Thursday, December 20, 2012

यह आक्रोश गलीगली जाए और सालोंसाल रहे



सफदरगंज से सिंगापुर तक के सफर में भले ही गैंगरेप की शिकार लड़की ने दम तोड़ दिया हो पर मर तो उसी दिन गई थी जब 16 दिसंबर की रात चलती बस में उस पर दरिंदगी कहर बनकर टूटी थी. अब प्रायश्चित और शर्मसार होने के अलावा एक यही रास्ता है कि आज का युवा बलात्कार जैसे वीभत्स कृत्य के खिलाफ उबले इस आक्रोश को गलीगली तक ले जाए और उसे सालोंसाल अपने अंदर पालें. ताकि फिर कोई दामिनी हैवानियत और हवस की आग में न झुलसे. उस के प्रति यही हमारी सच्ची श्रद्धांजली होगी.

उठो जवानों तुम्हे जगाने क्रांति द्वार पर आई है, 70 के दश क में जेपी आंदोलन के दौरान जब यह नारा गूंजता था तो देश भर का युवा तत्कालीन सरकार के भ्रष्टचार और तानाशाही के खिलाफ स्कूलों और कालेजों से निकलकर सड़कों पर उमड़ पड़ता था. उस दौरान युवाशक्ति की इस गोलबंदी के आगे सरकार की हताशा और बेबसी कुछ ऐसी थी, जैसी दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ युवाओं के फूटे आक्रोश के सामने है. 
रायसीना हिल्स, जंतरमंतर, प्रगति मैदान और इंडिया गेट पर उमड़ा जनसैलाब यह बताने के लिए काफी है कि इतिहास खुद को दोहराता है. एक मासूम लड़की के बलात्कार और उस की मौत तक सरकार का जो शर्मनाक रवैया पूरी जनता के सामने दिखा, उसी से मजबूर होकर युवाओं ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला है. और इतिहास गवाह है कि जब जब युवाओं ने क्रांति की मसाल अपने हाथों में थामी है, व्यवस्था हिलती दिखी है.
गैंगरेप कांड के खिलाफ गुस्से से भरे युवाओं ने न सिर्फ दिल्ली सरकार को बल्कि पूरी दुनिया को बता दिया है कि अगर गुस्सा जायज हो तो किसी लीडर या अगुआ के बगैर भी इतना बड़ा आंदोलन खड़ा किया जा सकता है. बगैर किसी नेता का पहला आंदोलन और बलात्कार जैसे जघन्य वारदात के मसले पर सरकार को झकझोरने के लिए युवा बधाई के पात्र हैं.
पर मन में एक डर भी है. डर इस बात का कि कहीं यह आंदोलन भी बाकी बड़े तथाकथित ऐतिहासिक आंदोलनों की तरह चार दिन की चांदनी, मीडिया का टीआरपी बेस्ड विजुअल प्रेजेंटेंशन, चंद फिल्मों की देखादेखी षुरू हुआ कैंडिल मार्च का ट्रेडिशन या फिर किसी सियासी दल, नेता, पंडेपुजारियों या योगगुरुओं द्वारा हाइजैक किया हुआ आंदोलन तो नहीं बन जाएगा.
यह डर इस बार किसी भी हालत में सही साबित नहीं होना चाहिए क्योंकि युवाओं को यह स्वर्णिम अवसर पहली बार मिला है जब उन के इस आंदोलन के सामने सियासी मलाई जीमने वाला कोई नेता नहीं है. वह खुद नेता है और खुद जनता. अब यह आंदोलन कुंद नहीं होना चाहिए. इस के अलावा सरकार ;यहां सरकार से मतलब मनमोहन या सोनिया गांधी ही नहीं बल्कि विपक्षी दलों समेत हर उस प्रश सनिक या राजनीतिक इकाई है, जो किसी न किसी रूप में जनता का प्र्रतिनिधित्व करती है.द्ध जैसे आज की परिस्थितियों में इस हद तक लाचार, बेबस, असहाय और घुटने टेके खडी है, वैसे पहले कभी नही खडी होती थी.  अब अगर तानाषाही मानसिकता की वर्तमान सरकार युवाओं के आक्रोश  से डरी सहमी है तो उन चंद बलात्कारियों की बिसात ही क्या है. इसलिए बहुत जरूरी है कि हमारा यह गुस्सा और आंदोलन सिर्फ जंतर मंतर, रायसीना हिल्स या इंडिया गेट पर ही न चले बल्कि यह हर उस गली महल्ले बस, मेट्रो स्टेशन, मंदिर, मौल, बाजार और हर उस परिवार तक चले जहां महिलाओं को भोगने की वस्तु समझकर उनका षारीरिक या मानसिक शोषण करने वाले लोग दिखते या पलते हैं.
हर युवा जानता और देखता है कि जब वह अपनी गलीमहल्ले से निकलकर बस या मेट्रो के जरिए अपनेअपने अपने काम की जगह पुहंचता है तो उसे हर नुक्कड़, चैराहे और बसों में लड़कियों से छेड़छाड़ या कमेंट करने वाले तत्व मिलते हैं. याद रखिए जो नुक्कड़ चैराहे पर दिनदहाड़े किसी लड़की या महिला को छेड़ने की हिम्मत कर सकता है वह मौका पाकर रेप जैसा कदम कभी भी उठा सकता है. असल में बलात्कारी तत्व इन्हीं जगहों पर पनपते हैं. इसलिए अगर हम इंडिया गेट या रायसीना हिल्स पर सांप के गुजरने के बाद की लकीर पीटने के बजाए उन गली महल्लों में सरेआम घूमने वालों सापों पर धावा बोलेंगे तब जाकर इन भेडियों के मन में भी वहीं खैफ पैदा होगा जो अभी सरकार के कंपकपाते बयानों में दिखता है. 
यह सब कुछ दिनों के शोरशराबे, कैंडल मार्च या सरकार की घेराबंदी से नहीं होगा बल्कि तब होगा जब युवाओं के मन में उबल रहा यह आक्रोश  उन के अंतर्मन में भी रोज उबलेगा. साथ ही इस उग्र आंदोलन को गली गली तक ले जाना होगा. समाज में कुकुतमुत्तों की तरह पनप रहे इन असामाजिक तत्वों को सरेआम एक्सपोज करना होगा., तब जाकर समाज इस तरह की कलंकित वारदातों से मुक्त हो सकेगा. 
युवा इस बात को अच्छे से समझ लें कि बैनरों और तख्तियों पर बचकाने स्लोगन ओर नारे लिखकर, कड़े कानून और त्वरित कार्यवाही की मांग कर सिर्फ इस लडकी के साथ बलात्कार और उस की हत्या करने वाले को सजा दिलवा सकते हैं पर दूेश  भर में फैले हर बलात्कारी के मन में ऐसा डर नहीं पैदा कर सकते कि वह इस तरह का कदम उठाने से पहले दस बार सोचे. 


अगर कड़े कानून बनाने या रेपिस्ट को फांसी देने से बलात्कार की घटनाए बंद होतीं तो दुनिया भर के उन देषों में कभी बलात्कार नहीं होता जहां रेप की इतनी वीभत्स और दिल दहला देने वाले पनिशमेंट हैं कि सोचकर ही दिल बैठ जाए. और हां, अगर दिल्ली गैंग रेप के आरोपियों को फांसी की सजा की हम मांग करते हैं तो सांसद, विधायक, मुखिया, जिला परिश द सदस्यों को भी फांसी की सजा मिलनी चाहिए, जिन पर बलात्कार के केस चल रहे हैं. एक साथ मामले का ट्रायल किया जाए. शुरूआत करनी है तो ढंग से की जाए.
रोश , आक्रोश, गुस्सा, नाराजगी सब अपनी जगह है और यह दिखना भी चाहिए लेकिन इस के नाम पर पुलिस के साथ लड़ने से कुछ हल नहीं होने वाला है. क्योंकि आप भी जानते हैं कि बलात्कारी इंडिया गेट पर नहीं बैठे हैं. वो तो देश  की रग रग में हैं. हर गली और हर चैराहे पर हैं. इसलिए जरूरी है कि सही बीमारी को ढूढा जाए और फिर से जड से खत्म किया जाए क्योंकि हमें बीमार को नही बल्कि बीमारी को खत्म करना है बीमारी तभी खत्म होती है जब हम उसके सिम्टम्स यानी लक्षणों और उन स्रोतो का पता लगा लें जहां ये तत्व पैदा होते हैं. हम सब जानते हैं कि इस बीमारी के लक्षणों से रोजाना हमारा सामना होता है. बस अब तक हम इन्हें हंसकर या डरकर टालते आ रहे हैं.
दरअसल, पुलिस और कानून ब्यवस्था के खिलाफ हमारे अंदर का गुस्सा तभी उबाल लेता है जब इस तरह की कोई ताजा वारदात हो. जैसेजैसे मामला मीडिया की सुर्खियों और नेताओं की बयानबाजियों से ठंडा पड़ने लगता है वैसवैसे ही हमारे गुस्से का उबाल भी ठंडा पडने लगता है. 
आज देश  का युवा आज संकल्प ले कि उसे बीमार को नहीं बल्कि बीमारी को जड़ को खत्म करना है. यह काम सिर्फ  और युवा ही कर सकते हैं. युवा श ब्द को उल्टा लिखने पर वह वायु बन जाता है. वायु जब आक्रोश  मंे बहती है तो दुनिया में बवंडर ला देती है. तख्ते पलट देती है. युवाश क्ति भी कुछ ऐसी ही है. बस उसे जरूरत होती है सही दिषा की. इस मामले ने उन्हें यह दिषा भी दे दी है. जब भी देश दुनिया में बड़े आंदोलन और परिवर्तन हुए हैं उन में युवाओं की महती भूमिका रही है. कहा भी गया है कि किसी भी देश  की विकास की रीढ युवा होते हैं. भारत भी युवा शक्ति से लबरेज है. 
जाहिर है इस समय जड बलात्कारी नहीं बल्कि बलात्कार की मानसिकता है. और मानसिकता तभी बदलेगी जब यह युवा आक्रोश  देश  की हर गलियों से गुजरता हुआ सालों साल हमारे अंदर सुलगता रहेगा और जिंदा रहेगा. अगर हर युवा ऐसा करने में सफल रहा तो यह निष्चित है कि हम में किसी की भी मां, बेटी, बहन, पत्नी और औरत का दामिनी जैसा हश्र नहीं होगा. 

                                    


Monday, December 17, 2012

शोहरत की बिसात का शालीन मोहरा - विश्वनाथन आनंद



कहते हैं कि जब कामयाबी का नशा चढकर बोलता है तो अर्ष से फर्ष तक का सफर बहुत लंबा नहीं रह जाता. कामयाब और विश्वविजेता होने का भ्रम पाले अक्सर खिलाडी अपनी आधी अधूरी कामयाबी लोकप्रियता के नषे में चूर होकर अपने खेल की गरिमा को ही दांव पर लगा देते हैं. बहुत से उदाहरण क्रिकेट समेत कई क्षेत्रों की प्रसिद्ध षख्सियतों के बरतावों से लगाया जा सकता है. भद्रजनों का खेल कहे जाने वाले क्रिकेट में ऐसे कई नाम हैं जो जरा सी कामयाबी पर इतना उछल जाते हैं कि जब गिरते हैं तो कामयाबी की अंधरे से बाहर ही नहंीं आ पाते.
       कम ही सही पर कुछ खिलाडी ऐसे भी होते हैं जो सिर्फ खिलाडी ही बने रहकर न सिर्फ दुनिया में अपना नाम रोषन करते हैं बल्कि अपनी शालीनता से लोगों के दिल में अपना मुकाम भी बना लेते हैं. न किसी विवाद से कोई लेना देना और न ही कभी सफलता के घोडों पर सवार होकर खुद को बादशाह समझना. ये असल में खामोषी से सिर्फं अपना काम करते हैं और बेहतरीन प्रदर्षन के बल पर दुनिया जीत लेते है. ऐसी ही एक षख्सियत है भारत के विश्वानाथन आनंद. विश्वानाथन आनंद ने मॉस्को में इसराइल के बोरिस गेलफैंड को टाईब्रेकर में हरा कर पांचवीं बार वर्ल्ड चेस चैंपियनशिप पर कब्जा कर लिया है. मॉस्को में चल रही शतरंज की विश्व चैंपियनशिप में उतार चढ़ाव वाले मैच में आनंद ने गेलफैंड का हरा दिया. 42 वर्षीय आनंद ने वर्ल्ड चेस चैंपियनशिप लगातार तीसरी बार जीती है. जबकि ये उनका लगातार चैथा खिताब है.
अक्सर खिलाडी जीत के बाद का जष्न कुछ यांे मनाते हैं लगता है कि पूरी दुनिया ही उनकी मुटठी में आ गई हो. कोई रात भर पार्टी करता है तो कोई षैंपेन की बोतलों को हवा में लहराता है. कोई मीडिया के जरिए बडेबडे दावे ठोंकता है तो कोई जीत की खुषी में किसी से भिड ही बैठता है. लेकिन आपको सुनकर ताज्जुब होगा कि पांचवीं बार वर्ल्ड चेस चैंपियन बनने के बाद विश्वानाथन आनंद ने क्या कहा होगा और जीत का जयष्न कैसे मनाया होगा. दरअसल जीत के बाद उनका कहना था कि अभी तो मैं इतने तनाव में हूं कि खुश नहीं हुआ जा सकता लेकिन मैं राहत महसूस कर रहा हूं. इतना शालीन जष्न शायद ही किसी विजेता ने मनाया हो. जमीन में रहने वाला से सितारा न जाने कब से अपनी चमक बरकरार रखे हुए है. इसने कभी भी कामयाबी के आकाष में अपनी उपस्थ्तिि दर्ज कराने के लिए अपनी चमक का बेजा इस्तेमाल नहीं किया. नहीं तो आईपीए की जीत का नजारा देख लीजिए. अंतर खुद ब खुद समझ में आ जाएगा.
 अपनी इस जीत के बाद विश्वनाथन आनंद में प्रेसवार्ता में कहा कि मैच सचमुच तनावपूर्ण रहा. उनके मुताबिक जब सुबह वे सोकर उठे तो उन्हें लगा कि अब तो कोई परिणाम निकलना ही है. उनका कहना था कि मैच जिस तरह से बराबरी पर चल रहा था यह कहना मुश्किल था कि उसका परिणाम क्या निकलेगा.
इस बुलंदी पर आने के बाद भी विश्वनाथन आनंद बेड ही प्यार से उसका जिक्र करना नहीं भूलते जिसे उन्हें न हरा पाने का मलाल रहता है. दरअसल यह कोई वैसा मुकाबला नहीं था फिर भी शतरंज के विश्व चैंपियन विश्वनाथन आनंद एक 14 साल के बच्चे को हरा नहीं पाए. दरअसल, हैदराबाद में चल रही अंतरराष्ट्रीय गणित कांग्रेस में आनंद ने एक साथ 40 लोगों के साथ शतरंज खेली थी. उन्होंने 39 लोगों को तो हरा दिया था लेकिन 14 साल के छात्र सिरकर वरदराज के साथ उनकी मुकाबला बराबरी पर खत्म हुआ.
विश्वनाथन आनंद, शतरंज की दुनिया का एक ऐसा नाम जिसे सारी दुनिया सम्मान की नजरों से देखती है और जिसकी उपलब्धियों से हर भारतीय गौरवान्वित महसूस करता है. लेकिन ताज्जुब की बात तो यह है कि देश के मानव संसाधन विकास मंत्रालय को भारतीय होने का भी सुबूत चाहिए थे. हालांकि बाद में विश्वनाथन आनंद की राष्ट्रीयता और उन्हें प्रस्तावित डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि को लेकर उठे विवाद के बाद मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने खुद इस पूरे विवाद पर आनंद से माफी मांगी थी पर इस पूर मामले पर वो शांत और संयम की मूर्ति बने रहे. न किसी प्रेसवार्ता के जरिए मामले को हवा दी और न ही कोई बयानबाजी का सहारा लिया. डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि लेते समय विश्वनाथन हमेशा ही की तरह शांत थे और मुस्कुरा रहे थे लेकिन यह बात किसी से छुपी नहीं थी की वह उन के साथ हुए सरकारी दुर्व्यवहार से खुश नहीं थे. फिर भी उन्होंने अपनी शालीनता बरकरार रखी. उनकी जगह कोई और खिलाडी होता तो शायद ही चुप बैठता. उसे तो पब्लिसिटी पाने का एक और बहाना मिल जाता.
11 दिसंबर, 1969 को तमिलनाडु के मायिलादुथुरै में जन्में विश्वनाथन आनंद को शतरंज उनकी मां ने खेलना सिखाया. छह साल की उम्र से ही विश्वनाथन आनंद अपनी मां के साथ शतरंज की बिसात पर चालें चला करते थे. चेन्नई के डॉन बॉस्को मैट्रिकुलेशन हायर सेकेंडरी स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करके उन्होंने लॉयोला कॉलेज  से कॉमर्स में स्नातक की डिग्री हासिल की. निजी जिंदगी में विश्वनाथन आनंद हमेशा शांत और मीडिया से दूर रहने वाले व्यक्ति हैं. यह व्यक्तित्व उन्हें एक बेहतरीन स्पोर्ट्समैन बनाता है. शायद यही वजह है कि जहां अन्य खिलाडी भारत रत्न को पाने का सपना देखते हैं वहीं एक नेता खूद अपनी तरफ से उन्हें भारत रत्न का दावेदार बताता है. और ताज्ज्ुाब की बात तो यह है कि वो इसके समर्थन में कुछ भी नहीं बोलते. उन्हें तो सिर्फ अपने नैसर्गिक खेल से मतलब है. हाल ही में जब सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने की मांग उठी थी तब केंद्रीय खेल मंत्री अजय माकन ने विश्व शतरंज चैम्पियन विश्वनाथन आनंद भारत रत्न का हकदार बताते हुए उन्हें उस पुरस्कार से नवाजे जाने की बात कही. हालांकि इसका फैसला प्रधानमंत्री करेंगे कि देश का यह सर्वोच्च सम्मान किसे मिलेगा.
गौरतलब है कि विश्वानाथन आनंद इससे पहले 2000, 2007, 2008 और 2010 में विश्व विजता रह चुके हैं. विश्वनाथन आनंद ने 2007 में टूर्नामेंट में आठ खिलाडि़यों के बीच खिताब जीता था. 2008 और 2010 में उन्होंने रूस के व्लादीमीर क्रामनिक और बल्गारिया के वेसेलीन टोपालोव को हराया था. तब टूर्नामेंट का फार्मेट बदल गया था और अब नियमानुसार मौजूदा चैंपियन को चुनौती देने वाले खिलाड़ी के साथ खेलना होता है. विश्वनाथन आनंद का कॅरियर बहुत तेजी से और अचानक शुरू हुआ. 14 साल की उम्र में नेशनल सब-जूनियर लेवल पर जीत के साथ शुरू हुआ उनका सफर आगे बढ़ता ही रहा. साल 1984 में 16 साल की उम्र में उन्होंने नेशनल चैंपियनशिप जीतकर सबको चैंका दिया और उन्होंने ऐसा लगातार दो साल किया. 1987 में वर्ल्ड जूनियर चेस चैंपियनशिप जीतने वाले वह पहले भारतीय बने और साल 1988 में वह 18 साल की उम्र में ही ग्रैंडमास्टर बन गए.
      शतरंज की बिसात पर जीत हासिल करने के लिए दिमाग की बहुत जरूरत होती है. जरा सी चूक आपको खेल से बाहर का रास्ता दिखा देती है. लेकिन इस खेल में अगर कोई लंबे समय से विश्व में टॉप पोजीशन पर कायम हो तो उसे असाधारण ही कहेंगे. ग्रैंडमास्टर विश्वनाथन आनंद भारतीय शतरंज जगत के ऐसे ष्तरंज की इस बिसात पर शान से बादशाह की कुर्सी पर जमे बैठे हैं पर किसी शारेषराबे के साथ नहीं बल्कि शालीनता से.


खास उपलब्धियां और रिकॉर्ड


आनंद उन छह खिलाडि़यों में से एक हैं जिन्होंने एफआईडीई विश्व शतरंज चैंपियनशिप में 2800 रेटिंग अंकों से ज्यादा अंक हासिल किए हैं. साल 2007 में वह विश्व शतरंज में नंबर एक तक पहुंचे. साल 2007 से लेकर 2008 तक वह छह में से पांच बार नंबर वन पर बने रहे. हालांकि साल 2008 में वह नंबर वन से हट गए पर दुबारा साल 2010 में उन्होंने अपना नंबर एक का स्थान पक्का कर लिया. विश्वनाथन आनंद 1987 में भारत के पहले ग्रैंडमास्टर बने. साल 1985 में उन्हें खेल के क्षेत्र में बेहतरीन योगदान देने के लिए  अर्जुन अवार्ड से सम्मानित किया गया था. साल 1991-92 में वह पहले ऐसे खिलाड़ी बने जिन्हें राजीव गांधी खेल रत्न से सम्मानित किया गया. साल 1987 में पद्मश्री, राष्ट्रीय नागरिक पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से भी आनंद को नवाजा गया था. साल 2007 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया. 1997, 1998, 2003, 2004, 2007 और 2008 में उन्होंने शतरंज ऑस्कर जीता.

Wednesday, November 7, 2012

शिक्षक की शक्ल में ठग



राजधानी दिल्ली में आजकल ठगों के कारनामों की चर्चा है. ये ठग कहीं पैसा दोगुना करने की स्कीम के नाम पर भोलेभाले लोगों को ठग रहे हैं तो कहीं औनलाइन पैसा कमाने का झांसा देकर. लेकिन हाल में नगर निगम षिक्षक की नौकरी दिलावाने के नाम पर कुछ षातिर ठगों का जो फर्जीवाडा सामने आया आया है, उससे एक बात तो साफ हो जाती है कि राजधानी में आजकल ठगी के सरताजों का बोलबाला है.
कल तक राजधानी में ठगी का षिकार ज्यादातर अनपढ किस्म के लोग ही होते थे. लेकिन अब तो पढेलिखे लोगों के ठगे जाने की खबरें भी गाहे बगाहे  देखने सुनने में आ ही जाती हैं. अब इसे बेरोजगारी की मार झेल रहे लोगों की मजबूरी कहें या फिर हर काम को रिष्वत देकर काम कराने की प्रवृत्ति, जिस कारण पढेलिखे लोग भी नौकरी हासिल करने की तमन्ना में ठगों के हाथों फंसकर न सिर्फ अपनी मेहनत की कमाई लुटा देते हैं, बल्कि अपने कैरियर के साथ भी खिलावाड कर लेते हैं. ताजा घटनाक्रम तो इसी बात की तस्दीक कर रहा है. घटना 28 फरवरी 2012 की है. इस दिन जहांगीरपुरी पुलिस ने एक ऐसे रैकेट का भंडाफोड किया, जो कान्ट्रेक्ट पर निगम के स्कूलों में षिक्षक बनाने का झांसा  देकर कई लोगों का ठगी का षिकार बनाते थे. ये ठग न सिर्फ बेरोजगारों को नौकरी दिलाने के झूठा सपना दिखाते थे बल्कि उनके इस के ऐवज में अच्छी खासी रकम भी वसूलते थे. पुलिस के गिरफत में सात लोग आए हैं. इस ठगी के खेल में षामिल 7 लोगों की पहचान संजीव, सुरेष, अषोक, सुनील, सचिन, संतोश और आफताब आदि के रूप में हुई है. इन सभी ठगों से जब पुलिस ने कडाई से पूछताछ की कई बाते सामने आईं. जिनसे यह पता चलता गिरफ्तार सातों अभियुक्तों में ज्यादातर पढे लिखे युवक थे. इनमें से तीन तो फर्जी निगम षिक्षक के तौर पर बाकायदा नौकरी भी करते थे. अब इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये ठग बतौर षिक्षक बच्चों को किस तरह की षिक्षा देते होंगे. इस गिरोह को अषोक चलाता था, जो वजीराबाद स्थित निगम स्कूल में कान्ट्रेक्ट पर षिक्षक के तौर पर काम कर रहा था. बाद में अषोक ने ठगी के इस खेल में अन्य साथियों को भी षामिल कर लिया. अपने इस कारनामे को अंजाम देने के लिए इनके पास कई ऐसे दस्तावेज थे, जिनके आधार पर यह किसी को अहसास नहीं होने देते थे कि वो जो भी कर रहे हैं वह सिर्फ फर्जीवाडे के अलावा और कुछ नहीं है. असल में इनके पास कान्ट्रेक्ट पर षिक्षक की नियुक्ति के फर्जी पत्र थे. इनके उपर वह उप निरीक्षक कवंर सिंह के फर्जी हस्ताक्षर कर अपनी ठगी के धन्धे को अंजाम देते थे.यह गिरोह दो से चार लाख रूपये लेकर नौकरी दिलाने का दावा करता था. गिरफ्तारी के दौरान इनके पास से फर्जी नियुक्ति पत्र, डिप्टी डायरेक्टर की फर्जी सील और 75,000 रुपए नगद बरामद हुए. यह मामला तब खुला, जब जहांगीरपुरी पुलिस को सिविल लाइन क्षेत्र में षिक्षा विभाग के उपनिदेषक कवंर सिंह की ये षिकायत मिली कि निगम स्कूल में संविदा पर षिक्षकों के तीन नियुक्ती पत्र फर्जी पाये गये हैं. मामले को गंम्भीरता से लेते हुए एसआई षैलेन्द्र कुमार और कृश्णा की टीम तीनो आरोपियों को धर दबोचा.
  जब इस बाबत नगर निगम की षिक्षक समिति के अध्यक्ष डा. महेंद्र नागपाल हमने बात की तो उनका कहना था कि मामले की जांच चल रही है और इस जांच में षिक्षा विभाग भी मुस्तैदी से माामले की छानबीन कर रहा है. साथ ही यह भी पता लगाने की कोषिष की जा रही है कि फर्जी प्रमाण पत्र बनाने वाले इस गिरोह की सांठगांठ कहीं विभाग के निगम कर्मियों से तो नहीं है. इसके अलावा उनका यह भी कहना था कि अब  वो हाल ही में कांट्रेक्ट पर भर्ती हुए षिक्षकों को कागजों का बारीकी से वेरीफिकेषन कर रहे हैं.
बहरहाल, इस पूरे मामले में यह बात भी सामने आई है ठगी का षिकार ज्यादातर वो लोग हुए हैं, जो षिक्षक के पद की योग्यता खरे नहीं उतरते थे. यानी अनैतिक तरीके से रोजगार हासिल करके के चक्कर में वे इन ठगों के चंगुल में फंस जाते थे. ये ठग न जाने कितनों दिनांे से कई बेरोजगारों का नौकरी का झांसा देकर अपना उल्लू सीधा कर रहे थे. हालांकि, पुलिस की यह जांच अभी षुरुआती दौर में है. अभी तो कई और तथ्य सामने आने बाकी हैं. मसलन हो सकता है कि फर्जी षिक्षक के तौर पर काम कर रहे और भी ठग अभी भी पुलिस की गिरफत से बाहर हों. इन ठगो ंके अलावा यह दन बेरोजगारों के लिए भी एक सबक है जो कुछ भी हासिल करनेके लिए षार्टकट और पैसों पर ही भरोसा करके ऐसे तत्वों को बढावा देते हैं. इससे पहले कि दिल्ली के ये ठग किसी और की कमाई और भविश्य से खिलवाड करें, इन्हें जल्द से जल्द सलाखों के पीछे पहुंचाना कानून का काम है.



 दिल्ली के ठगों के ताजा कारनामें

राजधानी में ठगी का यह कोई पहला मामला नहीं है. इससे पहले राजधानी कई ठगों का षिकार बन चुकी है. हालिया मामला 5 फरवरी 2012 का है. इसी दिन पुलिस ने एक ऐसी ठग महिला को गिरफतार किया था जो टीटीई की नौकरी दिलाने के नाम पर लोगों को नियुक्ति पत्र लेने के लिए लखनऊ भेज देती थी. बाद में ठगी के षिकार लोगों को पता चलता था कि जो पता ठग पिंकी षुक्ला नवयुवकों को देती थी, वो असल में गलत होता था. इसी तरह 1 फरवरी 2012 को पुलिस ने ललित और अमरजीत नाम के दो ठगों को धर दबोचा था, जो केवल 12वीं तक पढे थे लेकिन बहुराश्ट्रीय कंपनियों में नौकरी दिलाने के झांसा देकर अब तक 50 से अधिक ख्ुवाओं का अपना षिकार बना चुके थे. सरोजनी नगर पुलिस को भी 28 जनवरी 2012 को उदयवरी और अमित मलिक को कहरासत में लिया. ये दोनों षख्स डीटीसी में बतौर कंडक्टर काम करते थे और लोगों को कांट्रेक्ट पर कंडक्टर बनाने का सपना दिखाकर अपना उल्लू सीधा करते थे. इस तरह दिल्ली में बेरोजगारों को रोजगार दिलाने का सपना दिखाकर ये ठग अपना रोजगार खूब अच्छी तरह से चला रहे हैं.



Wednesday, September 12, 2012

खबरों के समंदर में नई लहर



उत्तर प्रदेश में जब भी सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन की बात आती है तो ज़ेहन में सबसे पहले बुदेलखंड का नाम आता है. बुंदेलखंड के ज़्यादातर इलाक़े भुखमरी और सूखे का सालों से सामना करते आ रहे हैं. इस वजह से ही यह इलाक़ा विकास की रफ्तार में सबसे पीछे छूट गया है. बहुत कम होता है जब किसी अच्छी खबर के लिए बुंदेलखंड का ज़िक्र हुआ हो. लेकिन यहां पर दो बड़ी खबरों का ज़िक्र कर रहे हैं.

पहली खबर इलाहाबाद के एक किशोर की. 12 साल की छोटी उम्र का उत्कर्ष त्रिपाठी एक अ़खबार निकाल रहा है. इस अखबार का संपादक है, संवाददाता, प्रकाशक और वितरक (हॉकर) वही है. इलाहाबाद के चांदपुर सलोरी इला़के की काटजू कॉलोनी में रहने वाला उत्कर्ष त्रिपाठी पिछले एक साल से हाथ से लिखकर जागृति नामसे चार पृष्ठों का एक साप्ताहिक अ़खबार निकाल रहा है. हाल-फिलहाल में इसके क़रीब 150 पाठक हैं. अपने अ़खबार में उत्कर्ष भ्रूणहत्या, पर्यावरण जैसे सामाजिक मुद्दों पर लिखता है. इसमें कोई खर्चा नहीं है, वह पूरा अखबार अपने हाथों से लिखकर और उसकी फोटो कॉपी करवाकर लोगों तक पहुंचाता है.

दूसरी खबर है उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा से लगे चित्रकूट ज़िले के कर्वी गांव की. इस गांव से निकलने वाले अ़खबार खबर लहरिया को संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने साक्षरता सम्मान के लिए चुना है. यह उपलब्धि शायद ही किसी मीडिया हाउस को नसीब हुई हो. इन दोनों खबरों के दो महत्वपूर्ण सकारात्मक पहलू हैं. पहला तो यह कि बुंदेलखंड जैसे इलाक़े में इस तरह का क्रांतिकारी विकासात्मक परिवर्तन एक नई उम्मीद जगाता है और दूसरे पहलू का फलक थोड़ा बड़ा है. बड़ा इसलिए कि जब पूरे देश में वीर सांघवी और बरखा दत्त जैसे तथाकथित बड़े पत्रकार मीडिया को दलाली के व्यवसाय में तब्दील करे रहे हों तो ऐसे में इस तरह के रूरल जर्नलिज्म का जन्म सुकून भरा है.

 ऐसा सुकून जिसमें एक बड़ी क्रांति के बीज छिपे हुए हैं. किसी भी देश या राज्य के बहुआयामी विकास में जनसंचार माध्यमों की भूमिका अहम हो जाती है. इसी के माध्यम से सरकारी योजनाओं और नीतियों की जानकारी लोगों तक पहुंच पाती है. लेकिन पिछले कुछ समय से मीडिया की भूमिका एक व्यवसायिक कंपनी की तरह हो गई है, जो कि स़िर्फ मुना़फा देने वाले ग्राहकों के हितों का ही ध्यान रखते हैं. इसी तरह हमारी राष्ट्रीय मीडिया में भी स़िर्फ महानगरों और उन लोगों के मुद्दे उठाए जाते हैं, जिनसे उन्हें प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर फायदा पहुंचता है. इसी वजह से गांव में एक तरह से संचार का खालीपन पैदा हो गया है.




 गांव और किसानों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने वाला मीडिया जब अपने ही फर्ज़ से दूर हो रहा है, ऐसे में आंचलिक पत्रकारिता का सहारा बचता है. और इस काम को खबर लहरिया और जागृति ने ब़खूबी संभाला है. ज़रूरत है तो इन्हें भरपूर सहयोग और ब़ढावा देने की. अगर उन्हें उचित सहयोग और प्रोत्साहन मिलता रहे तो संचार के इस खालीपन को इस वैकल्पिक मीडिया के द्वारा भरा जा सकता है. अंचलों से निकलने वाली पत्र-पत्रिकाएं समाचार-पत्र उस क्षेत्र-विशेष की भाषा और ज़रूरत को समझते हैं तथा स्थानीय लोग भी ऐसे माध्यमों से जुड़ाव महसूस करते हैं. ग़ौरतलब है कि चमेली देवी पुरस्कार से सम्मानित खबर लहरिया नौ नवसाक्षर महिलाओं ने लगभग चार साल पहले शुरू किया था. इस अ़खबार को निकालने वालों में से किसी ने भी पत्रकारिता का विधिवत प्रशिक्षण नहीं लिया है. यह अ़खबार महिला सशक्तीकरण का अद्‌भुत उदाहरण है. ऐसा सशक्तीकरण जो सरकारी योजनाओं के सहारे न होकर गांव की पिछड़ी और दलित महिलाओं के बलबूते हुआ है. हिंदी की उपबोली बुंदेली में प्रकाशित यह आंचलिक समाचार पत्र को दलित ग्रामीण महिलाओं द्वारा निरंतर नामक अशासकीय संस्था के प्रोत्साहन से निकाला जाता है.

इस अखबार को इला़के की बेहद ग़रीब, आदिवासी और कम-पढ़ी लिखी महिलाओं की मदद से निकाला जा रहा है. अ़खबार में सभी क्षेत्रों से जु़डी खबरें होती हैं, लेकिन पंचायत, महिला सशक्तीकरण, ग्रामीण विकास की खबरों को ज़्यादा महत्व दिया जाता है. दो रुपए की क़ीमत वाले इस अ़खबार की संपादक मीरा के मुताबिक़ उनका अ़खबार बुंदेलखंड की आदिवासी कोल महिलाओं में शिक्षा की भूख जगाने में मदद कर रहा है. इतना ही नहीं इस अ़खबार के तहत महिलाओं को पत्रकारिता का भी प्रशिक्षण दिया जाता है. इस कोर्स को रूरल जर्नलिज्म कोर्स कहते हैं. 20,000 से अधिक पाठकों वाले इस अ़खबार की बदौलत कई विकास कार्य मसलन गांव की सड़कें बनी हैं. नहर खुदी हैं और स्कूल खुले हैं.



हालांकि क़ाग़जों में यह काम पहले ही हो चुके थे पर हक़ीक़त में तब हुए जब खबर लहरिया ने इन्हें अपने बेबाक़ अंदाज़ में प्रकाशित किया. तमाम सरकारी योजनाओं की घोषणा की खबरें समय-समय पर इस अ़खबार में छपती रहती हैं और इन सूचनाओं को ही ताक़त बनाकर गांव का आदमी अपने हक़ की लड़ाई लड़ने लगा है. इसे ही इस वैकल्पिक मीडिया की शक्ति कह सकते हैं. इसमें विज्ञापन और पेज-थ्री का ग्लैमर नहीं है और न ही गला काट प्रतियोगिता. यहां स़िर्फ सामाजिक सरोकार और जनहित से जुड़े मसले उठते हैं. इनमें प्रशासन के खिला़फ आवाज़ उठाने का माद्दा है. सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस आंचलिक पत्रकारिता पर अभी तक कॉरपोरेट और दलालों की छाया नहीं पड़ी है. उम्मीद की जानी चाहिए कि बुंदेलखंड की तर्ज़ पर अन्य राज्यों के पिछड़े इलाक़ों में भी सच की आवाज़ बनने वाले इस वैकल्पिक मीडिया को ब़ढावा मिलेगा.

Friday, September 7, 2012

टीम इंडियाः चारों खाने चित्त


अभी कुछ ही दिनों पहले भारत के ख़िला़फ दूसरे टेस्ट में जीत दर्ज करने के बाद इंग्लैंड की तऱफ से दो ऐसे अप्रत्याशित वाकए सामने आए, जो भारतीय मीडिया और कुछ वरिष्ठ खिलाड़ियों को नागवार गुजरे. पहली बार जब इंग्लैंड टीम ने एक प्रेस कांफ्रेंस में यह दावा किया था कि हम पूरी सीरीज में भारत का सूपड़ा साफ कर देंगे. दूसरी घटना, जब लंदन के मीडिया ने भारतीय टीम पर अपमानजनक और आपत्तिजनक टिप्पणी करते हुए यह कहा था कि भारतीय टीम उस कुत्ते की तरह है, जिससे अगर डरा न जाए तो वह ख़ुद ही डर कर भाग जाता है. दोनों ही मामलों में भारत के पास जवाब देने के लिए दो टेस्ट बाक़ी थे.

जैसा कि कहते हैं कि इस जेंटलमैन गेम में हर बात का मुंह तोड़ जवाब अपने प्रदर्शन से दिया जाता है, टीम इंडिया भी बचे हुए दोनों टेस्टों में इंग्लैंड को धूल चटाकर यह साबित कर सकती थी कि लंबे समय बाद इंग्लैंड क्रिकेट टीम की जीत के बाद वहां का मीडिया पगला और बौखला गया है और फिर इंग्लैंड की गीदड़ भभकी दुनिया के सामने जगज़ाहिर हो जाती. अब इस पर जल्दी विश्वास नहीं होता कि यह वही टीम इंडिया है, जिसने विश्व विजेता ऑस्ट्रेलिया के विजय रथ को रोका था, टी-20, आईपीएल और वर्ल्डकप की हैट्रिक लगाई थी. आम तौर पर ऐसा होता है कि जो टीम सिलसिलेवार जीतती जाती है, उससे अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं. क्रिकेट प्रेमियों की हर अपेक्षा पर खरा उतरना आसान भी नहीं है, लेकिन जिस तरीक़े से इस सीरीज में टीम इंडिया चारों खाने चित्त रही, यह उम्मीद तो हम किसी नई नवेली टीम से ही कर सकते हैं. लेकिन हुआ क्या?

 आख़िरकार वही, जिसके आसार बहुत पहले से  दिख रहे थे. भारत पूरी सीरीज में हर क्षेत्र में चारों खाने चित्त दिखा. अपने दावों को इंग्लैंड ने सही साबित किया और टीम इंडिया की आख़िरी हार एक पारी और आठ रनों से हुई. इसके साथ ही भारत इंग्लैंड से टेस्ट सीरीज 0-4 से हार गया. इस हार के बाद भारतीय टीम आईसीसी की टेस्ट टीमों के वरीयता क्रम में तीसरे स्थान पर पहुंच गई है. नंबर वन पर इंग्लैंड और दूसरे नंबर पर दक्षिण अफ्रीका पहुंच गया है. कल तक टीम इंडिया के लिए मिस्टर लकी के नाम से मशहूर महेंद्र सिंह धोनी का लक कब बैडलक में बदल गया, किसी को भी पता नहीं चला. अभी तक धोनी की कप्तानी में टीम इंडिया हारी नहीं थी और अब हारी है तो ऐसी कि किसी को मुंह दिखाते नहीं बन रहा है. धोनी की कप्तानी में यह पहला मौक़ा है, जब भारत कोई टेस्ट सीरीज हारा है. आपको बता दें कि पिछले चालीस सालों में भारत की यह सबसे बड़ी और शर्मनाक हार है. धोनी कहते हैं कि इस हार के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे खिलाड़ी चोटिल रहे और हम अपनी क्षमता के अनुरूप अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाए. धोनी ने इसके लिए अपर्याप्त अभ्यास को भी दोषी ठहराया. लेकिन जब टीम इंडिया जीत रही थी, तब धोनी ने यह मसला क्यों नहीं उठाया. इस हार के बाद टीम इंडिया की चारों ओर आलोचना हो रही है. मैच के  पांचवें दिन फॉलोऑन खेलते हुए केवल वह 283 रन ही बना पाई. ग़ौरतलब है कि भारत ने पहली पारी में इंग्लैंड के  छह विकेट पर 591 रनों के जवाब में 300 रन बनाए थे. हालांकि सचिन तेंदुलकर और अमित मिश्रा ने आख़िरी दिन कुछ अच्छा खेल दिखाने की कोशिश की, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और भारत के हाथ से सफलता बहुत दूर निकल चुकी थी. भारत इस सीरीज में एक ओर शर्मनाक तरीक़े से हारा ही, ऊपर से जिन लोगों ने ओवल में सचिन के शतक की आस लगा रखी थी, वे भी नर्वस नाइंटी के शिकार होकर लौट गए यानी हार तो हार भारत को सचिन का सौंवा शतक देखने का भी मौक़ा नहीं मिला. सचिन 91 रन बनाकर एलबीडब्ल्यू हो गए. लॉर्ड्स में हुए पहले टेस्ट से लेकर ओवल में हुए आख़िरी टेस्ट तक भारत की कमान एक थके हुए खिलाड़ी महेंद्र सिंह धोनी के पास थी. उनके चयन पर भी अब सवाल उठाए जा सकते हैं. खिलाड़ियों के अलावा मैदान में फिल्डिंग सजाने से लेकर सही समय पर सही गेंदबाज़ों को मोर्चे पर न लगाने में भी उनकी असफलता साफ दिखाई दी. धोनी को इन सब खामियों के जवाब खोजने होंगे, लेकिन भारतीय टीम का नुक़सान स़िर्फ इस सीरीज तक सीमित नहीं है, टीम को इस सीरीज से ऐसे जख्म मिले हैं, जो उसे आने वाले महत्वपूर्ण मैचों में भी दिखाई देंगे. सीरीज में जहां भारत ने क्रिकेट प्रेमियों का दिल तोड़ा है, वहीं टीम के कई खिलाड़ियों की हड्डी भी टूटी है.

 जी हां, इंग्लैंड के ख़िला़फ सीरीज ने टीम इंडिया के खिलाड़ियों की फिटनेस पर सवालिया निशान लगा दिए हैं. आधी टीम इंडिया चोटिल होकर बाहर बैठी है. चोटिल खिलाड़ियों की सूची में विस्फोटक सलामी बल्लेबाज़ वीरेंद्र सहवाग और तेज गेंदबाज़ ईशांत शर्मा का नाम जुड़ गया है. इसके अलावा इस सूची में ज़हीर ख़ान, युवराज सिंह एवं हरभजन सिंह पहले ही सीरीज से बाहर हो चुके थे. टीम इंडिया इस दौरे पर चोटों से ही जूझती रही है. लॉड्‌र्स के पहले टेस्ट मैच में ही ज़हीर ख़ान चोटिल होकर बाहर हो गए. उसी मैच में गौतम गंभीर भी चोटिल होकर बाहर हो गए. उनकी ग़ैर मौजूदगी में राहुल द्रविड़ को सलामी बल्लेबाज़ की भूमिका निभानी पड़ी. इसके बाद भी टीम इंडिया के खिलाड़ियों की चोटों का सिलसिला थमा नहीं. काफी लंबे समय बाद टीम में वापसी करने वाले युवराज सिंह और फिरकी गेंदबाज़ हरभजन सिंह भी इस मैच में चोटिल होकर बाहर हो गए. टीम इंडिया सीरीज में चोटों की वजह से 2-0 से पिछड़ गई थी. इसके बाद अपनी पुरानी चोट से उभरे वीरेंद्र सहवाग ने सीरीज में वापसी की. इसके अलावा गौतम गंभीर और ज़हीर ख़ान भी इस मैच में वापस आए. ज़हीर ख़ान मैच की पहली पारी के दौरान ही चोटिल होकर पूरी सीरीज से बाहर हो गए. इसके अलावा प्रवीण कुमार भी दूसरी पारी में बल्लेबाज़ी के दौरान अपना अंगूठा चोटिल करा बैठे थे. गंभीर और सहवाग भी पूरी तरह से फिट नहीं थे. सहवाग इस वजह से दोनों पारियों में खाता तक नहीं खोल पाए. लिहाज़ा नतीजा यह हुआ कि टीम इंडिया यह मैच भी बुरी तरह चौथे दिन ही हार गई. चौथे टेस्ट तक आते-आते गौतम गंभीर और सहवाग दोनों चोटिल हो गए थे. गंभीर इस मैच में भी पारी की शुरुआत करने नहीं उतर पाए थे. सहवाग भी दूसरी पारी में चोटिल हो गए. इससे पहले ईशांत शर्मा भी गेंदबाज़ी के दौरान अपने बाएं हाथ की उंगली में चोट खा बैठे थे. सहवाग की जगह मुंबई के  सलामी बल्लेबाज़ अजंकया रेहाणे और ईशांत की जगह तेज गेंदबाज़ वरुण अरोड़ा को मौक़ा दिया गया. लेकिन क्या ऐसा संभव है कि अचानक टीम के इतने सारे खिलाड़ी एक साथ चोटिल हो जाएं. असल में पिछले साल से लगातार मुना़फा और क्रिकेट मैच में मिलने वाली कमाई के लोभ में फंसे खिलाड़ी अपनी चोटें छिपाते हैं. गौतम गंभीर का वाकया तो सबको याद होगा. इसके अलावा आईपीएल के दौरान ही सहवाग भी घायल हुए थे, लेकिन उस व़क्त शायद सहवाग ने अपना इलाज कराना ज़रूरी नहीं समझा और इसी का खामियाजा इंग्लैंड में मिली शर्मनाक हार के रूप में भुगतना पड़ा. अब इस पर जल्दी विश्वास नहीं होता कि यह वही टीम इंडिया है, जिसने विश्व विजेता ऑस्ट्रेलिया के विजय रथ को रोका था, टी-20, आईपीएल और वर्ल्डकप की हैट्रिक लगाई थी. आम तौर पर ऐसा होता है कि जो टीम सिलसिलेवार जीतती जाती है, उससे अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं. क्रिकेट प्रेमियों की हर अपेक्षा पर खरा उतरना आसान भी नहीं है, लेकिन जिस तरीक़े से इस सीरीज में टीम इंडिया चारों खाने चित्त रही, यह उम्मीद तो हम किसी नई नवेली टीम से ही कर सकते हैं. अब व़क्त है धोनी और उन सभी खिलाड़ियों के लिए कि वे इस हार पर गहन चिंतन-मनन ज़रूर करें. - See more at: http://www.chauthiduniya.com/2011/09/team-india-defeated-all-around.html#sthash.DShpXJbC.dpuf

Wednesday, February 1, 2012

राष्‍ट्रीय वीरता पुरस्‍कार-2011 जज़्बे की कोई उम्र नहीं होती



अगर दिल में बहादुरी का जज़्बा हो तो उम्र की ज़ंजीरें बहुत कमज़ोर हो जाती हैं. राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार-2011 के लिए चयनित नन्हें जांबाज़ों के कारनामे कुछ यही बयां करते हैं. राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार इस बार 24 बच्चों को दिया गया. इनमें कुछ बच्चों को यह पुरस्कार मरणोपरांत दिया गया. वीरता पुरस्कार पाने वाले ये सभी वे बच्चे हैं, जिन्होंने विभिन्न घटनाओं में अपनी जान की परवाह किए बिना न स़िर्फ दूसरों की जान बचाई, बल्कि सभी को संदेश दिया है कि जज़्बे की कोई उम्र नहीं होती है. किसी ने अपने साथियों को जलती आग की लपटों से बाहर निकाला तो किसी ने गहरे पानी में खुद डूबकर दूसरों की जान बचाई. किसी ने चोरों का सामना किया और अपनी गर्दन कटने के बावजूद अंत तक डटे रहे तो कुछ ने भूस्खलन में भी अपने साथियों का साथ नहीं छोड़ा और अपनी जान अपने दोस्तों पर न्योछावार कर दी.

 छोटी उम्र में बड़ों जैसे कारनामे करने वाले इन होनहारों को गणतंत्र दिवस समारोह से पहले एक समारोह में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सम्मानित किया. इन सभी बच्चों ने गणतंत्र दिवस पर आयोजित परेड में भी भाग लिया. इस बार के वीरता पुरस्कार के लिए चयनित बच्चों में 16 लड़के और आठ लड़कियां हैं. इनमें पांच बच्चों ने अपनी जान गंवाकर दूसरों की जान बचाई है. ग़ौरतलब है कि अब तक 824 बच्चों को यह सम्मान मिल चुका है, जिसमें से 584 लड़के और 240 लड़कियां शामिल हैं. आपको बता दें कि राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार भारतीय बाल कल्याण परिषद के तत्वावधान में 1975 से प्रदान किए जा रहे हैं. इस वर्ष 16 लड़के और आठ लड़कियों को राष्ट्रीय वीरता सम्मान के लिए चुना गया, जिनमें से पांच बच्चों को यह सम्मान मरणोपरांत दिया गया.

इस साल केरल व छत्तीसगढ़ से तीन-तीन, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और मणिपुर से दो-दो बच्चों को राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार के लिए चुना गया है. उत्तराखंड, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, राजस्थान, मिज़ोरम व उड़ीसा से एक-एक बच्चे को चुना गया है. प्रतिष्ठित गीता चोपड़ा पुरस्कार गुजरात की 13 वर्षीया मित्तल महेंद्रभाई पताडिया को दिया गया. उसने अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए हथियारबंद अपराधियों का सामना किया था और डकैती के प्रयास को विफल कर दिया था. चोरों ने उसकी गर्दन तक काट डाली थी. इसके बावजूद उसने चोरों को पकड़े रखा. पड़ोसियों ने मित्तल को अस्पताल में भर्ती कराया, जहां चार घंटे तक चले ऑपरेशन के दौरान उसके गले पर 351 टांके लगे, इसके  बाद उसे बचाया जा सका. चार घंटे की सर्जरी में मित्तल का घाव बंद किया जा सका. इस वर्ष का भारत पुरस्कार उत्तराखंड के कपिल नेगी 15 वर्ष को मरणोपरांत प्रदान दिया गया. 8 सितंबर 2010 को कपिल अपने साथियों के साथ स्कूल जा रहा था. नज़दीक में ही एक नाला था. अधिक वर्षा होने के कारण भूस्खलन होने लगा. नतीजतन पुल का रास्ता अवरुद्ध हो गया. कपिल अपने साथियों को पीठ के सहारे पुल पार कराने लगा. इस काम में उसके अन्य साथी भी मदद कर रहे थे. तभी पास की पहाड़ी से पत्थर गिरने लगे. यह देख सभी साथी भाग लिए लेकिन कपिल अपने साथियों की मदद करता रहा. तभी अचानक भारी चट्टान उस पर आ गिरी. कपिल की मौके पर ही मौत हो गई. कपिल ने अपने दोस्तों की जान बचाने के लिए अपनी कुर्बानी देकर असाधारण साहस का उदाहरण पेश किया. वहीं संजय चोप़डा पुरस्कार के लिए उत्तर प्रदेश के 12 वर्षीय ओम प्रकाश यादव को चयनित किया गया है.

मास्टर ओम प्रकाश ने जलती स्कूल वैन से अपने स्कूल के 8 दोस्तों को निकालकर उसकी जान बचाई थी. दिल्ली के साढ़े 12 वर्षीय उमा शंकर, अरुणाचल प्रदेश के साढ़े 14 वर्षीय स्व. आदित्य गोयल तथा छत्तीसगढ़ की रहने वाली 14 वर्षीय अंजली सिंह गौतम को बापू गैधानी पुरस्कार प्रदान किया गया. इसके अलावा वर्ष 2011 के लिए राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार पाने वालों में राजस्थान के  सात वर्षीय डूंगर सिंह, उत्तर प्रदेश की सवा 12 वर्षीय लवली वर्मा (मरणोपरांत), केरल के पौने 14 वर्षीय अंश़िफ सीके, छत्तीसगढ़ की रहने वाली सवा 10 वर्षीय शीतल साध्वी आहूजा, मिजोरम के रहने वाले 16 वर्षीय सी लालदुआमा (मरणोपरांत) को प्रदान किया गया. उत्तर प्रदेश की लवली 23 जून, 2011 को अपने नाना के यहां थी. इस दिन उसकी सहेलियां पास के ही तीन से चार मीटर गहरे तालाब में स्नान कर रही थीं. तभी अचानक लवली को दिखाई दिया कि उसकी सहेलियां पानी में डूब रही हैं. लवली ने उन्हें बचाने के लिए पानी में छलांग लगा दी. उसने किसी तरह अपनी सहेलियों को तो किनारे तक पहुंचा दिया, लेकिन खुद पानी से बाहर नहीं आ पाई. वह गहरे पानी में डूब गई, लेकिन इस छोटी बच्ची ने अपनी जान देकर भी अपनी सहेलियों की जान बचाई. इसी तरह मिज़ोरम के रहने वाले सी लालदुआमा ने भी एक गड्डे में फंसे अपने साथियों की जान बचाई. सी लालदुआमा उस व़क्त गहरे गड्ढे में अपने साथियों को बचाने के लिए कूद पड़ा, जब उसको सही से तैरना भी नहीं आता था.

बहादुरी की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है. इसके अलावा राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार की फेहरिस्त में छत्तीसगढ़ के सा़ढे 14 वर्षीय रंजन प्रधान, कर्नाटक की रहने वाली पौने 14 वर्षीय सिंधुश्री बीए, आंध्र प्रदेश के 14 वर्षीय एस शिवा प्रसाद, केरल के सवा तेरह वर्षीय मोहम्मद निशाद, उड़ीसा के सवा 11 वर्षीय प्रसन्नता शांडिल्य, मणिपुर के सवा 13 वर्षीय राकेश सिंह, केरल के पौने 17 वर्षीय सहशाद के, गुजरात की 13 वर्षीय दिव्याबेन चौहान, मणिपुर की 14 वर्षीय जॉनसन तौरांगबम और कर्नाटक के रहने वाले साढ़े 16 वर्षीय संदेश पी हेगड़े शामिल हैं. सभी ने किसी न किसी तरह से अपनी बहादुरी का परिचय देकर मानवता का नाम रोशन किया. बता दें कि राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार प्राप्त करने वाले बच्चों को पदक, प्रमाण पत्र और नक़द राशि प्रदान की जाती है. भारत पुरस्कार के तहत 50 हज़ार रुपये, गीता चोपड़ा व संजय चोपड़ा पुरस्कार के तहत 40 हज़ार रुपये और बापू गैधानी पुरस्कार के तहत प्रत्येक को 24 हज़ार रुपये तथा अन्य को 20-20 हज़ार रुपये प्रदान किए जाते हैं.

 इसके अलावा परिषद की ओर से बच्चों को हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी होने तक वित्तीय सहायता प्रदान की जाएगी. इंजीनियरिंग व मेडिकल की पढ़ाई करने की इच्छा रखने वाले बच्चों को उनकी पेशेवर पढ़ाई पूरी करने के लिए इंदिरा गांधी छात्रवृत्ति योजना के तहत वित्तीय सहायता मिलेगी. खैर, ये ईनाम तो इनकी बहादुरी की सलामी में कुछ भी नहीं है फिर भी हम इन सभी नन्हें बहादुरों के इस जज़्बे को सलाम करते हैं.