Thursday, December 30, 2010

साइना की साइनिंग रहे बरकरार



एक दौर था, जब टेनिस की दुनिया में भारत का नाम लेने वाला कोई नहीं था. अमृतराज के अलावा टेनिस में शायद ही कोई नाम हो, जिसकी वजह से भारत का नाम अंतरराष्ट्रीय खेल परिदृश्य में उभरा हो. व़क्त गुजरा और सानिया एवं साइना ने टेनिस वर्ल्ड में पदार्पण किया. इनके क़दम रखते ही ग्लैमर ने भी इस खेल में ज़बरदस्त घुसपैठ की. ग्लैमर के तड़के ने सानिया मिर्जा को तो अर्श से फर्श पर लाकर खड़ा कर दिया, लेकिन साइना अभी भी इस चक्रव्यूह से बाहर हैं. न स़िर्फ बाहर है, बल्कि उनका प्रदर्शन भी दिनोंदिन बेहतर होता जा रहा है. खेल के कई बड़े पुरस्कारों से नवाजी जा चुकीं 20 वर्षीय साइना इस समय भारत की सबसे सफल महिला खिलाड़ी हैं. जिस तरह उन्होंने हांगकांग सुपर सीरीज बैडमिंटन खिताब अपने नाम कर एक बार फिर विश्व बैडमिंटन रैंकिंग में दूसरे पायदान पर जगह बनाई है, वह काबिले तारी़फ है. ग़ौरतलब है कि साइना हांगकांग टूर्नामेंट से पहले दो स्थान गिरकर चौथे स्थान पर पहुंच गई थीं, लेकिन फिर से हांगकांग के एक कड़े मुक़ाबले मेंबाज़ी मारकर उन्होंने अपनी रैंकिंग में दो स्थान का सुधार किया और फिर से दूसरे पायदान पर पहुंच गईं. बीते साल के बेहतर प्रदर्शन को बरक़रार रखते हुए उन्होंने 2010 में पांच खिताबों और देश के सर्वोच्च खेल पुरस्कार राजीव गांधी खेल रत्न को अपनी झोली में डाला.

लेकिन यहां ग़ौर करने वाली बात यह है कि उन्हें यह सफलता यूं ही नहीं मिल गई है. इस सफलता की कहानी लिखने में कड़ी मेहनत और लंबे संघर्ष की स्याही छिपी हुई है. 17 मार्च, 1990 को हरियाणा के  हिसार में जन्मी साइना आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद में पली-बढ़ी हैं. उनका बैडमिंटन प्रशिक्षण सात साल की उम्र में ही हैदराबाद के लाल बहादुर स्टेडियम में शुरू हो गया था. उनके माता-पिता भी हरियाणा की तऱफ से बैडमिंटन खेलते थे. ज़ाहिर है, उनके असर से साइना अछूती नहीं रहीं. वह कहती हैं कि मेरे माता-पिता ने मुझे एक बेहतर खिलाड़ी बनाने में जितनी मेहनत की है, अच्छे प्रदर्शन के बल पर वह उसे सफल करना चाहती हैं. ग़ौरतलब है कि साइना के पिता हरवीर सिंह हैदराबाद के डायरेक्ट्रेट ऑफ ऑयल सीड्‌स रिसर्च में वैज्ञानिक हैं. पिता हरवीर सिंह के  मुताबिक़, साइना जिस स्टेडियम में प्रैक्टिस करने जाती थी, वह घर से 20 किलोमीटर की दूरी पर था. ट्रेनिंग सेशन के  बाद साइना को स्कूल भी जाना होता था. ऐसे में मैं उसे रोज स्कूल छोड़ने और ले आने के लिए 50 किलोमीटर स्कूटर चलाकर जाता था. बीते दिनों को याद करते हुए वह कहते हैं कि एक्स्ट्रा ट्रेनिंग सेशन शुरू होने के  बाद हर दिन साइना पर 150 रुपये का ख़र्च गाड़ी-भाड़ा पर आता था. इसके अलावा रैकेट एवं जूते आदि ख़रीदने पर भी ख़र्च होता था. इस तरह हर महीने उस पर 12 हज़ार रुपये ख़र्च होने लगे. चूंकि उस समय इतनी बड़ी राशि ख़र्च करना मेरे लिए मुश्किल था, सो इस ख़र्चे को मैनेज करने के लिए मुझे अपने प्रॉविडेंट फंड से पैसे भी निकालने पड़े. कभी-कभी साइना की खेल संबंधी ज़रूरतें पूरी करने के  लिए 30 हज़ार रुपये तो कभी एक लाख रुपये तक निकालने पड़े. इसी तरह न जाने कितने संघर्ष के रास्तों से गुजर कर साइना इस मुक़ाम तक पहुंची है.



हालांकि साइना अभी अपने लक्ष्य से थोड़ा दूर हैं. उनका अंतिम लक्ष्य विश्व रैंकिंग में एक नंबर के पायदान पर पहुंचना है. अगर थोड़ा पीछे जाकर देखें तो साइना ने 2006 में विश्व बैडमिंटन जगत में अपनी पहचान बनानी शुरू कर दी थी. यह वह दौर था, जब उन्होंने फिलीपींस ओपन प्रतियोगिता जीती. बीजिंग में आयोजित ओलंपिक खेलों में वह अंतिम आठ में जगह बनाने वाली पहली भारतीय महिला बैडमिंटन खिलाड़ी भी बनी थीं. उसके  बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और तबसे अभी तक विश्व बैडमिंटन रैंकिंग में लगातार ऊपर की ओर ही बढ़ती जा रही हैं. हालांकि उनके सामने चुनौतियां भी कम नहीं हैं. इन चुनौतियों में कड़ी प्रतियोगिताएं हैं, साथ ही सफलता का गुरूर, ग्लैमर की चकाचौंध और पेज थ्री पार्टियां भी हैं. अगर इन सबसे साइना बची रहती हैं तो फिर खेलप्रेमियों का आशीर्वाद और उम्मीदें उनके साथ हैं.


साइना में ओलंपिक मेडल जीतने की क्षमता है. उसने अभी अपना करियर ही शुरू किया है. वह कम से कम दो और ओलंपिक में हिस्सा लेगी. दिनोंदिन उसका खेल और धारदार होता जा रहा है.

-पी गोपीचंद, साइना के कोच एवं पूर्व बैडमिंटन चैंपियन


साइना कई वर्षों से किसी पार्टी, रेस्तरां या सिनेमाहॉल में नहीं गई थी. जब पहली बार मीडिया वाले मेरे घर पर एक कार्यक्रम शूट करने आए तो मैं मिठाई भी नहीं खिला सका.

-हरवीर सिंह, साइना के पिता

Tuesday, November 16, 2010

सूफी सैय्यद जिलानी कत्ताल का अयोध्‍या दौरा : अमन की राह पर एक सार्थक पहल





जहां एक तरफ सुन्नी व़क्फ बोर्ड और विभिन्न हिंदू संगठनों ने अयोध्या मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का मन बना लिया है, वहीं दूसरी ओर इस मामले को अदालत से बाहर सुलझा लेने की कोशिशें भी जारी हैं. अच्छी बात यह है कि यह प्रयास हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्म के धर्मगुरुओं, विद्वानों एवं हाशिम अंसारी जैसे आम नागरिक की तऱफ से किए जा रहे हैं. ये नेक नीयत वाले लोग हैं, जो इस मसले को आपसी सद्भाव, सौहार्द्र और बातचीत से सुलझाने की कोशिशों में लगे हुए हैं. ऐसी ही एक कोशिश अक्टूबर की 26 तारी़ख को देखने को मिली, जिसके तहत श्री राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण न्यास के अध्यक्ष रसिक पीठाधीश्वर महंत जन्मेजय शरण और वर्ल्ड सूफी काउंसिल के चेयरमैन सूफी सैय्यद जिलानी कत्ताल ने मिलकर बैठक के ज़रिए अयोध्या मसले को निपटाने की बात कही.

सैय्यद मोहम्मद जिलानी के अयोध्या आगमन के बाद हुई इस पहल में रामनगरी के कई धर्माचार्य शामिल हुए. ग़ौरतलब है कि रसिक पीठाधीस्वर महंत जन्मेजय शरण सूफी सैय्यद जिलानी कत्ताल के साथ मिलकर दस वर्षों से भारत के कोने-कोने में सद्भाव यात्रा के माध्यम से शांति, अमन और सौहार्द्र का पैग़ाम दे रहे हैं. भक्ति आश्रम के महंत राम प्रिया शरण की अध्यक्षता में हुई इस बैठक में बड़ा भक्तमाल के महंत कौशल किशोर दास, आचार्य राम टहल शरण वेदांती, सुतीक्ष्ण आश्रम के महंत जगदेव शरण, स्वामी पराकुंशाचार्य के अलावा आल इंडिया प्रियंका-राहुल गांधी फोरम के प्रदेश सचिव नारायण मिश्र, जिलाध्यक्ष मधुबन दास एवं कांग्रेस के ज़िला उपाध्यक्ष बालकृष्ण गोस्वामी भी मौजूद थे. महंत जन्मेजय शरण ने जानकी घाट स्थित बड़े स्थान मंदिर परिसर में आयोजित शांति सौहार्द्र वार्ता में उपस्थित संत समुदाय को संबोधित करते हुए कहा कि देश की अखंडता बनी रहेगी तो इस मामले का हल अपने आप हो जाएगा.


 महंत जन्मेजय शरण ने जानकी घाट स्थित बड़े स्थान मंदिर परिसर में आयोजित शांति सौहार्द्र वार्ता में उपस्थित संत समुदाय को संबोधित करते हुए कहा कि देश की अखंडता बनी रहेगी तो इस मामले का हल अपने आप हो जाएगा. उन्होंने कहा कि हम लोग देश के अलग-अलग इलाक़ों में सद्भावना स्थापित करने के साथ बातचीत के जरिए मसले के समाधान में जुटे हैं. देशवासियों की ओर से भी इस दिशा में सकारात्मक समर्थन मिला है. सूफी सैय्यद जिलानी जब अयोध्या पहुंचे तो वहां उन्होंने जन्मेजय शरण और अन्य संत-महंतों के साथ रामलला के दर्शन किए. उसके बाद वह गुरुद्वारा ब्रह्मकुंड गए, जहां उन्होंने माथा टेका. वर्ल्ड सूफी काउंसिल के चेयरमैन सूफी सैय्यद जिलानी ने कहा कि चाहे कश्मीर हो या अयोध्या, सभी मसलों का हल आपसी बातचीत से ही संभव है. फिर हम आपस में क्यों लड़ें? जरूरत तो इस बात की है कि इस दिशा में सार्थक पहल की जाए और लोग इसमें अपनी भरपूर भागीदारी करें.


इससे देश की एकता और अखंडता मज़बूत होगी. कोई भी मजहब खूऩखराबे की इजाज़त नहीं देता. फिर मंदिर-मस्जिद के नाम पर खून क्यों बहाया जा रहा है? अगर हम ही नहीं रहेंगे तो मंदिर-मस्जिद में इबादत आ़खिर करेगा कौन? इस्लाम गले लगाने का हिमायती है और मज़हब से बड़ी इंसानियत है. अयोध्या मसले के समाधान में सभी समुदाय के लोगों का सहयोग ज़रूरी है. उन्होंने कहा कि सुप्रीमकोर्ट के बाद क्या होगा, आ़खिर वहां से वापस आकर भी बातचीत का ही रास्ता अपनाना पड़ेगा. जिलानी ने बैठक में कई महत्वपूर्ण बातें कहीं. उन्होंने कहा कि मोहम्मद साहब ने हमें इंसानियत का पाठ पढ़ाकर ग़ैर मजहबी लोगों को गले लगाने और पीड़ितों की मदद करने का संदेश दिया है. उन्होंने बाबरी मस्जिद के मुद्दई हाशिम अंसारी के प्रयासों की सराहना की और कहा कि समय मिला तो वह उनसे मिलने भी जाएंगे. सबसे पहले खुद को भारतीय बताते हुए सैय्यद जिलानी ने देश की तरक्की को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया.

महंत जन्मेजय शरण ने कहा कि अयोध्या मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की जन्मस्थली है, लेकिन यहां अन्य धर्मों को भी बराबर सम्मान मिलता रहा है. हम हिंदू-मुस्लिम बाद में हैं, पहले इंसान हैं. हनुमानगढ़ी के नागा रामलखन दास ने अयोध्या मसले को राजनीतिक रंग देने वालों को इससेदूर रहने की सलाह दी. ज़ाहिर है, इन विद्वानों के नेक प्रयास इस बात के उदाहरण हैं कि हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब आज भी ज़िंदा है, जो किसी भी सांप्रदायिक संगठन या राजनीतिक दल के खतरनाक़ मंसूबों को पूरा नहीं होने देगी. 

Thursday, October 28, 2010

नायकों को सलामः सोना मिला, सोने जैसे खिलाड़ी भी





38 स्वर्ण, 27 रजत और 36 कांस्य यानी कुल 101 पदक. यह है 19वें राष्ट्रमंडल खेल में भारत की तस्वीर. खेलों के आठ दशकों के इतिहास में पहली बार भारत ने राष्ट्रमंडल खेल में दूसरा स्थान हासिल किया. शानदार प्रदर्शन और खेलों के सफल आयोजन का सेहरा अपने-अपने सिर बांधने की प्रतिस्पर्धा में शीला दीक्षित और सुरेश कलमाडी की ज़ुबान थक नहीं रही है, लेकिन हम आपको इस सबसे एक अलग कहानी बताते हैं. यह कहानी है कॉमनवेल्थ के पोस्टर को फाड़कर निकले उन नायकों की, जिन्होंने पदकों की बौछार करने में अपना पसीना बहाया है. इनमें से ज़्यादातर नायक दूरदराज के गांवों में रहने वाले वे खिलाड़ी हैं, जिनके पास न तो बेहतर सुविधा है, न प्रशिक्षक हैं और न ही प्रायोजक. इनके सामने कई मुश्किलें थीं.

 घर की आर्थिक हालत जर्जर है, परिवारीजनों का समर्थन नहीं है,  रोजी-रोटी के लिए नौकरी करनी है. इसके बावजूद इन्होंने वह कर दिखाया, जो पिछले 80 सालों में कभी नहीं हुआ था. ये अपने दम पर खेले. भारत एवं भारतीयों को गर्व और ख़ुशियों की सौगात दी. कीर्तिमान यही खिलाड़ी बनाएंगे, जो सुविधारहित संसार से आए हैं. इन खिलाड़ियों के जज़्बे को सलाम. तीरंदाजी में सोना जीतने वाली 16 वर्षीय दीपिका कुमारी झारखंड के एक छोटे से गांव रतुचेती में रहती हैं. उनके पिता रांची में ऑटो रिक्शा चलाते हैं. इसके बावजूद खुद कुछ कर जाने की जिद ने दीपिका को इस मुकाम तक पहुंचाया. वहीं दस हज़ार मीटर की दौड़ में कांस्य पदक जीतने वाली कविता राउत नासिक के एक गांव से हैं.

 उन्होंने धावक बनने का फैसला इसलिए किया ,क्योंकि वह नंगे पैर दौड़ सकती थीं. इतने पैसे नहीं थे कि जूते खरीद सकें. तैराकी में विकलांग खिलाड़ी प्रशांत ने दिखाया कि बिना सुविधाओं के अगर वह कांस्य जीत सकते हैं तो सुविधाएं मिलने पर क्या कर सकते हैं. हरियाणा में भिवानी के एक छोटे से गांव की गीता कुश्ती में स्वर्ण जीतने वाली पहली महिला रहीं. उनकी बहन बबीता 51 किलोग्राम फ्री स्टाइल कुश्ती में रजत मिलने पर कह रही थीं कि वह लाज नहीं रख पाईं. इसी तरह लंबी कूद में रजत पदक लेने वाली प्रजुषा के पिता त्रिचूर में रसोइया थे, लेकिन अब बेरोज़गार हैं. इस बेकारी की हालत में भी प्रजुषा के हौसले पस्त नहीं हुए. जिमनास्टिक में रजत और कांस्य पदक जीतने वाले आशीष कुमार और हॉकी में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ गोल करने वाले दानिश इलाहाबाद के हैं और बहुत ही साधारण पृष्ठभूमि वाले परिवारों से ताल्लुक रखते हैं.


इन दोनों ने इस भ्रांति को झुठलाया कि राष्ट्रमंडल में खेलने और जीतने के लिए किसी बड़े घराने का होना जरूरी है. ऐसा ही एक नाम मुक्केबाजी में भी आता है. छोटा टायसन के नाम से मशहूर मणिपुरी बॉक्सर सुरंजय सिंह भी साधारण परिवार से होने के बावजूद भारत को स्वर्ण पदक दिलाने में कामयाब रहे. मणिपुर से ही एक और भारोत्तोलक का नाम लेना बहुत ज़रूरी है. 58 किलोग्राम वर्ग में भारोत्तोलन में देश की झोली में स्वर्ण डालने वाली रेणु बाला का करियर कई कठिन रास्तों और लंबे संघर्ष से गुज़रा है. बताते हैं कि वह संघर्ष के दिनों में बस कंडक्टर का काम भी कर चुकी हैं. यहां तक पहुंचने में उनके जज़्बे का ही कमाल है.


64 किलोग्राम वर्ग की मुक्केबाजी में मनोज कुमार ने भी भारत को स्वर्ण से नवाज़ा. ऐसे ही कई नाम हैं, जिन्होंने बगैर सुविधा और सहयोग के देश को कई पदक दिलाए. मसलन मुक्केबाजी में परमजीत समोटा, कुश्ती में सुशील कुमार, सेंटर फायर पिस्टल में हरप्रीत सिंह, कुश्ती में ही अनिल कुमार, अनीता और अलका. स्वर्ण की बात हो और हरियाणा का नाम न आए, नामुमकिन है. ज़्यादातर विजेता खिलाड़ी हरियाणा से हैं. कुछ लोग तो राष्ट्रमंडल खेलों को हरियाणा का खेल तक कह रहे हैं. ग़ौर करने वाली बात है कि तीरंदाजी, जिमनास्टिक और पैरा स्वीमिंग में भारत को इससे पहले राष्ट्रमंडल खेलों में पदक नहीं मिला. इनमें पदक जीतने वाले ज़्यादातर विजेता अनजान गांवों और क़स्बों से आए हैं.


दूसरी सबसे बड़ी बात है कि ये खिलाड़ी उन खेलों में पदक ला रहे हैं, जो ग्लैमरस स्पर्धाओं की श्रेणी से बाहर है. यह संतोष की बात है कि गांवों में रहने वाले सुविधाहीन खिलाड़ियों ने कई पदक जीते हैं, लेकिन असल समस्या यह है कि इन खेलों के बाद हम उन्हें फिर भुला देंगे. हरियाणा एवं झारखंड सरकार से सबक लेते हुए केंद्र और अन्य राज्य सरकारों को चाहिए कि वे इन खिलाड़ियों को उचित सुविधा देकर ओलंपिक के लिए तैयार करें. अगले राष्ट्रमंडल खेल स्कॉटलैंड में होंगे. हमें यह मानकर चलना चाहिए कि यह तो महज़ शुरुआत है, अभी कई कीर्तिमान बनाने बाकी हैं और ये कीर्तिमान यही खिलाड़ी बनाएंगे, जो सुविधा और सहयोगरहित संसार से आए हैं. बहरहाल, इन खिलाड़ियों के जज़्बे को सलाम. 

Thursday, September 30, 2010

सामुदायिक रेडियो: आखिर किसके लिए






हाल ही में केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी नेे 2012 तक देश भर में चार हज़ार से अधिक सामुदायिक रेडियो स्टेशन खोलने की घोषणा की. हमेशा की तरह जनहित में एक और योजना घोषित हो गई, पर शायद अंबिका जी को पता नहीं है कि इस देश में योजनाओं की घोषणा करना जितना आसान है, उन्हें कार्यान्वित कर पाना उससे कहीं ज़्यादा मुश्किल है. मंत्री जब भी किसी क्षेत्र के दौरे पर होते हैं या मीडिया से मुखातिब होते हैं, घोषणाओं की एक लंबी फेहरिस्त जारी कर देते हैं. इसके बाद मीडिया और सरकार का काम पूरा हो जाता है और इन योजनाओं का क्रियान्वयन भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है. फिर भले ही इन योजनाओं को व्यवसायिक संस्थान अपने तरीके से तोड़- मरोड़ कर निजी स्वार्थों के लिए प्रयोग करें. सामुदायिक रेडियो यानी कम्युनिटी रेडियो की भी यही कहानी है. विकास से वंचित और पिछड़े समुदायों को ब़ढावा देने के लिए शुरू किए गए सामुदायिक रेडियो स्टेशन भी व्यवसायिक कंपनियों की कमाई का ज़रिया बनते जा रहे हैं.

एक ग़ैर सरकारी आंकड़े के मुताबिक, कम्युनिटी रेडियो के ज्यादातर लाइसेंस प्राइवेट सेक्टर के गिने-चुने मीडिया ग्रुपों को ही दिए गए हैं. पिछले साल तक सरकार ने एफएम चैनल चलाने के लिए अलग-अलग राज्यों के लगभग 100 शहरों में विभिन्न कंपनियों को लगभग 350 लाइसेंस बांटे. इस बंदरबांट में लाइसेंस बड़े संस्थानों की ही झोली में गए और छोटे समूह अपनी जगह भी नहीं बना पाए यानी उन्हें कोई भागीदारी नहीं मिली. रेडियो के इस कारोबार को विदेशी कंपनियां अपने कब्जे में लेने के लिए उतावली हैं. लाभ कमाने के लिए बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश के लिए मीडिया संस्थान आगे आ रहे हैं और इसके लिए सामुदायिक रेडियो के नाम पर एफएम को प्रोत्साहित किया जा रहा है.

सब जानते हैं कि रेडियो में विज्ञापन कमाई का एक बहुत बड़ा जरिया है. जबकि भारत सरकार ने 2002 में आईआईटी/आईआईएम सहित सुस्थापित शैक्षणिक संस्थानों में सामुदायिक रेडियो को स्थापित करने के लिए लाइसेंस प्रदान करने हेतु एक नीति अनुमोदित की थी. बाद में पुनर्विचार करते हुए सरकार ने अब विकास और सामाजिक परिवर्तन से संबधित मुद्दों पर और अधिक भागीदारी की अनुमति देने के उद्देश्य से सिविल सोसाइटी एवं स्वैच्छिक संगठनों को अपने सीमा क्षेत्र के अंतर्गत लाकर इस नीति को विस्तार दिया. इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सामुदायिक रेडियो को चलाने के इच्छुक संगठन ग़ैर लाभकारी संगठन के रूप में गठित होने चाहिए. इसके अलावा सामुदायिक रेडियो चलाने के लिए सरकार मुफ्त में लाइसेंस देती है. बशर्ते इसमें करियर, व्यवसाय, महिला सशक्तिकरण, स्वास्थ्य, स्थानीय संगीत, खेल और स्थानीय मुद्दों पर आधारित कार्यक्रमों का प्रसारण किया जाए, लेकिन होता कुछ और है.


वर्ष 1991 के आसपास जैसे ही उदारीकरण के नाम पर बाजार खुला, देश में कई माध्यमों की अवधारणाओं का अंकुर फूट पड़ा. यह वह दौर था, जब प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सूचना का अधिकार जैसे माध्यम गांव तक बेअसर हो रहे थे. इन माध्यमों को प्रभावी बनाने के साथ-साथ बाज़ार में खड़ा करने की पुरजोर कोशिशों के बीच ही कम्युनिटी रेडियो की अवधारणा पनपी. अगर वैश्विक स्तर पर बात करें तो सामुदायिक रेडियो का बीज 1940 के दशक में लैटिन अमेरिका में पड़ा था और दक्षिण एशिया में नेपाल पहला देश है, जहां 1997 में सामुदायिक रेडियो की शुरुआत हुई. भारत में पहली बार सामुदायिक रेडियो की शुरुआत आकाशवाणी के सहभागी के तौर पर भुज (गुजरात) में हुई. लगभग 10 से 12 किमी तक की रेंज कवर करने वाले इस सामुदायिक रेडियो की जब नींव डाली गई थी, तब इसका मकसद ग्रामीण जनता की आवश्यकता, प्राथमिकता, समस्या, सुझाव और समाधान से जुड़ा था. शुरुआत में तो सब ठीक चला, लेकिन जैसे-जैसे निजी क्षेत्रों और बहुराष्ट्रीय संस्थानों का उदय हुआ, बड़े-बड़े व्यापारियों की मुनाफाखोर नज़रें रेडियो बाजार पर टिक गईं और सामुदायिक समस्याओं के निवारण के लिए बना यह साधन आज मनोरंजन का साधन मात्र बनकर रह गया है. इससे भी ज़्यादा चिंता का विषय यह है कि आज इसके नाम पर कई गतिविधियां बगैर सामुदायिक सहयोग से चल रही हैं. कम्युनिटी रेडियो में बतौर आरजे (रेडियो जॉकी) काम कर रहे सुशांत सिंह बताते हैं कि आज कम्युनिटी रेडियो में काम करने वाले कर्मचारी प्रशासनिक पहुंच के दम पर काम कर रहे हैं या फिर वे लाइसेंस धारक कंपनियों के फिरंगी रिश्तेदार हैं.

कुल मिलाकर जिस तबके के लोगों के सामाजिक, कलात्मक, रचनात्मक और आर्थिक विकास के लिए यह रेडियो शुरू किया गया था, वहां अब इसका नामोनिशान तक नहीं दिखता. हालांकि बिहार और हरियाणा के गांवों में चलने वाले कुछ सामुदायिक रेडियो आज भी अपने लक्ष्य की तऱफ बढ़ रहे हैं, पर इतना नाकाफी है. सरकारी ज़ुबान में बोलें तो सामुदायिक रेडियो का स्वरूप लोकतांत्रिक है, जिसमें हर व्यक्ति को बोलने, सुनने और जनहित के कार्यक्रम बनाने की पूरी आज़ादी है. इस माध्यम के ज़रिए ग्रामीणों और मूलभूत सुविधाओं से वंचित तबकों के विकास और सशक्तिकरण की राह खुलती है. इससे जुड़कर हम विकास से वंचित, उपेक्षित और सताए हुए लोगों की मुक्ति का माध्यम बनकर समुदाय में गुणात्मक परिवर्तन ला सकते हैं, लेकिन ऐसा कितने सामुदायिक रेडियो स्टेशनों में हो रहा है, यह शोध का विषय है.



राघव रेडियो का जिंदा रहना जरूरी

एक तऱफ सरकार सामुदायिक रेडियो स्टेशन के लाइसेंस के लिए इच्छुक संस्था को कई विभागों के चक्कर कटवाती है, वहीं बिहार के वैशाली जिले के मंसूरपुर में रहने वाले राघव महतो की कहानी चौंकाने वाली है. राघव ने बिना किसी सरकारी मदद के अपने दम पर कम्युनिटी रेडियो का संचालन किया है. राघव ने एक साल के दौरान इकट्ठे किए हुए यंत्रों और उपकरणों के साथ रेडियो स्टेशन शुरू किया था. यह स्टेशन मुजफ्फरपुर, वैशाली और सारण ज़िलों में एक सामुदायिक रेडियो सेवा संचालित करता था. इस पर स्थानीय बोली में स्थानीय ख़बरें, गीत, एड्स जागरूकता, पोलियो उन्मूलन, गुमशुदगी की खबरें, साक्षरता पहल से संबंधित कार्यक्रम और इलाक़े में हो रहे अपराधों की सूचना आदि का नि:शुल्क प्रसारण किया जाता था. राघव रेडियो की बढ़ती लोकप्रियता देख 2006 में केंद्रीय संचार मंत्रालय ने राघव से चैनल की वैधानिकता पर रिपोर्ट मांगी. लाइसेंस न होने पर ज़िला अधिकारियों ने भारतीय टेलीग्राफ क़ानून के उल्लंघन के आरोप में राघव रेडियो बंद कर दिया. इतना ही नहीं, राघव को दोषी मानकर कुछ समय के लिए गिरफ़्तार भी किया गया, लेकिन मंसूरपुर गांव के लिए वह हीरो था. कई संस्थानों की मदद से अब इस अशिक्षित युवक की प्रेरणादायी कहानी एनसीईआरटी की किताबों में शामिल की गई है. वर्तमान में राघव राजस्थान के अजमेर ज़िले में एक सामुदायिक रेडियो स्टेशन बेयरफुट कम्युनिटी रेडियो स्टेशन में परियोजना प्रमुख के तौर पर काम कर रहे हैं. अगर प्रशासन और सरकार राघव जैसी प्रतिभाओं का हौसला बढ़ाए तो कम्युनिटी रेडियो की परिकल्पना साकार होने से कोई नहीं रोक सकता, पर सरकार के रवैए से ऐसा लगता नहीं है.

Wednesday, September 1, 2010

जर और जमीन की बलि चढ़ती अबलाएं




छह सितंबर, 2010. पश्चिम बंगाल के उत्तर दिनाजपुर ज़िले का तिलना गांव. एक आदिवासी को गांव वाले पीट-पीटकर मौत के घाट उतार देते हैं. मृतक हेमब्रम सोम का कसूर यह था कि वह एक ऐसी महिला का पति है, जिसे गांव के लोग डायन मानते हैं. हेमब्रम की पत्नी है मालो हांसदा. गांव के एक तांत्रिक के मुताबिक़ वह डायन है. नतीजतन, गांव के लोग इस परिवार के लिए सज़ा तय करते हैं. पति के लिए सज़ा-ए-मौत और मालो के लिए गांव छोड़ने की सज़ा. लेकिन यह कहानी अभी अधूरी है. इस पूरे प्रकरण का असली सच कुछ और है. दरअसल, आदिवासी बहुल तिलना गांव में तीन लोगों की अस्वाभाविक मौत हो जाने से गांव का एक दबंग परिवार ग्रामीणों को लेकर कुशमुड़ी के एक तांत्रिक के पास जाता है और उसके कहने पर लोग मालो को डायन मान लेते हैं.

 कुछ ही दिनों बाद उस दबंग के पुत्र की बीमारी से मौत हो जाती है और दोष इस परिवार के मत्थे म़ढ दिया जाता है. पंचायत में कथित डायन दंपत्ति पर 5,934 रुपये जुर्माने और एक बीघा जमीन दबंग के नाम लिखने का निर्णय लिया जाता है. जुर्माने की राशि तो सोम अदा कर देता है, पर जमीन देने से मना कर देता है. परिणामस्वरूप उसके पूरे परिवार की जमकर पिटाई की जाती है. जमीन के कागजात पर जबरिया दस्तखत करा लिए जाते हैं और परिवार को गांव छोड़ने का फरमान जारी कर दिया जाता है. पिटाई के दौरान सोम की मौत हो जाती है और उसकी तथाकथित डायन पत्नी गंभीर रूप से घायल. पुलिस ने भी महज़ खानापूरी की और इसे अंधविश्वास का मामला बताते हुए उसने प्राथमिकी दर्ज कर ली.

कुछ दिनों पहले एक ग़ैर सरकारी संस्था रूरल लिटिगेशन एंड एनटाइटिलमेंट केंद्र द्वारा किए गए अध्ययन में बताया गया है कि भारत में हर साल 150-200 महिलाओं को चुड़ैल या डायन होने के आरोप में अपनी जान गंवानी पड़ती है.इस मामले में सबसे ज़्यादा कुख्यात है खनिजों के मामले में पूरे देश में टॉप पर रहने वाला उत्तर भारतीय राज्य झारखंड.

यहां प्रति वर्ष 50-60 महिलाओं को डायन कहकर मार दिया जाता है. दूसरे नंबर पर पर आंध्र प्रदेश है, जहां क़रीब 30 महिलाएं डायन के नाम पर बलि चढ़ा दी जाती हैं. इसके बाद हरियाणा और उड़ीसा का नंबर आता है. इन दोनों राज्यों में भी हर साल क्रमश: 25-30 और 24-28 महिलाओं की हत्या कर दी जाती है. इस तरह पिछले 15 वर्षों के दौरान देश में डायन के नाम पर लगभग 2500 महिलाओं की हत्या की जा चुकी है. ये वे आंकड़े हैं, जो किसी तरह प्रथम सूचना रिपोर्ट में दर्ज हो गए. जबकि सर्वविदित है कि सुदूर अंचलों में प्राथमिकी दर्ज कराना किसी आम आदमी के लिए कितना मुश्किल और जोखिम भरा काम है. हक़ीक़त में इन आंकड़ों का स्वरूप और वृहद हो सकता है.

महिलाओं की हत्या के जितने भी मामले दर्ज होते हैं, उनमें अधिकांश की वजह उनका डायन होना बताया जाता है, जबकि कहानी कुछ और होती है. इन हत्याओं के पीछे कई तरह के षड्‌यंत्र होते हैं. कोई किसी की ज़मीन-संपत्ति हड़पने के लिए डायन का खेल खेलता है तो कोई अपना बाहुबल दिखाने के लिए. कोई वोट बैंक की खातिर तो कोई बदला लेने के लिए. इस खेल में एक दबंग परिवार अंधविश्वास का सहारा लेकर पूरे तबके और क्षेत्र को अपने साथ मिला लेता है. जैसा  तिलना गांव में सोम के मामले में हुआ. अपने बच्चे की मौत के एवज में दबंग सोम की ज़मीन हड़पना चाहता था.


अगर किसी बच्चे की मौत हो जाती है तो क्या उसकी भरपाई आदिवासी की ज़मीन करेगी? व्यक्तिगत फायदे के लिए किसी को भी डायन घोषित कर दिया जाता है. इस बात की गवाही रूरल लिटिगेशन एंड एनटाइटिलमेंट केंद्र (आरएलइके) के मुखिया अवधेश कौशल भी देते हैं. उनके मुताबिक़, ज़्यादातर पीड़ित अकेली रहने वाली विधवा महिलाएं हैं, जो ज़मीन या संपत्ति के लिए निशाना बनाई जाती हैं. विधवा या तलाकशुदा महिलाएं जब गांव के दबंगों की कामेच्छा का विरोध करती हैं तो अक्सर उन्हें डायन घोषित कर दिया जाता है. उन्हें जलील करने के लिए निर्वस्त्र करके गांव में घुमाने, मैला खिलाने, बाल नोंचने और नाखून उखाड़ देने जैसे अमानवीय कृत्यों को अंजाम दिया जाता है. ज़्यादातर मामलों में महिलाएं अपमानित होने के बाद ख़ुद ही आत्महत्या कर लेती हैं.

ग़ौर करने वाली बात यह है कि डायन सदैव दलित या शोषित समुदाय की ही महिला होती है. ऊंचे तबके की महिलाओं के डायन होने की बात शायद ही सुनने को मिलती हो. डायन होने-मानने का अंधविश्वास आदिवासियों में ज़रूर रहा है. वजह, आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था और जंगल के अभाव में वे अपना इलाज समुचित ढंग से नहीं कर पाते, पर इस तबके में कभी संपत्ति और दबंगई का मामला नहीं देखा गया. लेकिन तिलना गांव जैसे मामले शिक्षित समाज में व्याप्त लालच की वीभत्स कहानी बयां करते हैं. हम यह नहीं कहते कि आदिवासियों में इस तरह की घटनाएं उचित हैं.


 आदिवासियों को भी यह बताने की ज़रूरत है कि डायनों ने उन्हें नुक़सान नहीं पहुंचाया. नुक़सान तो उन्होंने पहुंचाया, जिन्होंने उन्हें न्यूनतम नागरिक सुविधाओं-शिक्षा, सड़क, बिजली और मानवाधिकारों से वंचित रखा. शिक्षित तबके को कुछ समझाने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि आप सोए हुए लोगों को तो जगा सकते हैं, पर उन्हें नहीं, जो सोने का ढोंग कर रहे हैं. इन मामलों की तह तक जाने और आपसी रंजिश की राजनीति को समझने की ज़रूरत है.

सरकार को चाहिए कि वह ऐसी वारदातों की रोकथाम के लिए केंद्रीय स्तर पर कोई सख्त क़ानून बनाए. झारखंड, बिहार और छत्तीसगढ़ में इस संदर्भ में क़ानून बनाया गया है, लेकिन उसका पालन शायद ही कभी हुआ हो. अगर इस मामले में किसी को दोषी करार भी दिया जाए तो सबसे बड़ी सज़ा मात्र तीन महीने की क़ैद है. ऑनर किलिंग के नाम पर देश को सिर पर उठा लेने वाला मीडिया, राजनीतिज्ञ, समाजसेवी और गैर सरकारी संगठन भी इस मुद्दे कोे कोई महत्व नहीं दे रहे हैं. ज़रूरत इस बात की है कि अंधविश्वास को परे हटाकर डायन किलिंग की असलियत समाज के सामने लाई जाए और बताया जाए कि यह स़िर्फ असरदार लोगों का गंदा खेल है, डायन का नाम तो बस एक बहाना है.

संपत्ति हड़पने के लिए बनाया जाता है डायन.

  • हर साल 200 महिलाओं को जान गंवानी पड़ती है
  • उ़डीसा, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और हरियाणा भी आगे.
  • झारखंड सबसे ज़्यादा कुख्यात और पहले नंबर पर.

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Tuesday, July 27, 2010

वर्ल्‍ड कप पर भारी बाबा पॉल



स्‍पेन फीफा विश्व कप 2010 का चैंपियन भले ही बना हो, पर स्टार बनकर उभरा ऑक्टोपस पॉल. आलम यह रहा कि दुनिया भर के मीडिया ने मैच की सटीक भविष्यवाणियों के लिए ऑक्टोपस पॉल की जितनी चर्चा की, उतनी तो किसी खिलाड़ी, टीम या उसके प्रदर्शन को लेकर भी नहीं की. मैच खत्म होते ही ऑक्टोपस बाबा का गुणगान कुछ यूं हुआ, जैसे जीत के असली हक़दार खिलाड़ी न होकर ऑक्टोपस बाबा हों. प्रिंट मीडिया और टीवी चैनलों के अलावा कई बड़ी हस्तियां भी बाबा के जयगान में शामिल हुईं.

सब के सब यही बता रहे थे कि बाबा ने 100 फीसदी सही कहा था. बहुत ही कम लोग स्पेन की मेहनत और संघर्ष को जीत का श्रेय देते हुए दिखे. इसमें कोई दो राय नहीं है कि ऑक्टोपस पॉल की लगभग सभी भविष्यवाणियां सच साबित हुई हैं, लेकिन उसकी एक भविष्यवाणी ग़लत भी साबित हुई. इससे इतना तो साबित होता ही है कि भविष्यवाणियां स़िर्फ अंदाज़ की गणित पर चलती हैं. कभी-कभी यह गणित कुछ ज़्यादा ही सटीक बैठ जाती है, लेकिन इसे सार्वभौमिक सत्य मान लेना बेवकूफी से ज़्यादा कुछ और नहीं है. बाबा की इन भविष्यवाणियों के चलते मैच के कई टि्‌वस्ट और बेहतरीन मूवमेंट अनदेखे कर दिए गए.

मैच आ़खिरी वक्त तक सस्पेंस के घेरे में रहा. हालांकि सट्टेबाजों और अंकशास्त्रियों की नज़र में स्पेन शुरू से ही खिताब का प्रबल दावेदार रहा,  स्विट्जरलैंड के हाथों पहले मैच में मात खाने के बाद कुछ संशय ज़रूर हुआ, लेकिन स्पेन ने बहुत तेज़ी से वापसी की. फाइनल के दौरान नारंगी और नीली जर्सी पहने ये दोनों टीमें खेल रही थीं तो उनके जोश को देखकर ऐसा लग रहा था कि कोई भी टीम दूसरी टीम की रक्षा पंक्ति को तोड़कर गोल नहीं कर पाएंगी, लेकिन दूसरे अतिरिक्त पंद्रह मिनटों के दौरान स्पेन के आंद्रेस इनीइस्ता ने खेल के 116वें मिनट में गोल कर टीम का दामन खुशियों से भर दिया. स्पेन 12 साल के लंबे अंतराल के बाद विश्व कप चैंपियन बना. रविवार की रात मैच शुरू होने से पहले मेजबान देश दक्षिण अफ्रीका की आज़ादी के महानायक नेल्सन मंडेला की मौजूदगी में दर्शकों का ज़ोश देखते ही बन रहा था.



उनके ज़ोश और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच स्पेन ने अपनी बादशाहत दुनिया भर के सामने रख दी. यूरो चैंपियन स्पेन ने अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप प्रदर्शन करके हॉलैंड को अतिरिक्त समय में 1-0 से हराकर फुटबॉल का नया चैंपियन बनने का गौरव हासिल कर लिया. पहली बार चैंपियन बने स्पेन को इस जीत से तीन करोड़ डॉलर बतौर पुरस्कार राशि हासिल हुए, जबकि उप विजेता हॉलैंड को दो करोड़ 40 लाख डॉलर पर ही संतोष करना पड़ा. तीसरे स्थान पर रहे जर्मनी को दो करोड़ डॉलर की पुरस्कार राशि हासिल हुई. मैच आ़खिरी वक्त तक सस्पेंस के घेरे में रहा. हालांकि सट्टेबाजों और अंकशास्त्रियों की नज़र में स्पेन शुरू से ही खिताब का प्रबल दावेदार रहा,  स्विट्जरलैंड के हाथों पहले मैच में मात खाने के बाद कुछ संशय ज़रूर हुआ, लेकिन स्पेन ने बहुत तेज़ी से वापसी की. फाइनल के दौरान नारंगी और नीली जर्सी पहने ये दोनों टीमें खेल रही थीं तो उनके जोश को देखकर ऐसा लग रहा था कि कोई भी टीम दूसरी टीम की रक्षा पंक्ति को तोड़कर गोल नहीं कर पाएंगी, लेकिन दूसरे अतिरिक्त पंद्रह मिनटों के दौरान स्पेन के आंद्रेस इनीइस्ता ने खेल के 116वें मिनट में गोल कर टीम का दामन खुशियों से भर दिया. इस मैच में रेफरी होवार्ड वेब ने कुल 14 येलो कार्ड दिखाए.

 यह किसी भी वर्ल्ड कप फाइनल में दिखाए गए सबसे ज़्यादा येलो कार्ड हैं. ऐसे ही कई दिलचस्प पहलुओं के साथ खत्म हुआ यह फाइनल मैच बाबा ऑक्टोपस की भविष्यवाणियों की चर्चा में धुंधला गया. अब कहा जा रहा है कि ऑक्टोपस बाबा संन्यास ले रहे हैं. यानी अब बाबा भविष्यवाणी नहीं करेंगे. आगे का तो पता नहीं, लेकिन इस द़फा बाबा वर्ल्ड कप पर ज़रूर भारी पड़ गए.

क्लीन बोल्ड 
पॉल बाबा की भविष्यवाणी एक बार ग़लत भी साबित हो चुकी है. यूरो कप 2008 के फाइनल में ऑक्टोपस ने स्पेन के खिला़फ जर्मनी को विजेता बताया था, पर जर्मनी जीत नहीं सका.

ट्रिक
यह जानने के लिए कि कौन सी टीम जीतेगी, ऑक्टोपस के जार में दो टीमों के फ्लैग वाले प्लास्टिक के बक्से उतारे जाते हैं. ऑक्टोपस दोनों बक्सों में से किसी एक में बैठ जाते हैं. बाबा जिस बक्से पर बैठते हैं, अंतत: वही टीम विजेता बनती है. यानी जिस बक्से में बाबा बैठे, समझो उसी को उनका आशीर्वाद मिल गया. अभी तक जिसे आशीर्वाद मिला है, वह टीम जीती है. सेमी फाइनल मुक़ाबले की भविष्यवाणी के लिए जब स्पेन और जर्मनी के झंडे वाले दो बक्सों को जार में उतारा गया तो ऑक्टोपस बाबा पहले दोनों बक्सों पर बैठ गए, पर अंत में फैसला स्पेन के पक्ष में गया.

सत्य वचन
स्पेन की जीत से पहले सर्बिया और जर्मनी के बीच ग्रुप मुक़ाबले में पॉल ने सर्बिया की जीत की भविष्यवाणी की थी. जर्मनी यह मैच 0-1 से हार गया था. शेष सभी मैचों में ऑक्टोपस ने जर्मनी की जीत की भविष्यवाणी की थी, जो सही साबित हुईं. पॉल बाबा ने खिताब के प्रबल दावेदार अर्जेंटीना के खिला़फ क्वार्टर फाइनल में भी जर्मनी की जीत की भविष्यवाणी की थी. लोग यकीन नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि डिएगो माराडोना की टीम जिस धुरंधर फॉर्म में खेल रही थी, उसमें उसे हरा पाना काफी मुश्किल था, लेकिन जर्मनी ने एकतरफा मुक़ाबले में अर्जेंटीना को 4-0 से रौंदकर पॉल बाबा की भविष्यवाणी सच साबित कर दी.

Tuesday, June 29, 2010

पर्दे की चमक में अंधे खिलाड़ी



हाल ही में क्रिकेट से जुड़ी दो बड़ी खबरें सुर्खियों में रहीं. पहली यह कि इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के पहले संस्करण का खिताब जीतने वाली राजस्थान रॉयल्स टीम के छह खिलाड़ी सोनी पर प्रसारित होने वाले रिएलिटी शो इंडियन आयडल-5 में दिखेंगे. दूसरी यह कि निखिल आडवाणी की आगामी फिल्म पटियाला हाउस की शूटिंग के लिए कमेंटेटर संजय मांजरेकर एवं निखिल चोपड़ा समेत कई खिलाड़ी छुट्टी ले रहे हैं. ताज़्जुब की बात यह है इन दोनों खबरों में सब कुछ था, सिवाय क्रिकेट के.

 क्रिकेटरों का फिल्मों के प्रति पहला प्यार सलीम अजीज दुर्रानी के रूप में 1973 में आई फिल्म इशारा में नज़र आया था. जब 1983 का विश्व कप जीतने का खुमार लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा था और उसी दौरान 1985 में फिल्म कभी अजनबी थे से संदीप पाटिल, सैयद किरमानी और लिटिल मास्टर सुनील गावस्कर ने सिल्वर स्क्रीन पर पदार्पण किया. फिल्म बॉक्स ऑफिस पर दम तोड़ गई. जबसे इस देश में आईपीएल और आईसीएल के बहाने क्रिकेट का व्यवसायीकरण हुआ है, तभी से इस खेल को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझ लिया गया है. हर कोई ज़्यादा से ज़्यादा अंडे पाने की चाह में मुर्गी को ही हलाल करने में जुटा है.

 खिलाड़ियों की बात करें तो इन्हें पैसे और ग्लैमर की चकाचौंध का ऐसा चस्का लगा है कि दिन-रात ये उसी में डूबे रहना चाहते हैं. सीरीज़ से पहले चोटिल होकर मैदान से बाहर हो जाएंगे, लेकिन आराम के बजाय अधिक से अधिक पैसा कमाने की जुगत भिड़ाने में लग जाएंगे. विज्ञापन, कैंपेनिंग, लेटनाइट पार्टीज और टीवी तो इनका पुराना धंधा है, पर पिछले कुछ समय से इन्हें फिल्मी पर्दे पर दिखने का शौक चढ़ा है. कई खिलाड़ी फिल्में पर्दे पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने को बेताब हैं. पटियाला हाउस में जहां कई खिलाड़ी मेहमान भूमिकाओं में नज़र आएंगे, वहीं सचिन के भी एक फिल्म में काम करने की खबरें आ रही हैं. सचिन से पहले भारतीय टेस्ट टीम के कप्तान अनिल कुंबले भी मीरा बाई नॉट आउट में मेहमान भूमिका में नज़र आए थे. क्रिकेट खिलाड़ियों ने बेशक़ ऑफ़ द फील्ड फिल्मों में काम किया हो,

 लेकिन एकाध खिलाड़ी (सलिल अंकोला) की कामयाबी को अपवाद मान लिया जाए तो अधिकांश खिलाड़ियों का फिल्मों के चक्कर में करियर तक बर्बाद हो चुका है. बहरहाल, क्रिकेटरों का फिल्मों के प्रति पहला प्यार सलीम अजीज दुर्रानी के रूप में 1973 में आई फिल्म इशारा में नज़र आया था. जब 1983 का विश्व कप जीतने का खुमार लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा था और उसी दौरान 1985 में फिल्म कभी अजनबी थे से संदीप पाटिल, सैयद किरमानी और लिटिल मास्टर सुनील गावस्कर ने सिल्वर स्क्रीन पर पदार्पण किया. फिल्म बॉक्स ऑफिस पर दम तोड़ गई.

इस फ़िल्म में क्लाइव लॉयड ने भी अतिथि भूमिका निभाई थी. गावस्कर ने कभी अजनबी थे के अलावा मराठी फ़िल्म सावली प्रेमाची एवं जाकोल और हिंदी फिल्म मालामाल में असफल पारी खेली. इसी तरह का फ्लॉप शो अनर्थ में सचिन के दोस्त विनोद कांबली ने दिखाया. मैच फिक्सिंग की सज़ा भुगत रहे हरफनमौला जडेजा को सुनील शेट्टी की होम प्रोडक्शन फिल्म खेल में मौका मिला, लेकिन हाल वही ढाक के तीन पात. फिल्म मुझसे शादी करोगी में हरभजन सिंह, जवागल श्रीनाथ, पार्थिव पटेल एवं आशीष नेहरा ने भी अतिथि भूमिकाएं निभाई थीं. कुल मिलाकर सभी के सितारे डूब गए.



 अगर इतनी मेहनत ये क्रिकेट के लिए करते तो शायद इनका करियर यादगार बन जाता. भारतीय क्रिकेटरों के अलावा पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेटर मोहसिन खान भी बॉलीवुड में हाथ आज़मा चुके हैं. मोहसिन जे पी दत्ता की फिल्म बंटवारा और महेश भट्ट की फिल्म साथी में नज़र आए. कुछ समय पहले निर्माता संघमित्रा चौधरी की फ़िल्म मैं और मेरी हिम्मत में रावलपिंडी एक्सप्रेस शोएब अख्तर द्वारा काम करने की खबरों ने सबका ध्यान आकर्षित किया था, लेकिन उन्होंने लंबी कवायद के बावजूद एक्टिंग नहीं की. फिलहाल उनकी जगह डोपिंग में फंसे पाक स्पीड स्टार मोहम्मद आसिफ इस फ़िल्म में अभिनय करने के कारण सुर्खियों में हैं. ग़ौरतलब है कि दोनों का ही करियर ढलान पर है.

 ब्रेट ली भी फिल्म विक्ट्री के जरिए सिल्वर स्क्रीन पर क़दम रख चुके हैं. इसमें उनके अलावा कई और दिग्गज क्रिकेटर मसलन स्टुअर्ट क्लार्क, जेसन गिलेस्पी, माइकल हसी, साइमन केटिच एवं एलन बॉर्डर, इंग्लैंड के साइमन जोंस एवं साजिद महमूद, न्यूजीलैंड के क्रेग मैकमिलन, डेरेल टफी, नाथन एसतल एवं मार्टिन क्रो के अलावा प्रवीन कुमार, आर पी सिंह, दिनेश कार्तिक, पंकज सिंह सहित कई जाने-पहचाने भारतीय युवा क्रिकेटर फिल्मों में काम कर चुके हैं. जबकि फ़िल्म में अंपायर का किरदार ऑस्ट्रेलिया के डेरेल हार्पर ने निभाया. इसी तरह ज़्यादातर खिलाड़ियों को जब अभ्यास सत्र में शामिल होकर प्रैक्टिस करनी चाहिए, वे फिल्मों में लगे रहते हैं. नतीजतन हमारी टीम के खेल में निरंतरता का अभाव रहता है. कोई भी खिलाड़ी आज सेंचुरी बना लेता या टीम को हारने से बचा लेता है तो  इस बात की गारंटी नहीं है कि वह अगली पारी में भी अच्छा खेलेगा. पर यह बात पक्की है कि वह कल किसी टीवी कार्यक्रम, विज्ञापन या फिल्म में ज़रूर दिखाई देगा. पर्दे की चमक में अंधे ये खिलाड़ी सब कुछ करेंगे, सिवाय खेलने के.