सुधारने की कोशिश करते, लेकिन ये कंपनी के कर्मचारियों जैसा व्यवहार कर रहे हैं. इन्हें इस बात का ज़रा भी एहसास नहीं है कि खेल और खिलाड़ी ही इनका साथ हमेशा देंगे, न कि ये शराब बनाने वाली कंपनियां.

दरअसल, एक शराब कंपनी का विज्ञापन पिछले कुछ दिनों से टीवी पर प्रसारित हो रहा था. इसमें धोनी के अवतरित होने से पहले एक सिख युवक ब़डे-ब़डे गोले बना रहा होता है कि उसी बीच उसके पिता उसे थप्पड़ रसीद कर गाली देते हुए कहते हैं (कुछ गालियां बीप भी की जाती हैं) कि इतने ब़डे-ब़डे गोले क्यों बना रहा है तो जवाब में वह सिख युवक कहता है कि आई एम मेकिंग लार्ज…बस यहीं से धोनी कहते हैं कि ब़डा करने से कुछ नहीं होगा, कुछ अलग करो. इस बात से अब सभी वाक़ि़फ हो चुके हैं कि यह विज्ञापन हरभजन के ही विज्ञापन का स्पूफ था और थप्प़ड खाने वाला वह युवक हरभजन से मिलता-जुलता चरित्र. इस स्पूफ में मैक्डॉवेल के विज्ञापन में धोनी प्रतिद्वंद्वी कंपनी परनॉड रिकॉर्ड के ब्रांड रॉयल स्टैग के विज्ञापन में हरभजन की भूमिका का मजाक उड़ाते दिख रहे थे. बस जैसे ही यह विज्ञापन हरभजन और उनके परिवार ने देखा, उन्हें इस पर आपत्ति हो गई. हरभजन और उनके वकील देवानी एसोसिएट्स एंड कंसल्टेंट्स ने विजय माल्या की यूबी स्पिरिट्स को मैक्डॉवेल नंबर वन प्लेटिनम व्हिस्की के उस विज्ञापन के लिए नोटिस भेज दिया. इसमें कहा गया है कि मैक्डॉवेल नंबर वन का धोनी वाला विज्ञापन हरभजन, उनके परिवार और सिख समुदाय का मजाक है.

नोटिस की एक कॉपी ईटी के पास मौजूद है. इसमें सभी बड़े समाचारपत्रों और टीवी चैनलों में भज्जी के परिवार से बिना शर्त सार्वजनिक माफी मांगने के अलावा नोटिस मिलने के तीन दिन के अंदर विज्ञापन हटाने की मांग की गई थी. नोटिस में कहा गया कि यूबी अपनी प्रसारण/विज्ञापन एजेंसी को उक्त विज्ञापन का प्रसारण तुरंत रोकने का निर्देश दे. वकील श्याम देवानी के हस्ताक्षर वाले नोटिस में कहा गया था कि मेरे क्लाइंट ने आपको ग़लती मानने और संशोधन करने का मौक़ा देने के लिए नोटिस भेजा है. इसमें असफल रहने पर हमारे पास क़ानूनी कार्रवाई करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा. नोटिस खर्च के हर्जाने के तौर पर हरभजन के परिवार को एक लाख रुपये देने की भी मांग की गई है. नोटिस भज्जी की मां अवतार कौर ने भेजा था. इसमें कहा गया है कि भज्जी वाली विज्ञापन फिल्म सा़फ है, अच्छी है और इससे किसी की भावनाओं को ठेस नहीं लगती. जबकि दूसरा विज्ञापन उनके परिवार की प्रतिष्ठा और साख को नुकसान पहुंचाने वाला है.

हरभजन की ओर से भिजवाए गए क़ानूनी नोटिस के जवाब में विजय माल्या ने सा़फ कर दिया था कि वह किसी भी सूरत में विज्ञापन वापस नहीं लेंगे. माल्या ने हरभजन सिंह से किसी भी क़ीमत पर मा़फी मांगने से इंकार कर दिया था. माल्या ने कहा कि वह भज्जी के लीगल नोटिस का जवाब अब क़ानून से ही देंगे. उनका इरादा भज्जी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं था और उन्होंने अपने विज्ञापन में उनका कोई मज़ाक नहीं उड़ाया है. इसलिए वह अपना विज्ञापन वापस नहीं लेंगे. माल्या ने तर्क दिया था कि बहुत सारे न्यूज चैनलों में नेताओं-अभिनेताओं का मज़ाक उड़ाया जाता है तो क्या उन सभी को नोटिस भेज दिया जाता है. जब वहां वैसा नहीं होता तो विज्ञापन जगत में ऐसा कैसे हो सकता है. मेरे वकील भज्जी के नोटिस को पढ़ रहे हैं, जो उचित होगा, वह किया जाएगा. जबकि माल्या की प्रतिद्वंद्वी कंपनी के मुताबिक़ उसने हरभजन सिंह को क़ानूनी कार्रवाई की सलाह नहीं दी थी, लेकिन अब अगर भज्जी ने यह क़दम उठा लिया है तो वह उनका हर तरीक़े से सपोर्ट करेगी. लेकिन इसी बीच शायद विजय माल्या को इस बात का इल्म हो गया कि इस विज्ञापन से न स़िर्फ हरभजन के प्रशंसकों में उनकी साख गिरेगी बल्कि उनकी आईपीएल टीम का बिज़नेस भी प्रभावित हो सकता है. इसलिए उन्होंने इस विज्ञापन को वापस लेने का फैसला ले लिया. लेकिन माल्या के सुर बदलने के पीछे का सही कारण यह तो कतई नहीं है कि उन्हें अपनी इस करनी पर कोई अ़फसोस है. वह प्रोफेसनल बिज़नेसमैन हैं और उनको पब्लिसिटी बटोरना बहुत अच्छी तरह से आता है. अब इस विज्ञापन का प्रसारण भले ही बंद हो गया हो लेकिन इस बात से तो कोई इंकार नहीं कर सकता है कि जितने दिन भी यह विज्ञापन प्रसारित हुआ है, उससे हरभजन की छवि को जो नुक़सान होना था, वो हो चुका है. और साथ ही माल्या को एक विज्ञापन के माध्यम से जो चर्चा मिलनी थी, वो भी मिल गई, अब ऐसे में अब विज्ञापन के प्रसारण को रोकने का कोई विशेष औचित्य नहीं है.


इस बात से धोनी भी इंकार नहीं कर सकते कि उन्हें पता नहीं था कि इस विज्ञापन में हरभजन का मज़ाक उड़ाया जा रहा है. ज़ाहिर है, ऐसे में अगर धोनी में ज़रा भी नैतिकता होती तो टीम के प्रति सद्भावना दिखाते हुए वह इस तरह के विज्ञापन में काम करने से मना कर सकते थे. ऐसा तो है नहीं कि धोनी अगर इसमें काम करने से इंकार कर देते तो उनसे यह विज्ञापन ही छीन लिया जाता.

धोनी अगर वह हरभजन की भावनाओं का ख्याल करते हुए स्क्रिप्ट में बदलाव की मांग करते तो आज यह विवाद पैदा ही नहीं होता, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. इससे कई बातें स्पष्ट होती हैं. पहली बात तो यह कि धोनी को अपने साथी खिलाड़ियों की इज़्ज़त करनी नहीं आती है और दूसरी बात यह कि वह खेल से ज़्यादा पैसे और ग्लैमर को तवज्जो देते हैं. इस मसले में उन्हें सचिन तेंदुलकर से सीख लेनी चाहिए. ग़ौरतलब है कि धोनी इससे पहले भी शराब कंपनी को प्रमोट करने के चक्कर में कई शहरों में विरोध का सामना कर चुके हैं. यह तो खैर मनाइए कि टीम इंडिया आजकल सफलता के चरम पर है, ऐसे में इन खिलाड़ियों को मनमानी करने का मौक़ा मिल जाता है, वरना अब तक बोर्ड इनके खिला़फ अनुशासनसत्मक कार्यवाही कर चुका होता. ताज्जुब की बात यह है कि अभी तक धोनी ने औपचारिक तौर पर ही सही, इस मसले पर कोई टिप्पणी नहीं की है. इससे इतना तो सा़फ है कि कहीं न कहीं धोनी को एहसास हो गया है कि हरभजन सिंह के साथ ग़लत हुआ है.

अब यह क़ानूनी विवाद भले ही खत्म हो गया हो, लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि खिलाड़ियों के बीच सामंजस्य का अभाव है. अगर इनमें ज़रा भी आपसी सद्भाव होता तो दोनों इस मामले को लेकर एकजुट होते और अगर ज़रूरी होता तो अनजाने में अथवा जानबूझ कर हुई इस ग़लती को सुधारने की कोशिश करते, लेकिन ये कंपनी के कर्मचारियों जैसा व्यवहार कर रहे हैं. इन्हें इस बात का ज़रा भी एहसास नहीं है कि खेल और खिलाड़ी ही इनका साथ हमेशा देंगे, न कि ये शराब बनाने वाली कंपनियां. जिस दिन इनके सितारे बुलंदी पर नहीं होंगे तो सबसे पहले साथ छो़डने वालों में इन कंपनियों का ही नाम आएगा. राहुल द्रव़िड और गांगुली इस बात के जीते-जागते उदाहरण हैं. अगर इन खिलाड़ियों में ज़रा सी भी नैतिकता है तो इन्हें यह समझने में देर नहीं करनी चाहिए कि पैसा और ग्लैमर खेल और साथी खिलाड़ियों से बढ़कर नहीं है.

ब्रांड वॉर कोई नई बात नहीं

इससे पहले भी कई एड वॉर के चक्कर में सेलिब्रिटी और खिलाड़ी आपस में उलझ चुके हैं. कुछ दिनों पहले आमिर की फिल्म डेल्ही बैली में एक कार का कथित रूप से मज़ाक उड़ाए जाने पर विवाद खड़ा हो गया था. आरोप था कि फिल्म में जानबूझ कर उस कार का इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि एक अन्य हीरो (शाहरु़ख खान) इस कंपनी की कार का प्रचार करते हैं. कंपनी अपनी कार को कथित तौर पर अनादरपूर्ण तरीक़े से दिखाए जाने के लिए डेल्ही बेली के निर्देशक एवं प्रोडक्शन हाउस के खिला़फ क़ानूनी कार्यवाही करने की सोच रही थी. इसके अलावा माइक्रोसॉफ्ट ने एक विज्ञापन अभियान भी शुरू किया, जिसमें एप्पल के आईफोन और गूगल के एंड्‌रॉयड सिस्टम की खिल्ली उड़ाई गई है. यूट्यूब पर डाले गए इस विज्ञापन में प्रतियोगियों का मज़ाक उड़ाते हुए दिखाया गया है कि कुछ फोन की डिजाइन खराब होने के कारण उपभोक्ताओं में खराब आचार-व्यवहार को बढ़ावा मिल रहा है. माइक्रोसॉफ्ट ने इस अभियान में लोकप्रिय टीवी कलाकार रॉब डायर्डेक और अभिनेत्री मिंका केली को शामिल किया है. ऐसा ही वाकया डिटर्जेंट कंपनियों के मामले में दिखाई दिया. जब हिंदुस्तान यूनीलीवर लिमिटेड (एचयूएल) के प्रोडक्ट रिन डिटर्जेंट और प्रॉक्टर एंड गैंबल (पी एंड जी) कंपनी के प्रोडक्ट टाइड डिटर्जेंट के विज्ञापन ने ब्रांड वॉर छेड़ दिया था. उस दौरान भी पी एंड जी ने एचयूएल के खिला़फ याचिका दायर कर दी थी. इस मामले में समीक्षा मार्केटिंग कंसल्टेंट्स के चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर जगदीप कपूर कहते हैं, मुझे लगता है कि इस तरह आपा नहीं खोना चाहिए. यह व़क्त ही ब्रांड वॉर का है, फिर इस तरह आगबबूला होने का कोई मतलब नहीं. यदि किसी ब्रांड पर ऐसे हमले हो रहे हैं तो उसे शांतिपूर्वक लेना चाहिए. इसे स्वस्थ प्रतियोगिता के नज़रिए से देखा जाए तो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है.