सही मायनों में अपनी आवाज़ को सीधे संवाद के ज़रिये जन-जन तक पहुंचाने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम आज भी नाटक को ही माना जाता है. नाटक मंचन और इसी की एक विधा नुक्कड़ नाटकों के ज़रिये न स़िर्फ दर्शकों से सीधा संवाद होता है, बल्कि उसी व़क्त नाटक कीविषयवस्तु से संबंधित सारी जानकारी भी मिल जाती है. क़रीब दो साल पहले राजेश दुआ का हास्य नाटक दूल्हा बिकता है, देखा था. नाटक में हास्य के साथ-साथ समाज में फैली दहेज प्रथा जैसी कुरीतियों पर कटाक्ष किया गया था.
लगभग दो साल के बाद उनके द्वारा निर्देशित नाटक चस्का अच्छा नहीं, देखने का मौक़ा मिला. यह नाटक भी निर्देशक की छवि के अनुरूप व्यंग्य का पुट लिए सामाजिक सरोकारों की बात कह रहा था. लेकिन इस बार निर्देशक के तेवर और क़डे दिखाई दिए. इस नाटक की थीम सरकारी तंत्र में फैला भ्रष्टाचार थी. यह थीम खुद में कहीं न कहीं अन्ना आंदोलन का कलेवर भी ओ़ढे हुई थी. नाटक में चपरासी का किरदार मैं अन्ना हूं, लिखी की गांधीनुमा टोपी पहने दिखाई देता है.
हाल में दिल्ली के पीएसके (पूर्व सांस्कृतिक भवन) सभागार में नाट्य कला मंच के तत्वावधान में राजेश दुआ द्वारा निर्देशित एवं लिखित इस हास्य-व्यंग्य नाटक का मंचन किया गया. नाटक में विजय शर्मा, रंजन कुमार, संजय कुमार, जेसी मल्होत्रा, हरीश चौहान, फातिमा, गीतरेखा, रमेश कथूरिया, रजत भटनागर, ओपी शर्मा और अतिथि कलाकार अदीप सेतिया, देवेंद्र अकोत्रा जैसे वरिष्ठ कलाकारों ने भाग लिया. तकनीकी पहलुओं की बात करें तो प्रकाश की व्यवस्था एवं परिकल्पना बहुत उत्कृष्ट थी. प्रकाश व्यवस्था अजय की थी और परिकल्पना राजेश दुआ की. चस्का अच्छा नहीं, असल में चरित्र हनन, रिश्वत़खोरी और भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ उठाता हास्य से भरपूर नाटक है. इस नाटक में सरकारी कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार को बहुत ही सरल तरीक़े से दर्शाने की कोशिश की गई है. एक अ़फसर किस तरह से हर काम के लिए रिश्वत वसूलने की कोशिश करता है. अनोखे लाल एक भ्रष्ट सरकारी बाबू है, जो अपने ऑफिस की हर फाइल को उसमें रखी नोटों की गड्डी के वज़न के हिसाब से तौलता है, यानी जिस फाइल में जितने ज़्यादा नोट, उस फाइल की उतनी ही तेज़ गति.
अगर आपके पास पैसा नहीं है तो फिर प्रसिद्ध धारावाहिक (जिस पर चला मुसद्दी ऑफिस-ऑफिस नाम से फिल्म भी बन चुकी है) के किरदार मुसद्दीलाल की तरह आपको भी हर दूसरे हफ्ते आने के लिए कहा जाएगा. इस तरह से अनोखे लाल के साथ-साथ उसका पूरा स्टाफ उसी के नक्शे-क़दम पर चलता है. लेकिन एक दिन जब भ्रष्ट बाबुओं की इस प्रवृत्ति की शिकार जनता एकजुट होकर भ्रष्टाचार के खिला़फ आवाज़ बुलंद करती है, तब जाकर प्रशासन जागता है और फिर अचानक जांच एजेंसी का बाबू मामलों की जांच करता है. परत-दर-परत मामला खुलता है. तब अनोखे लाल उनकी पकड़ में आता है. जनता की हुंकार के बाद यह सरकारी बाबू किस तरह से भ्रष्टाचार से तौबा करते हैं, इसी को हास्य के पुट के साथ नाटक में दिखाया गया है. दरअसल, भ्रष्टाचार यानी रिश्वत़खोरी हमारे देश में हर जगह, हर कार्यालय में व्याप्त है.
लेखक ने एक काल्पनिक कहानी के ज़रिये भ्रष्टाचार के खिला़फ जनता को जागरूक करने की कोशिश की है. हमारे नेताओं, बिल्डरों एवं नौकरशाह का गठजो़ड इतना गहरा हो चुका है कि जब तक जनता एकजुट होकर विरोध नहीं करेगी, तब तक हमारा देश भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हो सकता है. नाटक के कलाकारों ने अपने सफल अभिनय द्वारा यही सब दिखाने की कोशिश की है. नाटक के अंत में जिस तरह से सभी कलाकर एक साथ मंच पर जनता से भ्रष्टाचार के खिला़फ लड़ने का आह्वान करते हैं, वह एक बार फिर से सोचने पर मजबूर करता है कि जब तक आम आदमी अपनी लड़ाई खुद नहीं लड़ेगा, तब तक देश से भ्रष्टाचार का खात्मा मुमकिन नहीं है. कुल मिलाकर राजेश दुआ एक ज्वलंत विषय उठाकर एक सफल संदेशात्मक नाटक रचते हैं.
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