Thursday, October 28, 2010

नायकों को सलामः सोना मिला, सोने जैसे खिलाड़ी भी





38 स्वर्ण, 27 रजत और 36 कांस्य यानी कुल 101 पदक. यह है 19वें राष्ट्रमंडल खेल में भारत की तस्वीर. खेलों के आठ दशकों के इतिहास में पहली बार भारत ने राष्ट्रमंडल खेल में दूसरा स्थान हासिल किया. शानदार प्रदर्शन और खेलों के सफल आयोजन का सेहरा अपने-अपने सिर बांधने की प्रतिस्पर्धा में शीला दीक्षित और सुरेश कलमाडी की ज़ुबान थक नहीं रही है, लेकिन हम आपको इस सबसे एक अलग कहानी बताते हैं. यह कहानी है कॉमनवेल्थ के पोस्टर को फाड़कर निकले उन नायकों की, जिन्होंने पदकों की बौछार करने में अपना पसीना बहाया है. इनमें से ज़्यादातर नायक दूरदराज के गांवों में रहने वाले वे खिलाड़ी हैं, जिनके पास न तो बेहतर सुविधा है, न प्रशिक्षक हैं और न ही प्रायोजक. इनके सामने कई मुश्किलें थीं.

 घर की आर्थिक हालत जर्जर है, परिवारीजनों का समर्थन नहीं है,  रोजी-रोटी के लिए नौकरी करनी है. इसके बावजूद इन्होंने वह कर दिखाया, जो पिछले 80 सालों में कभी नहीं हुआ था. ये अपने दम पर खेले. भारत एवं भारतीयों को गर्व और ख़ुशियों की सौगात दी. कीर्तिमान यही खिलाड़ी बनाएंगे, जो सुविधारहित संसार से आए हैं. इन खिलाड़ियों के जज़्बे को सलाम. तीरंदाजी में सोना जीतने वाली 16 वर्षीय दीपिका कुमारी झारखंड के एक छोटे से गांव रतुचेती में रहती हैं. उनके पिता रांची में ऑटो रिक्शा चलाते हैं. इसके बावजूद खुद कुछ कर जाने की जिद ने दीपिका को इस मुकाम तक पहुंचाया. वहीं दस हज़ार मीटर की दौड़ में कांस्य पदक जीतने वाली कविता राउत नासिक के एक गांव से हैं.

 उन्होंने धावक बनने का फैसला इसलिए किया ,क्योंकि वह नंगे पैर दौड़ सकती थीं. इतने पैसे नहीं थे कि जूते खरीद सकें. तैराकी में विकलांग खिलाड़ी प्रशांत ने दिखाया कि बिना सुविधाओं के अगर वह कांस्य जीत सकते हैं तो सुविधाएं मिलने पर क्या कर सकते हैं. हरियाणा में भिवानी के एक छोटे से गांव की गीता कुश्ती में स्वर्ण जीतने वाली पहली महिला रहीं. उनकी बहन बबीता 51 किलोग्राम फ्री स्टाइल कुश्ती में रजत मिलने पर कह रही थीं कि वह लाज नहीं रख पाईं. इसी तरह लंबी कूद में रजत पदक लेने वाली प्रजुषा के पिता त्रिचूर में रसोइया थे, लेकिन अब बेरोज़गार हैं. इस बेकारी की हालत में भी प्रजुषा के हौसले पस्त नहीं हुए. जिमनास्टिक में रजत और कांस्य पदक जीतने वाले आशीष कुमार और हॉकी में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ गोल करने वाले दानिश इलाहाबाद के हैं और बहुत ही साधारण पृष्ठभूमि वाले परिवारों से ताल्लुक रखते हैं.


इन दोनों ने इस भ्रांति को झुठलाया कि राष्ट्रमंडल में खेलने और जीतने के लिए किसी बड़े घराने का होना जरूरी है. ऐसा ही एक नाम मुक्केबाजी में भी आता है. छोटा टायसन के नाम से मशहूर मणिपुरी बॉक्सर सुरंजय सिंह भी साधारण परिवार से होने के बावजूद भारत को स्वर्ण पदक दिलाने में कामयाब रहे. मणिपुर से ही एक और भारोत्तोलक का नाम लेना बहुत ज़रूरी है. 58 किलोग्राम वर्ग में भारोत्तोलन में देश की झोली में स्वर्ण डालने वाली रेणु बाला का करियर कई कठिन रास्तों और लंबे संघर्ष से गुज़रा है. बताते हैं कि वह संघर्ष के दिनों में बस कंडक्टर का काम भी कर चुकी हैं. यहां तक पहुंचने में उनके जज़्बे का ही कमाल है.


64 किलोग्राम वर्ग की मुक्केबाजी में मनोज कुमार ने भी भारत को स्वर्ण से नवाज़ा. ऐसे ही कई नाम हैं, जिन्होंने बगैर सुविधा और सहयोग के देश को कई पदक दिलाए. मसलन मुक्केबाजी में परमजीत समोटा, कुश्ती में सुशील कुमार, सेंटर फायर पिस्टल में हरप्रीत सिंह, कुश्ती में ही अनिल कुमार, अनीता और अलका. स्वर्ण की बात हो और हरियाणा का नाम न आए, नामुमकिन है. ज़्यादातर विजेता खिलाड़ी हरियाणा से हैं. कुछ लोग तो राष्ट्रमंडल खेलों को हरियाणा का खेल तक कह रहे हैं. ग़ौर करने वाली बात है कि तीरंदाजी, जिमनास्टिक और पैरा स्वीमिंग में भारत को इससे पहले राष्ट्रमंडल खेलों में पदक नहीं मिला. इनमें पदक जीतने वाले ज़्यादातर विजेता अनजान गांवों और क़स्बों से आए हैं.


दूसरी सबसे बड़ी बात है कि ये खिलाड़ी उन खेलों में पदक ला रहे हैं, जो ग्लैमरस स्पर्धाओं की श्रेणी से बाहर है. यह संतोष की बात है कि गांवों में रहने वाले सुविधाहीन खिलाड़ियों ने कई पदक जीते हैं, लेकिन असल समस्या यह है कि इन खेलों के बाद हम उन्हें फिर भुला देंगे. हरियाणा एवं झारखंड सरकार से सबक लेते हुए केंद्र और अन्य राज्य सरकारों को चाहिए कि वे इन खिलाड़ियों को उचित सुविधा देकर ओलंपिक के लिए तैयार करें. अगले राष्ट्रमंडल खेल स्कॉटलैंड में होंगे. हमें यह मानकर चलना चाहिए कि यह तो महज़ शुरुआत है, अभी कई कीर्तिमान बनाने बाकी हैं और ये कीर्तिमान यही खिलाड़ी बनाएंगे, जो सुविधा और सहयोगरहित संसार से आए हैं. बहरहाल, इन खिलाड़ियों के जज़्बे को सलाम. 

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