Saturday, January 26, 2013

स्वतंत्रता सेनानी : आजादी के बाद हक की लड़ाई


आज हम खुद को सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहते हैं, लेकिन क्या कभी हमने सोचा कि जिन लोगों ने देश को आज़ादी दिलाई, उनके साथ हमारा बर्ताव कैसा है? स्वतंत्रता सेनानी आज सरकारी दफ़्तरों के बाहर ठोकरें खा रहे हैं. अस्पताल के बाहर घंटों लाइन में खड़े होकर इलाज कराने को मजबूर हैं. ज़िंदगी के आखिरी पड़ाव में हमने उन्हें अकेला छोड़ दिया है. स्वतंत्रता संग्राम के दीवानों को काग़जात देकर साबित करना पड़ रहा है कि उन्होंने अंग्रेजों के खिला़फ लड़ाई की थी. विदेशियों से लड़ना उनके लिए आसान था, अपनों से लड़ना उन्हें भारी पड़ रहा है.





ॠषिकेश की घटना है. एक दिन सड़क के किनारे एक महिला की लाश मिली. लाश आधी सड़ चुकी थी. लोग लाश को देखकर नाक बंद कर बगल से गुज़र जा रहे थे. किसी ने पुलिस को ख़बर दी. पुलिस आई और लाश को ले गई. इस लाश का क्या हुआ यह पता नहीं लेकिन ये लाश किसकी है, यह पता करने में पुलिस को एक महीने से ज़्यादा का व़क्त लग गया. पता चला कि ये लाश बीना भौमिक की है. आज शायद ही किसी को मालूम हो कि बीना भौमिक कौन है. यह नाम उस लड़की का है जिसे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अग्नि कन्या के नाम से जाना जाता था.  इस लड़की ने ही 1932 में कोलकाता यूनिवर्सिटी में बीए के कोनवोकेशन के दौरान गवर्नर स्टेनली जैक्सन पर जानलेवा हमला किया था. स्टेनली तो बच गया लेकिन इस घटना से पूरे देश में तहलका मच गया था कि एक लड़की ने गवर्नर पर हमला कर दिया. पहली बार लोगों को लगा कि नौजवानों के साथ-साथ लड़कियां भी स्वतंत्रता संग्राम में अपने साहस का परिचय दे रही हैं. गवर्नर पर हमला करने के लिए बीना भौमिक को 9 साल की सज़ा हुई. जेल से निकलने के  बाद वह क्रांतिकारी बन गई.

जुगांतर रेवोल्यूशनरी क्लब की सदस्य बन गईं. 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बीना भौमिक को फिर तीन साल जेल में रहना पड़ा. उस दौरान वह कोलकाता कांग्रेस कमेटी की सचिव थी. बीना भौमिक स्वतंत्रता संग्राम का जीता-जागता इतिहास थी, देश की धरोहर थी. हमने किसी अंजान शहर में इन धरोहरों को मरने छोड़ दिया है.

यही हमारा दुर्भाग्य है. यही आज़ाद भारत है, जिसके लिए बीना भौमिक जैसी हज़ारों नौजवानों और युवतियों ने अपना जीवन न्योछावर कर दिया था. उनका सपना तो न जाने कहां गुम हो गया लेकिन स्वतंत्रता के वे सेनानी, हमारे ब़ुजुर्ग, जो हमारे आस-पास हैं, जिंदा हैं, सांस ले रहे हैं, उन्हें हमने ज़िंदगी के आ़खिरी मोड़ पर अकेला छोड़ दिया है. स्वतंत्रता सेनानी बूढ़े हो गए हैं. हालात यह हैं कि समाज और सरकार की तऱफ से उन्हें कोई सहूलियत नहीं मिल रही है. ज़्यादातर सेनानियों को घर वालों ने भी छोड़ दिया है. बेटा साथ नहीं रहता है. समाज और सरकार ने उनका तिरस्कार कर दिया है. वे पैसे-पैसे के लिए मोहताज हो गए हैं. सरकार की तऱफ से उन्हें पेंशन मिलती है. शर्मनाक़ बात यह है कि पेंशन की राशि इतनी कम है कि बताने में भी शर्म आती है. आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने वाले इन देशभक्तों को हम किसी फोर्थ क्लास कर्मचारी के वेतन से भी कम पैसे देते हैं.


आजादी के 63 सालों बाद भी हम देश के प्रति उनके त्याग और योगदान का महत्व समझ नहीं पा रहे हैं. हम उन्हें सम्मान देने और उनका हक़ दिलाने के बजाए उन्हें अपमानित कर रहे हैं. मई, 2010 में केंद्र सरकार द्वारा अदालत को बताया गया कि देश भर में क़रीब एक लाख सत्तर हज़ार स्वतंत्रता सेनानी हैं. हालांकि यह आंकड़ा सरकारी दस्तावेजों पर आधारित है. हर महीने यह संख्या बदलती रहती है, क्योंकि इन सेनानियों की उम्र्र इतनी हो चुकी है कि लगभग हर महीने कुछ की मौत हो जाती है. इनमें से क़रीब साठ हज़ार स्वतंत्रता सेनानियों को केंद्र सरकार द्वारा पेंशन मिल रही है, बाक़ी को राज्यों द्वारा पेंशन की व्यवस्था है. पेंशन वितरण के मामले में हर राज्य का अपना नियम है, पेंशन राशि भी अलग अलग है. केंद्र सरकार स्वतंत्रता सेनानियों को 12400 रुपये देती है. वह स्वतंत्रता सेनानी योजना के तहत कुल सात सौ पचासी करोड़ रुपये खर्च करती है. उधर हरियाणा के मुख्यमंत्री ने पिछले 15 अगस्त को स्वतंत्रता सेनानियों की पेंशन राशि छह हज़ार से बढ़ाकर ग्यारह हज़ार रुपये कर दी. इसी तरह कर्नाटक सरकार ने यह पेंशन तीन हज़ार से बढ़ाकर चार हज़ार रुपये कर दी है. दिल्ली में स्वतंत्रता सेनानियों की पेंशन साढ़े तीन हज़ार से बढ़ाकर साढ़े चार हज़ार रुपये कर दी गई है. हैरानी की बात यह है कि दिल्ली में 1998 से ही स्वतंत्रता सेनानियों को पेंशन देने की योजना शुरू की गई थी, लेकिन आज भी यहां पेंशन राशि अन्य राज्यों के मुक़ाबले का़फी कम है. तमिलनाडु में पिछले साल मुख्यमंत्री ने सेनानियों को मिलने वाली पेंशन चार हज़ार से बढ़ाकर पांच हज़ार रुपये कर दी. सरकार स्वतंत्रता सेनानियों की मदद के बड़े-बड़े दावे करती है. उन्हें आर्थिक सहायता के तौर पर पेंशन और विभिन्न क्षेत्रों में आरक्षण देने की बात करती है, लेकिन सच तो यह है कि न जाने कितने स्वतंत्रता सेनानी आज भी गुमनामी और ग़रीबी की ज़िंदगी जी रहे हैं. कई तो अपने हक़ की लड़ाई लड़ते-लड़ते इस दुनिया से ही विदा हो गए. सबसे ज़्यादा शर्मनाक़ बात तो यह है कि कई स्वतंत्रता सेनानियों ने खुद को स्वतंत्रता सेनानी साबित करने में अपनी शेष ज़िंदगी गुज़ार दी. अधिकारियों की मनमानी और व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार की वजह से कई फर्ज़ी लोग खुद को स्वतंत्रता सेनानी घोषित कर सरकारी सुविधाओं का फायदा उठा रहे हैं और असली स्वतंत्रता सेनानी दस्तावेजों में अपना नाम दर्ज कराने के लिए तरस रहे हैं. ताज्जुब की बात तो यह है कि फर्ज़ी लोगों में कई तो ऐसे हैं, जो आज़ादी के समय पैदा ही नहीं हुए थे या फिर उनकी उम्र चार-पांच साल के आसपास रही होगी. ऐसे मामलों में जो लोग पकड़े जाते हैं, उनकी पेंशन रोक दी जाती है. लेकिन सवाल यह खड़ा होता है कि जो अधिकारी बिना जांच-पड़ताल किए फर्ज़ी प्रमाणपत्र पर दस्तखत करके असली स्वतंत्रता सेनानियों का हक़ मारते हैं, उन्हें कोई सज़ा क्यों नहीं मिलती? सुप्रीम कोर्ट स्वतंत्रता सेनानियों की बदहाली पर अ़फसोस जताता है और इसके लिए सरकार की लालफीताशाही को ज़िम्मेदार बताता है, लेकिन क्या इतना का़फी है? ग़ौर करने वाली बात है कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि देश के ज़्यादातर स्वतंत्रता सेनानी ग़रीबी और भुखमरी की ज़िंदगी बिताने पर मजबूर हैं, सरकार की तरफ से दी जाने वाली पेंशन उनके लिए किसी खैरात से कम नहीं है. इस बात से साबित हो जाता है कि देश का सर्वोच्च न्यायालय भी जानता है कि सरकार स्वतंत्रता सेनानियों की अनदेखी कर रही है.

बात स़िर्फ पेंशन और आरक्षण की नहीं है, बात है उनके त्याग और संघर्ष के महत्व को समझने की. स्वतंत्रता संग्राम के जो सिपाही आज ज़िंदा हैं, उन्हें क्या वही भारत नज़र आता है, जिसके लिए वे लड़े थे?



जिस देश को आज़ाद कराने के लिए इन सिपाहियों ने लाठियां और गोलियां खाईं, वह देश आज गांधी, नेहरू और सुभाष चंद्र बोस को स़िर्फ उनके जन्मदिन पर याद करता है. नई पीढ़ी तो आज़ादी के दीवानों के बलिदान के साथ-साथ आज़ादी के मायने भी भूल चुकी है. जिन लोगों की वजह से आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं, उन्हें हमने सम्मानित करना तो दूर, बदहाली के दलदल में छोड़ दिया है. उनके अनुभव से सीखना तो दूर, समारोहों में उन्हें बोलने का भी मौक़ा नहीं दिया जाता. हम शायद भूल रहे हैं कि ये साधारण लोग नहीं हैं, जीते-जागते इतिहास हैं. लेकिन हम इतने निष्ठुर और संवेदनहीन हो गए हैं कि इनकी अहमियत को समझने की अक्ल हमारे अंदर नहीं बची. वरना हम इन्हें दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर न होने देते. जिन लोगों ने देश को आज़ाद कराने में अपनी जवानी लुटा दी, आज हालत यह है कि उन्हें सचिवालयों में प्रवेश के लिए घंटों लाइन में खड़े होकर पास बनवाना पड़ता है. सबसे बड़ी समस्या इलाज कराने की है. अब इनकी वो उम्र नहीं है कि अस्पतालों में लाइन लग कर अपना इलाज करवा सकें. जो स्वतंत्रता सेनानी गांव में रहते हैं उनकी हालत और भी खराब है. सरकार कम से कम इतना तो कर सकती थी कि डाक्टरों को उनके घर भेज कर उनका हालचाल पूछ सकती थी.


सरकार की तऱफ से स्वतंत्रता सेनानियों के लिए कई तरह की योजनाएं हैं. लेकिन ये योजना सबके लिए नहीं है. हर राज्यों के अलग नियम हैं. हैरानी की बात यह है कि उन्हें खुद को स्वतंत्रता सेनानी साबित करने के लिए कई तरह सबूत पेश करने पड़ते हैं. सरकार स़िर्फ उन्हें ही स्वतंत्रता सेनानी मानती है, जो आज़ादी की ल़डाई के दौरान जेल गए, छह महीने से ज़्यादा भूमिगत रहे या उन्हें छह महीने अथवा उससे ज़्यादा समय के लिए ज़िला बदर किया गया हो. स्वतंत्रता सेनानियों को पेंशन लेने के लिए यह भी साबित करना पड़ता है कि स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने की वजह से अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी संपत्ति की कुर्की कर ली या फिर उनकी नौकरी चली गई या फिर उन्हें सज़ा मिली. जो स्वतंत्रता सेनानी इससे संबंधित पर्याप्त काग़जात उपलब्ध नहीं करा पाते, उन्हें सरकार स्वतंत्रता सेनानी नहीं मानती. अगर चंद्रशेखर आज़ाद जीवित होते तो सरकार उन्हें स्वतंत्रता सेनानी नहीं मानती, क्योंकि वह अंग्रेजों से ल़डे तो थे, लेकिन कभी जेल नहीं गए, कभी नौकरी से निकाले नहीं गए.



आंध्र प्रदेश के उदूपी के  एक स्वतंत्रता सेनानी बाबू मास्टर के बारे में आपको बताता हूं. चौरानवे साल के बाबू मास्टर ने आज़ादी की लडाई में बढ़-च़ढ कर हिस्सा लिया. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वे कांग्रेस के जाने माने कार्यकर्ता रहे. गांधी की विचारधारा पर चलते हुए पूरा जीवन बिता दिया. स्वतंत्रता संग्राम के  दौरान वो पूरे ज़िले में घूम-घूम कर चरखा बांटते थे. नमक सत्याग्रह आंदोलन में हिस्सा लेने वे मैंगलोर गए. आज भी वो गांधी के बताए रास्ते पर चल रहे हैं. शायद यही उनकी बदकिस्मती रही. आज़ादी के बाद कुछ समय के लिए उन्हें पेंशन ज़रूर मिली लेकिन अचानक अधिकरियों ने कहा कि उनकी पेंशन बंद हो गई है. वजह बाबू मास्टर स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने के बावजूद कभी जेल नहीं गए. उनकी पेंशन रुक गई. बाबू मास्टर दाने-दाने के लिए तरस रहे हैं. उन्हें देखने वाला कोई नहीं है.

मिलने वाली सुविधाएं

हरियाणा सरकार 1980 से सरकारी सेवाओं में प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के पदों पर स्वतंत्रता सेनानियों के पुत्रों-पुत्रियों, पौत्रों- पौत्रियों को 2 प्रतिशत आरक्षण प्रदान कर रही है. 1985 से सीधी भर्तियों में भी आरक्षण की सुविधा दी जा रही है. तमिलनाडु, हिमाचल और कुछ अन्य राज्य सरकारें भी इनके आश्रितों को शिक्षण संस्थानों में आरक्षण देती हैं. आंध्र प्रदेश सरकार के नई दिल्ली स्थित आंध्रा भवन में स्वतंत्रता सेनानियों को रुकने की सुविधा है, हिमाचल सरकार भी नई दिल्ली स्थित हिमाचल भवन में यह सुविधा प्रदान करती है, लेकिन राजस्थान सरकार ने ऐसी कोई भी व्यवस्था नहीं की. कर्नाटक सरकार मैसूर लैंड रेवेन्यू रूल 1960 के अंतर्गत सरकारी भूमि के आवंटन में स्वतंत्रता सेनानियों को प्रथम वरीयता प्रदान करती है. यही नहीं, मध्य प्रदेश सरकार भी भूमि आवंटन में उन्हें प्रथम वरीयता प्रदान करती है.



जेल जाने वाले स्वतंत्रता सेनानी और जेल नहीं जाने वाले स्वतंत्रता सेनानी में सरकार इतना भेद क्यों करती है. अधिकारियों को यह समझ मेंक्यों नहीं आता है कि जो लोग जेल नहीं गए उन्होंने ज़्यादा कष्ट उठाए हैं. जो लोग स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जेल गए वे तो जेल के अंदर बी केटेगरी के बंदी बनकर रहते थे. लेकिन जो लोग जेल नहीं गए उन्हें घर परिवार छोड़ कर अंडरग्राउंड होकर आंदोलन का काम करना पड़ता था. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कांग्रेस सारे लोगों को जेल जाने से मना करती थी, क्योंकि अगर सारे लोग जेल चले जाएंगे तो जनता के बीच आज़ादी के आंदोलन को कौन चलाएगा. ऐसे ही लोगों के कंधों पर आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम होता था. ये छुप कर काम करते थे. उनके पास न रहने का ठिकाना था न ही खाने-पीने की व्यवस्था. उनके पीछे पुलिस लगी रहती थी. वे महीनों घर से बाहर दर दर की ठोकरें खाते थे.

खबरें आती हैं कि स्वतंत्रता सेनानी बदहाली से तंग आकर आत्महत्या कर रहे हैं और कुछ आशावान लोग कभी न खत्म होने वाले धरने पर बैठे हैं. इससे ज़्यादा बदतर हालात और क्या हो सकते हैं कि आज स्वतंत्रता सेनानी सार्वजनिक स्थानों पर खुद को स्वतंत्रता सेनानी बताने से भी सकुचाते हैं. अगर हमें उनकी हालत पर थोड़ी भी शर्म आती है और उनके लिए वास्तव में कुछ करने की इच्छा है तो हमें उनकी ओर एक बार फिर से ध्यान देना होगा. जिनके पास कृषि योग्य भूमि नहीं है, उन्हें सरकार विशेष दरों पर ज़मीन मुहैय्या कराए. व्यवसायिक तौर पर मज़बूत बनाने के लिए उन्हें गैस एजेंसियां और पेट्रोल पंप आदि आवंटित हों. लेकिन आज यह सब होता नहीं दिख रहा. अगर हालात ऐसे ही रहे तो अगले दस सालों में देशभक्तों की ये पीढ़ी खत्म हो जाएगी.

ये तो स्वंय इतिहास हैं. अगर हम इन्हें वो इज़्ज़त देते, जिसके वो हक़दार हैं. अगर इन्हें हर स्कूलों में बुलाया जाता, बच्चों से मिलवाया जाता तो देश के बच्चे-बच्चे की रगों में देशभक्ति का लहू बहता. वे स्वतंत्रता संग्राम से वाक़ि़फ होते. आज़ादी की लड़ाई में दिए गए बलिदान को जानता और आज़ादी के मायने को समझ पाता. अ़फसोस की बात यह है कि हमने हाशिए पर डाल दिया है, उन्हें हम समाज के एक वेस्टीजियल ऑर्गन की तरह ट्रीट करते हैं.



भारत का स्वतंत्रता संग्राम इतिहास का ऐसा पन्ना है, जो कई मायनों में बेमिसाल है. आज़ादी के सिपाहियों की बहादुरी और त्याग की वजह से ही आज हम आज़ाद भारत में सांस ले पा रहे हैं. 1857 से शुरू हुआ स्वतंत्रता संग्राम 1947 तक चला. इसमें कई पीढ़ियों का संघर्ष और बलिदान शामिल है. देश को आ?ज़ाद कराने के लिए इस लड़ाई में जिन लोगों ने हिस्सा लिया, वे आज खुद को कोस रहे हैं. आएदिन भ्रष्टाचार, किसानों द्वारा आत्महत्या, नक्सलियों का बढ़ता प्रभाव, ग़रीब और अमीर में बढ़ता फासला, सांप्रदायिक दंगे, हिंसा और नेताओं के नित नए फरेब देखकर उनका कलेजा बैठ जाता है. उन्होंने जिस आज़ादी के लिए अंग्रेजों से लड़ाई की, वह तो कहीं नज़र नहीं आती.


स्वतंत्रता सेनानियों की संख्या


आंध्र प्रदेश                          14,573

असम                                4,438

बिहार एवं झारखंड              24,870

गोवा                                  1,436

गुजरात                              3,596

हरियाणा                            1,685

हिमाचल प्रदेश                    624

जम्मू कश्मीर                     1,806

कर्नाटक                            10,084

केरल                                3,228

मध्य प्रदेश                        3,468

महाराष्ट्र                            17,732

मणिपुर                             62

मेघालय                            86

मिजोरम                           04

नागालैंड                           03

उड़ीसा                              4,189

पंजाब                               7,008

राजस्थान                          811

तमिलनाडु                          4,099

त्रिपुरा                                887

उत्तर प्रदेश                         17,990

पश्चिम बंगाल                     22,484

अंडमान निकोबार              03

चंडीगढ़                              89

दादर नगर हवेली               83

दमन और दीव                  33

दिल्ली                          2,044

पांडिचेरी                        317


Wednesday, January 23, 2013

ग्राम स्‍वराज की ओर बढ़ते कदम



कहते हैं कि जब सरकारी तंत्र पूरी तरह से सड़ने लगे और लोकतंत्र स़िर्फ नाम का ही रह जाए तो ऐसे में विकास का रास्ता ज़डों की ओर लौटने से ही मिलता है. किसी भी देश के विकास की इमारत में उस देश के गांव और किसान नींव का काम करते हैं. भारत के  परिप्रेक्ष्य में तो यह नींव और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि भारत कृषि प्रधान देश है. जब इस देश में शहर और गांव के फासले नहीं थे, तब भारत के गांव ही इस देश की तकदीर और तस्वीर हुआ करते थे. सत्ता के नाम पर गांव में पंचायतें और मुखिया थे. पंच यानी पंचायतें, परमेश्वर का रूप मानी जाती थीं. न्याय व्यवस्था इतनी पारदर्शी थी कि पंच गांव के हर आदमी की सलाह के बाद ही सारे फैसले लेता था. इसलिए तब भारत के गांवों की तस्वीर इतनी चमकती थी.

 समय बदला. देश आज़ाद हुआ और भारत में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र क़ायम हो गया. देश में विकास की आंधी आ गई. कई क्रांतियां हुईं. देश की तस्वीर बदलने लगी. कल तक का ग्रामीण भारत देखते-देखते इंडिया हो गया और भारत के किसान और ग्रामीण इंडिया के विकास की आंधी में कहीं खो से गए. नतीजतन, गांवों का विकास ठप्प हो गया और महाराष्ट्र के विदर्भ से लेकर बिहार और उत्तर प्रदेश के गावों की बदहाली प्रदर्शन और धरनों के रूप में सामने आने लगी. इसी बीच एक बार फिर स्वराज की अवधारणा पनपी. कुछ जागरूक लोग ग्राम स्वराज अभियान से जुड़े. उन्होंने ही स्वराज लाने का यानी कि ग्राम सभा सुचारू कराने का तथा गांव का हर फैसला ग्राम सभा में ही कराने का इरादा रखते हुए इस अभियान को चलाया. और इसी स्वराज की कोख से हिवरे बाज़ार का जन्म हुआ.

महाराष्ट्र के अहमद नगर ज़िले का गांव हिवरे बाज़ार, एक ऐसा गांव जहां के लोग रोज़गार के लिए पलायन नहीं करते. गांव में रोज़ाना स्कूल की कक्षा लगती है, आंगनबाड़ी रोज़ खुलती है. राशन की दुकान भी ग्राम सभा के निर्देशानुसार संचालित होती है, सड़कें इतनी सा़फ कि आप वहां कुछ फेंकने से शरमा जाएंगे, जल संरक्षण में अव्वल इस गांव की सत्ता दिल्ली में बैठी सरकार नहीं चलाती, बल्कि उसी गांव के लोग इसे संचालित करते हैं. एक शब्द में यह भी कहा जा सकता है कि हिवरे बाज़ार ग्राम स्वराज का प्रतिनिधित्व करता है. हिवरे बाजार की कहानी से प्रेरणा लेकर कुछ जागरूक लोग उत्तर प्रदेश में ग्राम स्वराज को लोगों तक पहुंचा रहे हैं. इसके लिए वे समूह बनाकर गांव-गांव जाकर लोगों को हिवरे बाज़ार की कहानी बता रहे हैं और साथ ही उन्हें प्रोत्साहित कर रहे हैं, एक ऐसा ही गांव बनाने के लिए. इसी क्रम में पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के बागपत ज़िले में गांव-गांव जाकर लोगों को हिवरे बाज़ार की फिल्म दिखाई गई और फिर स्वराज की बात रखने का प्रयोग किया गया. इस अभियान के तहत गांव-गांव जाकर उस गांव के सक्रिय और गंभीर लोगों के साथ चर्चा की जाती और फिर एक बड़ी बैठक का आयोजन किया जाता है.



 इस बैठक में लोगों के साथ गांव की ज़रूरतों और समस्याओं पर चर्चा की जाती. हर गांव की आम समस्याएं होती हैं. मसलन, एक किसान को अपनी ज़मीन की फरद निकलवानी है, तो उसे पटवारी से लेकर एसडीएम तक न जाने किस-किस से गुहार लगानी पड़ती है. ग़रीब आदमी को अगर आय, जाति, निवास का प्रमाण पत्र बनवाना हो तो उसे भी ग्राम सचिव से लेकर उपर तक के अधिकारियों के धक्के खाने पड़ते हैं, लेकिन रिश्वत दिए बिना फिर भी उसका काम नहीं होता है. किसी गांव में बिजली के तार टूटे पड़े हैं तो कहीं ट्रांसफॉर्मर ही नहीं है. कहीं लोगों ने कहा कि सबसे पहले लड़कियों का स्कूल बनना चाहिए तो किसी गांव के लोगों ने कहा कि शहर से जोड़ने वाली बस होनी चाहिए. किसी गांव में गांव के अंदर की सड़कें खराब हैं तो किसी को अपने गांव को शहर से जोड़ने वाली सड़क ठीक करवानी है. कुल मिलाकर हल्की सी बातचीत से ही समझ में आ जाता है कि गांव में लोगों को क्या चाहिए. हर गांव वाला जानता है कि उसके गांव की क्या ज़रूरते हैं और इसके लिए उन्हें विशेषज्ञ होने की ज़रूरत नहीं है. इन सबके बाद इस बात पर परिचर्चा होती है कि पिछले चार-पांच सालों में गांव में सरकार ने क्या काम कराए हैं. आम लोगों की बातों और शिकायतों से पता चलता है कि गांव में जो काम कराए गए हैं, उनमें से ज़्यादातर की तो गांव में आवश्यकता ही नहीं थी.

लोगों से बिना पूछे योजनाएं बनीं, उनका पैसा आया और चूंकि लोगों की ज़रूरत ही नहीं थी, अत: लोगों ने भी उस ओर ध्यान नहीं दिया और सारा पैसा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया. बैठक में मौजूद गांववालों के मुताबिक़ सरकारी योजनाओं के बारे में न तो उनसे पूछा जाता है कि आपको क्या चाहिए और न ही इन योजनाओं के अमल में लाने में उन्हें कोई भूमिका ही दी जाती है. जबकि सारी कर सारी योजनाएं तो उनके गांव के लिए होती है. इसका सही उपाय बताते हुए उन्हें हिवरे बाज़ार गांव के विकास की कहानी को फिल्म के रूप में दिखाया गया. उन्हें बताया गया कि अगर उनमें भी विकास की चाह हो तो उनके गांव भी हिवरे बाज़ार की कहानी को दोहरा सकते हैं. उन्हें बताया गया कि अगर उनके गांव में भी ग्राम सभाएं विधिवत तरीक़े से होने लगें तो सारी की सारी समस्या ही खत्म हो जाएगी. हां, इसमें ज़रूरत स़िर्फ इस बात की है कि इस बार के पंचायत चुनाव में किसी ऐसे व्यक्ति को प्रधान बनाया जाए जो कि ग्राम सभाएं करे, उनकी समस्याएं सुने. महाराष्ट्र के अहमदनगर ज़िले का गांव हिवरे बाज़ार, एक ऐसा गांव है.

जहां के लोग रोज़गार के लिए पलायन नहीं करते. गांव में रोजाना स्कूल की कक्षा लगती है, आंगन वाड़ी रोज़ खुलती है, राशन की दुकान भी ग्राम सभा के निर्देशानुसार संचालित होती है, सड़कें इतनी सा़फ कि आप वहां कुछ फेंकने से शरमा जाएंगे, जल संरक्षण में अव्वल इस गांव की सत्ता दिल्ली में बैठी सरकार नहीं चलाती, बल्कि उसी गांव के लोग इसे संचालित करते हैं. एक शब्द में यह भी कहा जा सकता है कि हिवरे बाज़ार ग्राम स्वराज का प्रतिनिधित्व करता है. हिवरे बाज़ार की कहानी से प्रेरणा लेकर कुछ जागरूक लोग उत्तर प्रदेश में ग्राम स्वराज को लोगों तक पहुंचा रहे हैं. इस मुहिम को कई चरणों में पूरा किया गया. पहले चरण में इस तरह की बैठकें  लगभग सात गांवों में की गईं. इसके नतीजे भी का़फी सकारात्मक रहे. सभी गांवों में खासकर नौजवानों में यह उत्साह देखने को मिला कि वे अपने गांव के हालात सुधारने के लिए वाकई  कुछ करना चाहते हैं. स्वराज अभियान में उन्हें एक रास्ता दिखाई दे रहा है. वैसे तो यह अभियान प्रदेश में होने वाले पंचायत चुनावों को ध्यान में रख कर चलाया जाता है, लेकिन अब इसे पंचायत चुनाव के अलावा भी दिखाया जा रहा है. हिवरे बाज़ार की कहानी सुनकर लोग खुद आह भरते हुए बात करने लगते हैं कि काश! हमारा गांव भी ऐसा हो पाता. इस बातचीत को आगे बढ़ाते हुए नौजवान साथी अपने गांव में भी स्वराज लाने का यानी कि ग्राम सभा सुचारू कराने का तथा गांव का हर फैसला ग्राम सभा में ही कराने का इरादा रखते हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत ज़िले में काम कर रहे उत्साही कार्यकर्ता मनोज आर्य अब तक अपने ज़िले के 30 प्रमुख गांवों में हिवरे बाज़ार की कहानी दिखा चुके हैं. उनका काम करने का तरीक़ा बड़ा सीधा-सादा है. वो फिल्म की दो-तीन सीडी लेकर गांवों में जाते हैं. इन गांवों में उनके पहले से कुछ पुराने मित्र हैं, जो इस काम में उनकी मदद करते हैं. इन्हीं मित्रों के जरिए वे गांव में प्रचारित करवा देते हैं कि फलां तारीख को गांव के बारे में एक फिल्म दिखाई जाएगी.



इसके  लिए आवश्यक सीडी प्लेयर, टीवी सेट और बैटरी या जेनरेटर का इंतजाम प्राय: गांव वाले ही कर देते हैं. अब तक जहां कहीं भी मनोज ने फिल्म दिखाई है, वहां ग्रामीणों की प्रतिक्रिया बड़ी सकारात्मक रही है. गांव के लोग पूरे ध्यान से फिल्म देखते हैं. फिल्म देखने के बाद कई युवा फिल्म के प्रचार-प्रसार के लिए काम करने में भी रुचि दिखाते हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी हिवरे बाज़ार की सीडी जोर-शोर से दिखाई जा रही है. लोगों को स्वराज के प्रति जागरूक किया जा रहा है. इसी तरह फैज़ाबाद, आजमगढ़, सुल्तानपुर बस्ती आदि ज़िलों के कार्यकर्ता पीपुल्स एक्शन फॉर नेशनल इंटीग्रेशन (पानी संस्था) के कार्यक्रम में इकट्ठा हुए. सबने अपने अपने अनुभव बांटे. प्रतापगढ़ से आई सुशीला मिश्र ने जब एक गांव में महिलाओं के समूह को यह फिल्म दिखाई तो गांव की महिलाओं ने उन्हीं से आग्रह किया कि दीदी इस बार आप ही प्रधान बन जाओ. फिर हम भी अपने गांव को हिवरे बाज़ार की तरह बना लेंगे.

पानी संस्था से जुड़े शशि भूषण अब तक इस फिल्म को विभिन्न ज़िलों के 70-80 स्थानों पर दिखा चुके हैं. जहां-जहां उन्होंने सीडी दिखाई, वहां के लोगों में कुछ कर गुज़रने का जज्बा पैदा हुआ है. कुछ ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों की परिस्थितियां महाराष्ट्र से अलग हैं, इसलिए हिवरे बाज़ार का प्रयोग यहां पूरी तरह से स़फल नहीं हो सकता. हालांकि ऐसी नकारात्मक बात करने वाले कम ही मिले हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही चंदौली, कुशीनगर आदि ज़िलों में भी यह अभियान चल रहा है. गांव वालों के प्रतिक्रिया से कम से कम इतना तो स्पष्ट है कि वह अपने गांव के विकास के लिए कितने उत्साहित है. बस उन्हें सही सहयोग की ज़रूरत है. साथ ही अगला  पंचायती राज चुनाव उनके गांव में स्वराज लाने का एक बेहतरीन मौक़ा लेकर आएगा. अगर लोग इस मौक़े को भुना पाए तो फिर हर गांव की कहानी हिवरे बाज़ार की कहानी बन जाएगी