Thursday, December 20, 2012

यह आक्रोश गलीगली जाए और सालोंसाल रहे



सफदरगंज से सिंगापुर तक के सफर में भले ही गैंगरेप की शिकार लड़की ने दम तोड़ दिया हो पर मर तो उसी दिन गई थी जब 16 दिसंबर की रात चलती बस में उस पर दरिंदगी कहर बनकर टूटी थी. अब प्रायश्चित और शर्मसार होने के अलावा एक यही रास्ता है कि आज का युवा बलात्कार जैसे वीभत्स कृत्य के खिलाफ उबले इस आक्रोश को गलीगली तक ले जाए और उसे सालोंसाल अपने अंदर पालें. ताकि फिर कोई दामिनी हैवानियत और हवस की आग में न झुलसे. उस के प्रति यही हमारी सच्ची श्रद्धांजली होगी.

उठो जवानों तुम्हे जगाने क्रांति द्वार पर आई है, 70 के दश क में जेपी आंदोलन के दौरान जब यह नारा गूंजता था तो देश भर का युवा तत्कालीन सरकार के भ्रष्टचार और तानाशाही के खिलाफ स्कूलों और कालेजों से निकलकर सड़कों पर उमड़ पड़ता था. उस दौरान युवाशक्ति की इस गोलबंदी के आगे सरकार की हताशा और बेबसी कुछ ऐसी थी, जैसी दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ युवाओं के फूटे आक्रोश के सामने है. 
रायसीना हिल्स, जंतरमंतर, प्रगति मैदान और इंडिया गेट पर उमड़ा जनसैलाब यह बताने के लिए काफी है कि इतिहास खुद को दोहराता है. एक मासूम लड़की के बलात्कार और उस की मौत तक सरकार का जो शर्मनाक रवैया पूरी जनता के सामने दिखा, उसी से मजबूर होकर युवाओं ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला है. और इतिहास गवाह है कि जब जब युवाओं ने क्रांति की मसाल अपने हाथों में थामी है, व्यवस्था हिलती दिखी है.
गैंगरेप कांड के खिलाफ गुस्से से भरे युवाओं ने न सिर्फ दिल्ली सरकार को बल्कि पूरी दुनिया को बता दिया है कि अगर गुस्सा जायज हो तो किसी लीडर या अगुआ के बगैर भी इतना बड़ा आंदोलन खड़ा किया जा सकता है. बगैर किसी नेता का पहला आंदोलन और बलात्कार जैसे जघन्य वारदात के मसले पर सरकार को झकझोरने के लिए युवा बधाई के पात्र हैं.
पर मन में एक डर भी है. डर इस बात का कि कहीं यह आंदोलन भी बाकी बड़े तथाकथित ऐतिहासिक आंदोलनों की तरह चार दिन की चांदनी, मीडिया का टीआरपी बेस्ड विजुअल प्रेजेंटेंशन, चंद फिल्मों की देखादेखी षुरू हुआ कैंडिल मार्च का ट्रेडिशन या फिर किसी सियासी दल, नेता, पंडेपुजारियों या योगगुरुओं द्वारा हाइजैक किया हुआ आंदोलन तो नहीं बन जाएगा.
यह डर इस बार किसी भी हालत में सही साबित नहीं होना चाहिए क्योंकि युवाओं को यह स्वर्णिम अवसर पहली बार मिला है जब उन के इस आंदोलन के सामने सियासी मलाई जीमने वाला कोई नेता नहीं है. वह खुद नेता है और खुद जनता. अब यह आंदोलन कुंद नहीं होना चाहिए. इस के अलावा सरकार ;यहां सरकार से मतलब मनमोहन या सोनिया गांधी ही नहीं बल्कि विपक्षी दलों समेत हर उस प्रश सनिक या राजनीतिक इकाई है, जो किसी न किसी रूप में जनता का प्र्रतिनिधित्व करती है.द्ध जैसे आज की परिस्थितियों में इस हद तक लाचार, बेबस, असहाय और घुटने टेके खडी है, वैसे पहले कभी नही खडी होती थी.  अब अगर तानाषाही मानसिकता की वर्तमान सरकार युवाओं के आक्रोश  से डरी सहमी है तो उन चंद बलात्कारियों की बिसात ही क्या है. इसलिए बहुत जरूरी है कि हमारा यह गुस्सा और आंदोलन सिर्फ जंतर मंतर, रायसीना हिल्स या इंडिया गेट पर ही न चले बल्कि यह हर उस गली महल्ले बस, मेट्रो स्टेशन, मंदिर, मौल, बाजार और हर उस परिवार तक चले जहां महिलाओं को भोगने की वस्तु समझकर उनका षारीरिक या मानसिक शोषण करने वाले लोग दिखते या पलते हैं.
हर युवा जानता और देखता है कि जब वह अपनी गलीमहल्ले से निकलकर बस या मेट्रो के जरिए अपनेअपने अपने काम की जगह पुहंचता है तो उसे हर नुक्कड़, चैराहे और बसों में लड़कियों से छेड़छाड़ या कमेंट करने वाले तत्व मिलते हैं. याद रखिए जो नुक्कड़ चैराहे पर दिनदहाड़े किसी लड़की या महिला को छेड़ने की हिम्मत कर सकता है वह मौका पाकर रेप जैसा कदम कभी भी उठा सकता है. असल में बलात्कारी तत्व इन्हीं जगहों पर पनपते हैं. इसलिए अगर हम इंडिया गेट या रायसीना हिल्स पर सांप के गुजरने के बाद की लकीर पीटने के बजाए उन गली महल्लों में सरेआम घूमने वालों सापों पर धावा बोलेंगे तब जाकर इन भेडियों के मन में भी वहीं खैफ पैदा होगा जो अभी सरकार के कंपकपाते बयानों में दिखता है. 
यह सब कुछ दिनों के शोरशराबे, कैंडल मार्च या सरकार की घेराबंदी से नहीं होगा बल्कि तब होगा जब युवाओं के मन में उबल रहा यह आक्रोश  उन के अंतर्मन में भी रोज उबलेगा. साथ ही इस उग्र आंदोलन को गली गली तक ले जाना होगा. समाज में कुकुतमुत्तों की तरह पनप रहे इन असामाजिक तत्वों को सरेआम एक्सपोज करना होगा., तब जाकर समाज इस तरह की कलंकित वारदातों से मुक्त हो सकेगा. 
युवा इस बात को अच्छे से समझ लें कि बैनरों और तख्तियों पर बचकाने स्लोगन ओर नारे लिखकर, कड़े कानून और त्वरित कार्यवाही की मांग कर सिर्फ इस लडकी के साथ बलात्कार और उस की हत्या करने वाले को सजा दिलवा सकते हैं पर दूेश  भर में फैले हर बलात्कारी के मन में ऐसा डर नहीं पैदा कर सकते कि वह इस तरह का कदम उठाने से पहले दस बार सोचे. 


अगर कड़े कानून बनाने या रेपिस्ट को फांसी देने से बलात्कार की घटनाए बंद होतीं तो दुनिया भर के उन देषों में कभी बलात्कार नहीं होता जहां रेप की इतनी वीभत्स और दिल दहला देने वाले पनिशमेंट हैं कि सोचकर ही दिल बैठ जाए. और हां, अगर दिल्ली गैंग रेप के आरोपियों को फांसी की सजा की हम मांग करते हैं तो सांसद, विधायक, मुखिया, जिला परिश द सदस्यों को भी फांसी की सजा मिलनी चाहिए, जिन पर बलात्कार के केस चल रहे हैं. एक साथ मामले का ट्रायल किया जाए. शुरूआत करनी है तो ढंग से की जाए.
रोश , आक्रोश, गुस्सा, नाराजगी सब अपनी जगह है और यह दिखना भी चाहिए लेकिन इस के नाम पर पुलिस के साथ लड़ने से कुछ हल नहीं होने वाला है. क्योंकि आप भी जानते हैं कि बलात्कारी इंडिया गेट पर नहीं बैठे हैं. वो तो देश  की रग रग में हैं. हर गली और हर चैराहे पर हैं. इसलिए जरूरी है कि सही बीमारी को ढूढा जाए और फिर से जड से खत्म किया जाए क्योंकि हमें बीमार को नही बल्कि बीमारी को खत्म करना है बीमारी तभी खत्म होती है जब हम उसके सिम्टम्स यानी लक्षणों और उन स्रोतो का पता लगा लें जहां ये तत्व पैदा होते हैं. हम सब जानते हैं कि इस बीमारी के लक्षणों से रोजाना हमारा सामना होता है. बस अब तक हम इन्हें हंसकर या डरकर टालते आ रहे हैं.
दरअसल, पुलिस और कानून ब्यवस्था के खिलाफ हमारे अंदर का गुस्सा तभी उबाल लेता है जब इस तरह की कोई ताजा वारदात हो. जैसेजैसे मामला मीडिया की सुर्खियों और नेताओं की बयानबाजियों से ठंडा पड़ने लगता है वैसवैसे ही हमारे गुस्से का उबाल भी ठंडा पडने लगता है. 
आज देश  का युवा आज संकल्प ले कि उसे बीमार को नहीं बल्कि बीमारी को जड़ को खत्म करना है. यह काम सिर्फ  और युवा ही कर सकते हैं. युवा श ब्द को उल्टा लिखने पर वह वायु बन जाता है. वायु जब आक्रोश  मंे बहती है तो दुनिया में बवंडर ला देती है. तख्ते पलट देती है. युवाश क्ति भी कुछ ऐसी ही है. बस उसे जरूरत होती है सही दिषा की. इस मामले ने उन्हें यह दिषा भी दे दी है. जब भी देश दुनिया में बड़े आंदोलन और परिवर्तन हुए हैं उन में युवाओं की महती भूमिका रही है. कहा भी गया है कि किसी भी देश  की विकास की रीढ युवा होते हैं. भारत भी युवा शक्ति से लबरेज है. 
जाहिर है इस समय जड बलात्कारी नहीं बल्कि बलात्कार की मानसिकता है. और मानसिकता तभी बदलेगी जब यह युवा आक्रोश  देश  की हर गलियों से गुजरता हुआ सालों साल हमारे अंदर सुलगता रहेगा और जिंदा रहेगा. अगर हर युवा ऐसा करने में सफल रहा तो यह निष्चित है कि हम में किसी की भी मां, बेटी, बहन, पत्नी और औरत का दामिनी जैसा हश्र नहीं होगा. 

                                    


Monday, December 17, 2012

शोहरत की बिसात का शालीन मोहरा - विश्वनाथन आनंद



कहते हैं कि जब कामयाबी का नशा चढकर बोलता है तो अर्ष से फर्ष तक का सफर बहुत लंबा नहीं रह जाता. कामयाब और विश्वविजेता होने का भ्रम पाले अक्सर खिलाडी अपनी आधी अधूरी कामयाबी लोकप्रियता के नषे में चूर होकर अपने खेल की गरिमा को ही दांव पर लगा देते हैं. बहुत से उदाहरण क्रिकेट समेत कई क्षेत्रों की प्रसिद्ध षख्सियतों के बरतावों से लगाया जा सकता है. भद्रजनों का खेल कहे जाने वाले क्रिकेट में ऐसे कई नाम हैं जो जरा सी कामयाबी पर इतना उछल जाते हैं कि जब गिरते हैं तो कामयाबी की अंधरे से बाहर ही नहंीं आ पाते.
       कम ही सही पर कुछ खिलाडी ऐसे भी होते हैं जो सिर्फ खिलाडी ही बने रहकर न सिर्फ दुनिया में अपना नाम रोषन करते हैं बल्कि अपनी शालीनता से लोगों के दिल में अपना मुकाम भी बना लेते हैं. न किसी विवाद से कोई लेना देना और न ही कभी सफलता के घोडों पर सवार होकर खुद को बादशाह समझना. ये असल में खामोषी से सिर्फं अपना काम करते हैं और बेहतरीन प्रदर्षन के बल पर दुनिया जीत लेते है. ऐसी ही एक षख्सियत है भारत के विश्वानाथन आनंद. विश्वानाथन आनंद ने मॉस्को में इसराइल के बोरिस गेलफैंड को टाईब्रेकर में हरा कर पांचवीं बार वर्ल्ड चेस चैंपियनशिप पर कब्जा कर लिया है. मॉस्को में चल रही शतरंज की विश्व चैंपियनशिप में उतार चढ़ाव वाले मैच में आनंद ने गेलफैंड का हरा दिया. 42 वर्षीय आनंद ने वर्ल्ड चेस चैंपियनशिप लगातार तीसरी बार जीती है. जबकि ये उनका लगातार चैथा खिताब है.
अक्सर खिलाडी जीत के बाद का जष्न कुछ यांे मनाते हैं लगता है कि पूरी दुनिया ही उनकी मुटठी में आ गई हो. कोई रात भर पार्टी करता है तो कोई षैंपेन की बोतलों को हवा में लहराता है. कोई मीडिया के जरिए बडेबडे दावे ठोंकता है तो कोई जीत की खुषी में किसी से भिड ही बैठता है. लेकिन आपको सुनकर ताज्जुब होगा कि पांचवीं बार वर्ल्ड चेस चैंपियन बनने के बाद विश्वानाथन आनंद ने क्या कहा होगा और जीत का जयष्न कैसे मनाया होगा. दरअसल जीत के बाद उनका कहना था कि अभी तो मैं इतने तनाव में हूं कि खुश नहीं हुआ जा सकता लेकिन मैं राहत महसूस कर रहा हूं. इतना शालीन जष्न शायद ही किसी विजेता ने मनाया हो. जमीन में रहने वाला से सितारा न जाने कब से अपनी चमक बरकरार रखे हुए है. इसने कभी भी कामयाबी के आकाष में अपनी उपस्थ्तिि दर्ज कराने के लिए अपनी चमक का बेजा इस्तेमाल नहीं किया. नहीं तो आईपीए की जीत का नजारा देख लीजिए. अंतर खुद ब खुद समझ में आ जाएगा.
 अपनी इस जीत के बाद विश्वनाथन आनंद में प्रेसवार्ता में कहा कि मैच सचमुच तनावपूर्ण रहा. उनके मुताबिक जब सुबह वे सोकर उठे तो उन्हें लगा कि अब तो कोई परिणाम निकलना ही है. उनका कहना था कि मैच जिस तरह से बराबरी पर चल रहा था यह कहना मुश्किल था कि उसका परिणाम क्या निकलेगा.
इस बुलंदी पर आने के बाद भी विश्वनाथन आनंद बेड ही प्यार से उसका जिक्र करना नहीं भूलते जिसे उन्हें न हरा पाने का मलाल रहता है. दरअसल यह कोई वैसा मुकाबला नहीं था फिर भी शतरंज के विश्व चैंपियन विश्वनाथन आनंद एक 14 साल के बच्चे को हरा नहीं पाए. दरअसल, हैदराबाद में चल रही अंतरराष्ट्रीय गणित कांग्रेस में आनंद ने एक साथ 40 लोगों के साथ शतरंज खेली थी. उन्होंने 39 लोगों को तो हरा दिया था लेकिन 14 साल के छात्र सिरकर वरदराज के साथ उनकी मुकाबला बराबरी पर खत्म हुआ.
विश्वनाथन आनंद, शतरंज की दुनिया का एक ऐसा नाम जिसे सारी दुनिया सम्मान की नजरों से देखती है और जिसकी उपलब्धियों से हर भारतीय गौरवान्वित महसूस करता है. लेकिन ताज्जुब की बात तो यह है कि देश के मानव संसाधन विकास मंत्रालय को भारतीय होने का भी सुबूत चाहिए थे. हालांकि बाद में विश्वनाथन आनंद की राष्ट्रीयता और उन्हें प्रस्तावित डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि को लेकर उठे विवाद के बाद मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने खुद इस पूरे विवाद पर आनंद से माफी मांगी थी पर इस पूर मामले पर वो शांत और संयम की मूर्ति बने रहे. न किसी प्रेसवार्ता के जरिए मामले को हवा दी और न ही कोई बयानबाजी का सहारा लिया. डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि लेते समय विश्वनाथन हमेशा ही की तरह शांत थे और मुस्कुरा रहे थे लेकिन यह बात किसी से छुपी नहीं थी की वह उन के साथ हुए सरकारी दुर्व्यवहार से खुश नहीं थे. फिर भी उन्होंने अपनी शालीनता बरकरार रखी. उनकी जगह कोई और खिलाडी होता तो शायद ही चुप बैठता. उसे तो पब्लिसिटी पाने का एक और बहाना मिल जाता.
11 दिसंबर, 1969 को तमिलनाडु के मायिलादुथुरै में जन्में विश्वनाथन आनंद को शतरंज उनकी मां ने खेलना सिखाया. छह साल की उम्र से ही विश्वनाथन आनंद अपनी मां के साथ शतरंज की बिसात पर चालें चला करते थे. चेन्नई के डॉन बॉस्को मैट्रिकुलेशन हायर सेकेंडरी स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करके उन्होंने लॉयोला कॉलेज  से कॉमर्स में स्नातक की डिग्री हासिल की. निजी जिंदगी में विश्वनाथन आनंद हमेशा शांत और मीडिया से दूर रहने वाले व्यक्ति हैं. यह व्यक्तित्व उन्हें एक बेहतरीन स्पोर्ट्समैन बनाता है. शायद यही वजह है कि जहां अन्य खिलाडी भारत रत्न को पाने का सपना देखते हैं वहीं एक नेता खूद अपनी तरफ से उन्हें भारत रत्न का दावेदार बताता है. और ताज्ज्ुाब की बात तो यह है कि वो इसके समर्थन में कुछ भी नहीं बोलते. उन्हें तो सिर्फ अपने नैसर्गिक खेल से मतलब है. हाल ही में जब सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने की मांग उठी थी तब केंद्रीय खेल मंत्री अजय माकन ने विश्व शतरंज चैम्पियन विश्वनाथन आनंद भारत रत्न का हकदार बताते हुए उन्हें उस पुरस्कार से नवाजे जाने की बात कही. हालांकि इसका फैसला प्रधानमंत्री करेंगे कि देश का यह सर्वोच्च सम्मान किसे मिलेगा.
गौरतलब है कि विश्वानाथन आनंद इससे पहले 2000, 2007, 2008 और 2010 में विश्व विजता रह चुके हैं. विश्वनाथन आनंद ने 2007 में टूर्नामेंट में आठ खिलाडि़यों के बीच खिताब जीता था. 2008 और 2010 में उन्होंने रूस के व्लादीमीर क्रामनिक और बल्गारिया के वेसेलीन टोपालोव को हराया था. तब टूर्नामेंट का फार्मेट बदल गया था और अब नियमानुसार मौजूदा चैंपियन को चुनौती देने वाले खिलाड़ी के साथ खेलना होता है. विश्वनाथन आनंद का कॅरियर बहुत तेजी से और अचानक शुरू हुआ. 14 साल की उम्र में नेशनल सब-जूनियर लेवल पर जीत के साथ शुरू हुआ उनका सफर आगे बढ़ता ही रहा. साल 1984 में 16 साल की उम्र में उन्होंने नेशनल चैंपियनशिप जीतकर सबको चैंका दिया और उन्होंने ऐसा लगातार दो साल किया. 1987 में वर्ल्ड जूनियर चेस चैंपियनशिप जीतने वाले वह पहले भारतीय बने और साल 1988 में वह 18 साल की उम्र में ही ग्रैंडमास्टर बन गए.
      शतरंज की बिसात पर जीत हासिल करने के लिए दिमाग की बहुत जरूरत होती है. जरा सी चूक आपको खेल से बाहर का रास्ता दिखा देती है. लेकिन इस खेल में अगर कोई लंबे समय से विश्व में टॉप पोजीशन पर कायम हो तो उसे असाधारण ही कहेंगे. ग्रैंडमास्टर विश्वनाथन आनंद भारतीय शतरंज जगत के ऐसे ष्तरंज की इस बिसात पर शान से बादशाह की कुर्सी पर जमे बैठे हैं पर किसी शारेषराबे के साथ नहीं बल्कि शालीनता से.


खास उपलब्धियां और रिकॉर्ड


आनंद उन छह खिलाडि़यों में से एक हैं जिन्होंने एफआईडीई विश्व शतरंज चैंपियनशिप में 2800 रेटिंग अंकों से ज्यादा अंक हासिल किए हैं. साल 2007 में वह विश्व शतरंज में नंबर एक तक पहुंचे. साल 2007 से लेकर 2008 तक वह छह में से पांच बार नंबर वन पर बने रहे. हालांकि साल 2008 में वह नंबर वन से हट गए पर दुबारा साल 2010 में उन्होंने अपना नंबर एक का स्थान पक्का कर लिया. विश्वनाथन आनंद 1987 में भारत के पहले ग्रैंडमास्टर बने. साल 1985 में उन्हें खेल के क्षेत्र में बेहतरीन योगदान देने के लिए  अर्जुन अवार्ड से सम्मानित किया गया था. साल 1991-92 में वह पहले ऐसे खिलाड़ी बने जिन्हें राजीव गांधी खेल रत्न से सम्मानित किया गया. साल 1987 में पद्मश्री, राष्ट्रीय नागरिक पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से भी आनंद को नवाजा गया था. साल 2007 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया. 1997, 1998, 2003, 2004, 2007 और 2008 में उन्होंने शतरंज ऑस्कर जीता.