Monday, July 25, 2011

टेस्ट सीरीज भारत–वेस्टइंडीज : जीते हैं पर शान से नहीं


वेस्टइंडीज दौरे पर टीम इंडिया ने सीरीज अपने नाम कर फतह तो हासिल कर ली, लेकिन कई मायने में इस जीत को का़फी फीकी कहा जा सकता है. फीकी इसलिए, क्योंकि जिस मुक़ाम और रैंकिंग पर टीम इंडिया आज ख़डी है, उस जगह पर इस टीम से कंप्रोमाइज करने की उम्मीद शायद किसी को नहीं थी. वेस्टइंडीज के आखिरी टेस्ट मैच में धोनी ने जिस तरह 90 गेंदों में 86 रन बनाने को ब़डी चुनौती मानते हुए मैच को ड्रा के अंजाम तक पहुंचाया, वह कहीं न कहीं इस बात की तऱफ इशारा करता है कि टीम इंडिया में अभी भी वर्ल्ड चैंपियन वाला कॉन्फिडेंस पैदा नहीं हुआ है. अजीब बात है, एक तऱफ हम वर्ल्ड चैंपियन होने का दावा करते हैं, वहीं दूसरी तऱफ हम इतना जोखिम भी नहीं ले सकते कि 90 गेंदों में 86 रन बनाने के लिए अपने खिलाडि़यों को मैदान पर उतारें. या फिर इसे यूं कहें कि धोनी को आधी से ज़्यादा टीम पर इतना भी भरोसा नहीं था कि वह इस लक्ष्य को पा सकेगी. इसलिए जल्दी-जल्दी में सीरीज अपने नाम करने के चक्कर में धोनी ने मैच ड्रा करा दिया.

टी-20 के दौर में अगर 15 ओवरों में 86 रन भी बनाने का माद्दा आपमें नहीं है तो फिर आपको किस आधार पर वर्ल्ड चैंपियन का खिताब हासिल है. निश्चित तौर पर धोनी के इस फैसले से क्रिकेट प्रेमियों को निराशा हुई होगी. आ़खिरी टेस्ट मैच में कोई भी इस बात से इत्ते़फाक़ नहीं रखता होगा कि केवल तीन विकेट खोने के बाद 90 गेंदों में 86 रनों का लक्ष्य पाने के लिए आपकी लगभग पूरी टीम ड्रेसिंग रूम में बैठी है और जीत के लिए आप आगे बढ़ने के बजाय ड्रा करने का फैसला कर लें. ड्रा करने का फैसला तो ज़्यादातर हारने वाली टीम लेती हैं. मैच के आ़खिरी दिन वेस्टइंडीज़ ने अपनी दूसरी पारी में छह विकेट पर 224 रनों से आगे खेलना शुरू किया था और चंद्रपाल ने अपना शतक पूरा किया, जिसके लिए उन्हें मैन ऑफ द मैच के खिताब से भी नवाज़ा गया, लेकिन अगर भारत ने पूरा मैच खेला होता तो मैन ऑफ द मैच का दावेदार भारत भी हो सकता था. इसके साथ ही जीत का स्वाद भी बढ़ सकता था, लेकिन धोनी को शायद अपने रिकॉर्ड की चिंता ज़्यादा थी. वह अपनी कप्तानी में जीत का औसत कम नहीं करना चाहते थे. वेस्टइंडीज ने पहली पारी में 204 रन बनाने के बाद दूसरी पारी में 322 रन बनाए थे. भारत की दूसरी पारी की शुरुआत अच्छी नहीं रही और अभिनव मुकुंद को पहली ही गेंद पर एडवर्डन ने पगबाधा आउट कर दिया. इसके बाद राहुल द्रविड़ और मुरली विजय ने पारी को संभाला. विजय ने 45 रन बनाए, वहीं द्रविड़ 34 बनाकर क्रीज पर डटे हुए थे. विजय के आउट होने के बाद रन गति तेज़ करने के लिए रैना को भेजा गया, लेकिन वह 8 रन बनाकर ही आउट हो गए.

 द्रविड़ और लक्ष्मण टिक कर खेल रहे थे, उसी दौरान मैच को ड्रा मान लेने का फ़ैसला किया गया. नतीजतन, भारत-वेस्टइंडीज के बीच खेला गया तीसरा और आखिरी टेस्ट मैच बिना किसी हार-जीत के समाप्त हो गया. अगर भारतीय गेंदबाज़ चाहते तो इस मैच का नतीजा निकल सकता था, लेकिन भारतीय कप्तान में जीत का वह जज्बा और आत्मविश्वास ही नहीं दिख रहा था, जिससे लगे कि वह सीरीज पर पूरी तरह क़ब्ज़ा करना चाहते हैं. वहीं वेस्टइंडीज की तऱफ से चंद्रपाल और क्रिक ने अपनी टीम को हार से बचा लिया. दोनों ने मिलकर चौथे विकेट के लिए 161 रनों की भागीदारी निभाई. भारत के तेज़ गेंदबाज़ ईशांत शर्मा को उनके ज़बर्दस्त प्रदर्शन के लिए मैन ऑफ द सीरीज चुना गया. ईशांत ने आ़खिरी टेस्ट में छह विकेट लिए, जबकि पूरी सीरीज़ में उन्होंने 23 विकेट लिए. कप्तान धोनी ड्रा करने के फ़ैसले को सही ठहराते हुए कह रहे थे कि खेलने का फैसला जोखिम वाला होता, क्योंकि अगर हम हारते तो पूरी सीरीज़ की जीत खतरे में पड़ जाती. इसलिए हमने ड्रा करने का फ़ैसला स्वीकार किया. अगर धोनी खुद क्रीज पर आते, उन्होंने द्रविड़ का साथ होता और उनके बाद भी कई बल्लेबाज़ अगर मान लिया जाए कि औसतन 10-15 रन भी बनाते तो क्या मैच जीता नहीं जा सकता था. इस बात पर धोनी को मंथन करने की ज़रूरत है, क्योंकि टेस्ट में जीत के ऐसे मौके कम ही आते हैं. ड्रा करना कोई शान की बात नहीं होती है और न ही ड्रा करने का तरीक़ा इतनी आसान परिस्थितियों में लिया जाता है.

ड्रा तो कप्तान को उस समय करना चाहिए, जब उसे लगे कि मैच जीतना अब नामुमकिन सा है. इस आ़खिरी टेस्ट मैच में कोई भी इस बात से इत्ते़फाक़ नहीं रखता होगा कि केवल तीन विकेट खोने के बाद 90 गेंदों में 86 रनों का लक्ष्य पाने के लिए आपकी लगभग पूरी टीम ड्रेसिंग रूम में बैठी है और जीत के लिए आप आगे बढ़ने के बजाय ड्रा करने का फैसला कर लें. ड्रा करने का फैसला तो ज़्यादातर हारने वाली टीम लेती हैं. इसका मतलब यह मान लेना चाहिए कि धोनी कहीं न कहीं हार के मानसिक दबाव में होंगे और उन्होंने जीतने की सोची ही नहीं. यहां पर धोनी को वर्ल्ड चैंपियन ऑस्ट्रेलिया से सबक़ लेना चाहिए. अगर आपको बादशाहत क़ायम रखनी है तो विपक्षी टीम को पूरी तरह से रौंदना होगा, लेकिन जो जीत धोनी ने वेस्टइंडीज पर हासिल की है, उसमें वह बात नहीं दिखाई देती. इस जीत के लिए तो यही कहा जा सकता है कि जीते तो मगर शान से नहीं. - See more at: http://www.chauthiduniya.com/2011/07/test-series-india-west-do-not-live-in-luxury-on.html#sthash.c67396Td.dpuf

टीम इंडियाः सब कुछ ठीक नहीं है


पिछले दिनों भारत ने जब विश्व कप जीता तो लगा कि टीम इंडिया अपने बेहतरीन दौर में चल रही है, लेकिन अब लगता है कि सब कुछ बदल गया है. इस वक़्त टीम इंडिया विवादों और संकटों के ऐसे दलदल से गुज़र रही है, जिसमें लगभग हर खिलाड़ी फंसा हुआ है. कुछ दिनों पहले ख़बर आई थी कि वेस्टइंडीज़ दौरे के लिए जाने वाली भारतीय टीम में वीरेंद्र सहवाग भाग नहीं लेंगे. उसके बाद ख़बर आई कि सांस की शिकायत को लेकर युवराज़ भी इस दौरे से छुट्टी चाहते हैं. यहां तक तक तो सब ठीक था, लेकिन उसके बाद ख़बर आती है कि सचिन तेंदुलकर ने अपने परिवार के साथ छुट्टी मनाने के लिए इस दौरे पर न जाने का फैसला किया है. पता चला कि धीरे-धीरे करके सभी दिग्गज इस दौरे से दूर होते जा रहे हैं. इतना सब होने के बाद गौतम गंभीर को कप्तान और सुरेश रैना को उप कप्तान बनाकर टीम इंडिया को वेस्टइंडीज़ के लिए रवाना करने की बात तय करके सभी अटकलों पर विराम लगाने की कोशिश की गई,
लेकिन असली धमाका होना अभी बाक़ी था. ठीक उसी वक़्त एक और बम फटा, जब वर्तमान कप्तान गौतम गंभीर ने अपने कंधे की चोट की दुहाई देते हुए इस दौरे से ख़ुद को दूर रखने की घोषणा कर दी. फिर क्या था, सीन यह बना कि एक-एक करके टीम इंडिया के सभी खिलाड़ियों ने वेस्टइंडीज़ दौरे से तौबा कर ली. धीरे-धीरे करके सभी दिग्गज इस दौरे से दूर होते जा रहे हैं. इतना सब होने के बाद गौतम गंभीर को कप्तान और सुरेश रैना को उप कप्तान बनाकर टीम इंडिया को वेस्टइंडीज़ के लिए रवाना करने की बात तय करके सभी अटकलों पर विराम लगाने की कोशिश की गई, लेकिन असली धमाका होना अभी बाक़ी था.
ठीक उसी वक़्त एक और बम फटा, जब वर्तमान कप्तान गौतम गंभीर ने अपने कंधे की चोट की दुहाई देते हुए इस दौरे से ख़ुद को दूर रखने की घोषणा कर दी. अब यह इतना बड़ा संयोग तो हो नहीं सकता कि सभी खिलाड़ी एक साथ कोई न कोई बहाना करके छुट्टी ले लें. जरूर कोई न कोई खिचड़ी पक रही है. कहीं ऐसा तो नहीं है कि टीम इंडिया के अंदर कोई नई कलह शुरू हो गई हो. वेस्टइंडीज़ दौरे से दूरी की दूसरी वजह यह भी हो सकती है, जो खिलाड़ियों के मुताबिक़ है, यह कि वे लगातार होने वाले क्रिकेट से इतने थक गए हैं कि इसके अलावा उनके पास कोई रास्ता ही नहीं बचता. अगर ऐसा है तो और भी गंभीर सवाल खड़े होते हैं. मसलन, खिलाड़ी अगर ज़्यादा क्रिकेट से इतने थक गए हैं तो उन्होंने बोर्ड को इस बात की सूचना क्यों नहीं दी. दूसरी बात, अगर कोई खिलाड़ी चोटिल है तो फिर आईपीएल तक इस बात को छिपाकर रखने की क्या ज़रूरत थी. उससे पहले भी इलाज कराया जा सकता था. जैसा कि गंभीर के बारे में कहा जा रहा है. आलोचकों के मुताबिक़, आईपीएल में ज़्यादा से ज़्यादा पैसा कमाने के चक्कर में कई खिलाड़ियों ने अपनी चोटें छिपाईं, जिसका असर अब वेस्टइंडीज़ दौरे में दिखाई दे रहा है. अगर इन बातों में ज़रा भी सच्चाई है तो टीम इंडिया में सब कुछ ठीक नहीं है. दरअसल, यह सारा मामला तब प्रकाश में आया, जब यह घोषणा हुई कि इंडियन प्रीमियर लीग के तुरंत बाद वेस्टइंडीज में होने वाली एकदिवसीय और 20-20 सीरीज में सचिन तेंदुलकर, महेंद्र सिंह धोनी, युवराज सिंह, वीरेंद्र सहवाग, गौतम गंभीर और ज़हीर ख़ान नहीं खेलेंगे. ऐसा पहली बार हो रहा है कि बड़े खिलाड़ियों ने टीम इंडिया से इस तरह पल्ला झाड़ा है. इन हालात में अब टीम की कमान युवा खिलाड़ी सुरेश रैना के हाथ में होगी. वेस्टइंडीज़ जा रही भारतीय टीम इस बार पूरी तरह युवा है. मज़े की बात यह है कि इस टीम में हरभजन सिंह को छोड़कर एक भी वरिष्ठ खिलाड़ी नहीं है. चयन के बाद एकदिवसीय टीम में मनोज तिवारी और शिखर धवन को शामिल किया गया है. युवराज और गंभीर ने ऐसा क्यों किया वेस्टइंडीज़ दौरे पर गौतम गंभीर के खेलने के संशय को लेकर बीसीसीआई चिंतित थी कि अचानक युवराज सिंह ने भी उसे एक करारा झटका दे दिया. वेस्टइंडीज जाने वाली टीम इंडिया में हरफनमौला खिलाड़ी युवराज सिंह का नाम नदारद है, क्योंकि उन्होंने बीसीसीआई को सूचित किया है कि तबियत ख़राब होने के चलते वह दौरे पर टीम के  साथ नहीं जा सकते.
उन्होंने बीसीसीआई को बताया कि उनके फेफड़े में संक्रमण है. इससे उबरने के लिए कम से कम 15-20 दिनों का आराम चाहिए. युवराज सिंह ने 21 मई को दिल्ली डेयर डेविल्स के ख़िला़फआईपीएल में अंतिम मैच खेला था. उल्लेखनीय है कि दौरे के लिए गौतम गंभीर का चयन पहले से संदिग्ध है. गंभीर पर आरोप है कि वह चोट के बावजूद आईपीएल खेले. उन्हें कंधे में चोट के चलते आराम की ज़रूरत बताई गई है. अगर इन दोनों खिलाड़ियों की ग़ैर मौजूदगी रही तो तो टीम इंडिया के ज़्यादातर बड़े खिलाड़ी इस दौरे से बाहर ही रहेंगे. सचिन, धोनी, ज़हीर, नेहरा और सहवाग पहले ही वेस्टइंडीज़ जाने से मना कर चुके हैं. टीम इंडिया के चयन को लेकर बीसीसीआई की फज़ीहत हो गई है. पिछले दस सालों में यह पहला मौक़ा है, जब उसे टीम के चयन में इतनी माथापच्ची करनी पड़ी. टीम के चार खिलाड़ी पहले ही आराम करने के लिए दौरे से छुट्टी ले चुके हैं. बची हुई टीम के कप्तान बनाए गए गौतम गंभीर भी आईपीएल की भेंट चढ़ गए और चोट के चलते टीम से बाहर हो गए. अब युवराज सिंह भी फेफड़े में इंफेक्शन को वजह बताकर दौरे से बाहर हो गए हैं. युवराज के बारे में कहा जा रहा है कि वह इस बात से नाराज़ हैं कि धोनी की जगह पहले गौतम गंभीर को कप्तान बनाया गया और गंभीर के ज़ख्मी होने के बाद अब सुरेश रैना को कप्तानी दी जा रही है. युवराज सिंह को यह कतई मंजूर नहीं कि वर्ल्डकप में अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद उनकी अनदेखी की गई और रैना को कप्तान बनाया गया. ख़ुद से इतने जूनियर खिलाड़ी की कप्तानी में युवी नहीं खेलना चाहते, इसलिए उन्होंने दौरे पर न जाने का फैसला किया. वजह बताई फेफड़े में इंफेक्शन की, जिसके बारे में उन्हें और उनके फीजियो के अलावा शायद ही किसी को पता हो. हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि गंभीर को आईपीएल में कप्तानी के लिहाज़ से यह मौक़ा दिया गया था. विश्वकप में गौतम गंभीर का प्रदर्शन बेहतर और लाजवाब था, वहीं आईपीएल में केकेआर ने उनकी कप्तानी में जमकर धमाल मचाया. केकेआर ने उनकी कप्तानी में आईपीएल के 11 मैचों में से 7 में जीत दर्ज की है. केकेआर को आईपीएल में प्रबल दावेदार के रूप में देखा जा रहा है, जबकि वहीं युवी की पुणे वारियर्स लड़ाई से बाहर हो चुकी है. वैसे यह कोई पहला मौक़ा नहीं है कि जब गंभीर को भारत की कमान दी जा रही है. इससे पहले 2010 में न्यूजीलैंड के ख़िला़फ पांच मैचों की कप्तानी गंभीर ने की थी, जिसमें भारत ने जीत दर्ज की थी. उम्मीद थी कि इस बार भी वह ऐसा ही कुछ करेंगे, लेकिन जिस तरह कप्तानी की घोषणा होने के बाद गंभीर ने अपनी चोट का  हवाला देते हुए दौरे से ख़ुद को दूर किया है, उससे तो यही लगता है कि अच्छा होता कि कप्तानी की कमान युवराज को ही दी गई होती. आईपीएल में क्यों ख़ामोश थे इस पूरे मसले पर खिलाड़ियों सहित ज़्यादातर लोगों ने यही कहकर बचाव किया कि खिलाड़ियों के इस तरह अचानक छुट्टी लेने की वजह उनका लगातार क्रिकेट खेलना और व्यस्त कार्यक्रम है. लेकिन यहां पर यह सवाल भी उठता है कि अगर खिलाड़ी अपने व्यस्त कार्यक्रम से इतने परेशान थे तो इस पर उन्होंने पहले मुंह क्यों नहीं खोला. कहीं ऐसा तो नहीं था कि उस वक़्त उन्हें पैसे कमाने की सूझ रही थी और जब आईपीएल का सीजन ख़त्म हुआ तो सबकी बारी-बारी अपनी समस्याएं निकल आईं. इसके अलावा इस घटना का एक पहलू यह भी है कि जब खिलाड़ियों पर पैसे के लिए खेलने और राष्ट्र के लिए न खेलने का आरोप लग रहा था तो उस दौरान बोर्ड का ध्यान किधर था. इससे पहले बोर्ड को यह सोचना चाहिए कि ऐसी नौबत बार-बार क्यों आ रही है. वेस्टइंडीज़ के दौरे के बाद भारतीय टीम को इंग्लैंड के दौरे पर जाना है यानी सितंबर तक भारतीय टीम का कार्यक्रम बिना रुके चलता रहेगा. इस स्थिति में अगर पुराने और अनुभवी खिलाड़ी आराम की मांग कर रहे हैं तो उनकी बात में दम दिखता है.
इस मामले में कपिल देव खिलाड़ियों का बचाव करते हुए कहते हैं कि  खिलाड़ी भी एक आम आदमी होता है, उसकी भी इच्छाएं और पसंद होती है. इसलिए बेहतर होगा कि उसे ही निर्णय लेने दें कि उसे देश के लिए खेलना है या फिर देश के किसी क्लब के लिए. अतिरिक्त दबाव से केवल परेशानी ही पैदा होती है. इसलिए मैं गुजारिश करता हूं कि अपनी हां और ना का अधिकार खिलाड़ियों के ही हाथ में रहने दें. कपिल देव ने कहा कि हम एक स्वतंत्र देश में रहते हैं. यहां हर किसी को अपने फैसले लेने का हक़ है. इसलिए मेरी नज़र में यही बेहतर होगा कि खिलाड़ी ख़ुद तय कर लें कि उन्हें क्या करना है.
बोर्ड को इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. कपिल देव ने ये बातें उस समय कहीं, जब उनसे पूछा गया कि क्या आपको लगता है कि खिलाड़ी देश के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए खेलते हैं. हालांकि कपिल विवादों पर टिप्पणी करने से बचते रहे. कपिल देव को इन बातों पर भी ग़ौर करने की ज़रूरत है कि ये सभी वे खिलाड़ी हैं, जो लगातार आईपीएल खेल रहे थे, लेकिन जब दौरे की बात हुई तो सब बीमार हो गए. इसे मात्र संयोग तो नहीं कहा जा सकता. होना तो यह चाहिए था कि बोर्ड इस बहस में हिस्सा ले और भविष्य में ऐसे कार्यक्रम बनाए, जिससे आईपीएल और बाक़ी अंतरराष्ट्रीय मुक़ाबलों के बीच सामंजस्य स्थापित हो सके,

Thursday, July 21, 2011

डोपिंग का जाल : सिर्फ खिलाडी और कोच दोषी नहीं




भारत के ज़्यादातर खेल पहले से ही क्रिकेट के मायाजाल में फंसकर खुद के अस्तित्व के लिए तरस रहे हैं, ऐसे में डोपिंग के बढ़ते मामलों ने उन उभरते हुए खेलों और खिलाड़ियों को हाशिए पर डालने का काम किया है, जो किसी तरह क्रिकेट के बाज़ार के बीच अपने स्वर्ण पदकों की बदौलत अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे. जिस तरह स्वर्ण पदक विजेता खिलाड़ी डोपिंग टेस्ट में एक-एक करके  असफल होते जा रहे हैं, उससे न स़िर्फ इन खिलाड़ियों की प्रतिभा पर सवालिया निशान खड़े हुए हैं, बल्कि इससे देश और संबंधित खेलों पर भी एक बदनुमा दाग़ लग गया है.

हाल में जिस तरह 8 खिलाड़ियों को डोपिंग टेस्ट में पॉजिटिव पाया गया है, उससे इतना तो साबित हो गया कि यह सिलसिला अभी रुकने वाला नहीं है. राष्ट्रीय एंटी डोपिंग एजेंसी यानी नाडा के  टेस्ट के दौरान जिन 8 खिलाड़ियों के ए सैंपल में स्टेरॉयड पाए गए हैं, उनमें धाविका सिनी जोस, जौना मूर्मू, टियाना मैरी थॉमस, लंबी कूद के हरि कृष्णन और गोला फेंक की खिलाड़ी सोनिया आदि नाम प्रमुख रूप से शामिल हैं.

ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर इस डोपिंग के लिए ज़िम्मेदार कौन है? खिलाड़ियों से पूछिए तो वे बताएंगे कि हमें तो सप्लीमेंट हमारे कोच देते हैं और हम अनजाने में इस तरह की अवैध दवाओं के शिकार हो जाते हैं. अगर यही सवाल कोच से पूछा जाता है तो उनका जवाब और भी ग़ैर ज़िम्मेदाराना होता है. उनके मुताबिक़ वे तो सारे खिलाड़ियों को सही सप्लीमेंट देते हैं, पर व्यक्तिगत जीवन में उक्त खिलाड़ी बाहर का खाना और पेय इस्तेमाल करते हैं, जिससे उनके शरीर में कुछ तत्व ऐसे आ जाते हैं, जो डोपिंग टेस्ट को पॉजिटिव बना देते हैं. यही सवाल अगर खेल मंत्रालय और फेडरेशन से पूछा जाता है तो उनका जवाब यह होता है कि इसके लिए खिलाड़ियों के कोच और उनके मार्गदर्शक ज़िम्मेदार हैं. हो सकता है कि सबके तर्क अपनी-अपनी जगह पर सही हों, लेकिन ऐसा हो क्यों रहा है और कौन कर रहा है, इस बात पर किसी को भी कोई तर्क नहीं सूझता और न कोई इसे रोकने के ठोस समाधान पर बात करता है.

कोच ही खिलाड़ियों से कहता है कि अगर आप यह दवा लेंगे तो आपका प्रदर्शन अच्छा होगा, आप दूर तक गोला फेंक पाएंगे. खिलाड़ियों को इन दवाओं के बारे में पता ही नहीं होता. तभी मैं कहता हूं कि कोचों को सज़ा मिलनी चाहिए, ताकि आगे आने वाले कोचों को सबक मिले.

- मिल्खा सिंह

हाल में जिस तरह 8 खिलाड़ियों को डोपिंग टेस्ट में पॉजिटिव पाया गया है, उससे इतना तो साबित हो गया कि यह सिलसिला अभी रुकने वाला नहीं है. राष्ट्रीय एंटी डोपिंग एजेंसी यानी नाडा के टेस्ट के दौरान जिन 8 खिलाड़ियों के ए सैंपल में स्टेरॉयड पाए गए हैं, उनमें धाविका सिनी जोस, जौना मूर्मू, टियाना मैरी थॉमस, लंबी कूद के हरि कृष्णन और गोला फेंक की खिलाड़ी सोनिया आदि नाम प्रमुख रूप से शामिल हैं. ग़ौरतलब है कि सिनी जोस ने राष्ट्र मंडल और एशियाई खेलों की 4 गुना 400 मीटर रिले में पिछले वर्ष स्वर्ण पदक जीता था. सिनी, जौना, हरि कृष्णन और सोनिया के यूरिन सैंपल्स में मेथनडाइनोन पाया गया, जबकि टियाना के सैंपल में एपिमैथानडियॉल पाया गया. नतीजतन, इन सभी खिलाड़ियों को अस्थायी रूप से निलंबित कर दिया गया है. नाडा अभी भी कई नमूनों की जांच कर रहा है. उम्मीद लगाई जा रही है कि इस टेस्ट में अभी कई खिलाडि़यों के नाम सामने आ सकते हैं. भले ही हम कुछ खिलाड़ियों पर अस्थायी निलंबन की कार्यवाही करें या फिर किसी विदेशी कोच को ब़र्खास्त कर दें.

ज़्यादातर खिलाडी़ बहुत ज़्यादा प़ढे-लिखे नहीं होते हैं, उनके कोच उन्हें जो भी देते हैं, वे उन पर विश्वास करके ले लेते हैं. इसलिए डोपिंग के लिए खिला़डियों को दोष देना सही नहीं है.  मैं ऐसे कई ला़डकियों को जानती हूं , जिन्होंने यह बात खुद मुझे बताई है.

- साइना नेहवाल



किसी विदेशी कोच को ब़र्खास्त करने और आगे से ऐसे किसी भी कोच की सेवा न लेने का फैसला का़फी हास्यास्पद है. क्या कोई इस बात की गारंटी ले सकता है कि देशी कोच की मौजूदगी में इस तरह के मामले सामने नहीं आएंगे? पिछले कुछ सालों से भारत में डोपिंग के मामलों में बढ़ोत्तरी को देखते हुए सरकार ने राष्ट्रीय एंटी डोपिंग एजेंसी यानी नाडा का गठन किया था. यह संस्था का़फी हद तक सफल भी रही. मई 2010 से लेकर अब तक यानी 11 महीनों के दौरान 122 खिलाड़ी डोपिंग टेस्ट में पॉजिटिव पाए गए. इनमें अधिकतर पहलवान और भारोत्तोलक हैं. इसके अलावा वर्ष 2010 में अगस्त तक नाडा ने 2047 एथलीटों के नमूने लिए थे, जिनमें 103 एथलीट विभिन्न प्रतिबंधित पदार्थ सेवन करने के दोषी पाए गए. इनमें कुछ जूनियर खिलाड़ी भी शामिल हैं. हाल में राष्ट्र मंडल खेलों की टीम में शामिल 18 खिलाड़ी भी डोपिंग के दोषी पाए गए, जिनमें 12 खिलाड़ी मिथाइलहेक्सानेमाइन के सेवन के दोषी पाए गए.

जिस तरह नाडा अपना काम कर रही थी, उसे देखकर तो ऐसा लग रहा था कि डोपिंग के शिकंजे से खिलाड़ियों को छुड़ाना अब आसान हो गया है, लेकिन इस वाक़िये ने एक बार फिर इस बात पर मुहर लगा दी है कि कहीं न कहीं कुछ तो ग़डब़ड है. मामलों को ब़ढता देख अब टेस्ट के अलावा ड्रग्स की धोखेबाज़ी को पकड़ने के लिए एनएडीए खिलाड़ियों के  घरों पर भी छापा मारने की बात कही जा रही है. असल में छापा मारने की कवायद नाडा ने एक ऑस्ट्रेलियाई मॉडल के आधार पर तय की है, जिसके तहत किसी भी खिलाड़ी के घर अचानक छापा मारा जा सकता है. ऑस्ट्रेलिया ने इस मुद्दे पर बहुत प्रभावी काम किया है, लेकिन इस बात की गारंटी कोई भी नहीं दे रहा है कि यह मॉडल नाडा से कितना बेहतर साबित होगा. कहीं ऐसा न हो कि छापेमारी चलती रहे और खिलाड़ियों के टेस्ट पॉजिटिव आते रहें. अगर फेडरेशन वाक़ई इस संकट से निजात चाहता है तो वह पहले खिलाड़ियों और उनके कोचों की दलीलों में न फंसकर गंभीरता से जांच करे कि खिलाड़ियों के भोजन, पेय और सप्लीमेंट तक आखिर ये प्रतिबंधित पदार्थ पहुंचते कहां से हैं? साथ ही वह खिलाड़ियों को यह संदेश भी दे कि वे अपना प्रदर्शन बेहतर बनाने के  लिए प्रदर्शन बढ़ाने वाली दवाइयों पर आश्रित होने के बजाय अभ्यास और कड़ी मेहनत पर ज़ोर दें. अन्यथा ये खिलाड़ी फिर किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए विदेश जाएंगे और प्रतिबंधित दवाओं के सेवन के आरोप में वापस भेज दिए जाएंगे. अभी मामला घर में है, यहीं सुलझा लिया जाए और इस डोपिंग के जिन्न के असली आक़ा को पकड़ा जाए तो बेहतर होगा.



डोपिंग के शिकार खिलाडी़

नाम                                       सज़ा                                        खेल
विली मेस                              20 साल आठ महीने                      बेसबॉल
मेल हॉल                              45 साल                                      बेसबॉल
ऐडी जॉन्सन                      आजीवन प्रतिबंध                      बास्केटबॉल
फ्लोड मेवेदर सी.                      5 साल                                       बॉक्सिंग
माइक टाइसन                      3 साल                                       बॉक्सिंग
मिसी जिवो                              6 महीने                                       साइक्लिंग
स्टीव डर्बानो                      7 साल                                       आइस हॉकी
इवेंजोलोस गाउसिस              20 साल                                       मार्शल आर्ट
वाइस ली                              12 साल                                       मोटर स्पोर्ट
जे एडम्स                              2 साल 6 महीने                      स्केटबोर्डिंग
सिलिवीनो फ्रेंसिस्को              3 साल                                      स्नूकर
क्रिस्टोस लैकोवोस              5 साल                                       भारोत्तोलन

इनके अलावा और कई ऐसे खिला़डी हैं जिन्हें बाद में डोपिंग टेस्ट में फेल पाए जाने पर उनके गोल्ड मेडल्स तक वापस छीन लिए गए हैं.

Wednesday, July 13, 2011

ये बदलाव कितने जरूरी हैं



व्‍यापार का एक सिद्धांत यह होता है कि जैसे ही व्यापारी को महसूस हो कि उसके बिजनेस की चमक फीकी पड़ने लगी है, वह या तो अपना बिजनेस बदल दे या उसे जल्द ही रेनोवेशन की प्रक्रिया में लाए. आजकल क्रिकेट के व्यापारीकरण से तो सभी वाकिफ हैं. यह बिजनेस भी अपनी लोकप्रियता और मुनाफे के शिखर पर है, लेकिन पिछले कुछ दिनों से भारतीय क्रिकेट टीम ने इतना क्रिकेट खेला कि लोग खेल से ही उकताने लगे. पहले विश्वकप हुआ, उसके तुरंत बाद आईपीएल और फिर वेस्टइंडीज दौरा.

 बात यहीं खत्म नहीं होती. टीम इंडिया वेस्टइंडीज दौरे के बाद इंग्लैंड रवाना होगी. नतीजतन, आईपीएल में क्रिकेट प्रायोजकों और प्रबंधन को उतना फायदा नहीं पहुंचा, जितने की उन्हें उम्मीद थी. हालांकि बिजनेस के टर्म में कम मुनाफे को नुकसान की ही संज्ञा दी जाती है. लगता है कि अब आईसीसी को भी इसका अंदाजा हो चुका है, इसलिए अब वह भी रेनोवेशन की प्रक्रिया से गुजर रहा है. अभी हाल में नियमों के बदलाव को लेकर जो भी विवाद और चर्चाएं हुई हैं, उनसे तो यही लगता है कि क्रिकेट के नियमों में बदलाव करके एक बार फिर से लोगों में क्रिकेट के प्रति दिलचस्पी पैदा की जाए.

गौरतलब है कि लंबी बहस के बाद आखिर में अंपायरों के फ़ैसले की समीक्षा (डीआरएस) करने वाली तकनीकी प्रणाली स्वीकार कर ली गई. अब यूडीआरएस का नया बदला हुआ रूप टेस्ट और वन डे मैचों में लागू हो जाएगा. अब विवादास्पद अंपायर डिसिजन रिव्यू सिस्टम (यूडीआरएस) का संशोधित रूप सभी अंतरराष्ट्रीय मैचों में लागू होगा. उसमें हॉट स्पॉट तकनीक तो होगी, लेकिन हॉक आई नहीं होगी, जिससे गेंद की दिशा का पता चलता है. यानी यूडीआरएस में एलबीडब्ल्यू के फैसले शामिल नहीं होंगे. इसमें अब थर्मल इमेजिंग और साउंड तकनीक शामिल होगी. 2008 के बाद अगले महीने शुरू हो रही इंग्लैंड सीरीज में भारत पहली बार यूडीआरएस के तहत मैच खेलेगा. अब यूडीआरएस का नया बदला हुआ रूप टेस्ट और वन डे मैचों में लागू हो जाएगा. अब विवादास्पद अंपायर डिसिजन रिव्यू सिस्टम (यूडीआरएस) का संशोधित रूप सभी अंतरराष्ट्रीय मैचों में लागू होगा. उसमें हॉट स्पॉट तकनीक तो होगी, लेकिन हॉक आई नहीं होगी, जिससे गेंद की दिशा का पता चलता है. यानी यूडीआरएस में एलबीडब्ल्यू के फैसले शामिल नहीं होंगे. इसमें अब थर्मल इमेजिंग और साउंड तकनीक शामिल होगी. एक तरफ जहां आईसीसी इस बात को लेकर संतुष्ट है कि वह भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानी बीसीसीआई को इसके लिए राज़ी करने में सफल हुआ, वहीं बीसीसीआई ख़ुश है कि सिर्फ़ ट्रैकिंग टेक्नालॉजी के सहारे डीआरएस के इस्तेमाल का उसका विरोध भी मान लिया गया. पिछले दिनों अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद आईसीसी की हांगकांग में हुई बैठक में फ़ैसला हुआ कि समीक्षा करने वाली प्रणाली यानी डीआरएस के तहत इंफ्रारेड कैमरों और विकेट में लगी आवाज़ पकड़ने वाली मशीनों की मदद ली जाएगी.

 इंफ्रारेड कैमरे यह देख सकेंगे कि अगर विकेट के पीछे कैच या एलबीडब्ल्यू की अपील हुई है तो कहीं गेंद बल्ले को छूते हुए तो नहीं निकली थी. साथ ही विकेट में लगी आवाज़ पकड़ने वाले उपकरण भी यह बताएंगे कि गेंद के बल्ले से छूने की आवाज़ हुई है या नहीं. बीसीसीआई अब तक इस्तेमाल होने वाली बॉल ट्रैकिंग टेक्नालॉजी के विरुद्ध था और आईसीसी ने भी अब बीसीसीआई के रुख़ पर मुहर लगाते हुए कहा है कि इस तकनीक का इस्तेमाल द्विपक्षीय सीरीज में दोनों टीमों की सहमति पर होगा. यानी अगले महीने होने वाले इंग्लैंड के दौरे में अंपायरों के फ़ैसले की समीक्षा की प्रणाली लागू तो होगी, मगर एलबीडब्ल्यू के फैसलों के लिए यह लागू नहीं होगी, क्योंकि वे फ़ैसले बॉल ट्रैकिंग टेक्नालॉजी के इस्तेमाल पर निर्भर होते हैं. इन तब्दीलियों से इतना तो तय है कि आईसीसी के नए नियम क्रिकेट के स्वरूप को बदल डालेंगे.


 आईसीसी की बैठक में यह भी फ़ैसला हुआ कि एक दिवसीय मैचों में टीमों को अंपायर के फ़ैसले के विरुद्ध अब दो के बजाय एक बार अपील का मौक़ा मिलेगा और अगर अपील सही हुई तो वह मौक़ा बरक़रार रहेगा. अब बैटिंग और बॉलिंग के पावर प्ले 16 से 40 ओवरों के बीच ही लिए जा सकेंगे. साथ ही गेंदबाज़ों के दोनों छोरों से नई गेंद का इस्तेमाल होगा यानी मैच के बीच में अब गेंद बदलने की ज़रूरत नहीं होगी. साथ ही एक साल के भीतर अगर किसी टीम का कप्तान दो बार धीमे ओवर रेट का दोषी पाया गया तो उसे निलंबन का सामना करना पड़ेगा, पहले इसकी इजाज़त तीन बार की थी. विश्वकप को ध्यान में रखते हुए परिषद ने 2015 में ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में होने वाले क्रिकेट विश्वकप के लिए एक क्वालिफ़िकेशन की प्रक्रिया अपनाने की सलाह दी है यानी आयरलैंड और नीदरलैंड जैसी टीमों के इस विश्वकप में शामिल होने की राह खुल गई है. हालांकि यह सिफ़ारिश नहीं की गई है कि विश्वकप में कितनी टीमें शामिल की जाएं, लेकिन इससे इतना तो तय है कि अब अगले विश्वकप में छोटी टीमें भी भाग ले सकेंगी. इसके अलावा एक और बदलाव हुआ है, जिसे लेकर सुनील गावस्कर काफी खफा हैं.

दरअसल, बदलाव यह है कि आईसीसी की एग्जीक्यूटिव कमेटी ने फैसला किया है कि वन डे में घायल बल्लेबाजों को रनर नहीं दिए जाएंगे यानी अब रनर का इस्तेमाल करने का अधिकार बल्लेबाज को नहीं मिलेगा. जब भी इस तरह के परिवर्तन होते हैं, इन्हें लेकर सहमति और असहमति की स्थिति बनती रहती है.  इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ है. गावस्कर इस बात को लेकर इतने नाराज है कि उन्होंने यहां तक कह दिया कि अगर बल्लेबाज को रनर नहीं दोगे तो फिर गेंदबाज को मैच के बीच में पानी भी न दिया जाए.


 उनके मुताबिक, बल्लेबाजों पर लागू होने वाला नियम उतनी ही कड़ाई से फील्डिंग वाली टीम पर भी लागू होना चाहिए. नाराज गावस्कर ने यह सुझाव तक दे डाला कि गेंदबाजों को पानी न दिया जाए. वे एक ओवर डालते हैं और बाउंड्री पर आ जाते हैं, जहां उन्हें एनर्जी ड्रिंक्स दिया जाता है. गावस्कर ने कहा कि अगर आईसीसी को लगता है कि घायल बल्लेबाजों को रनर देना नाइंसाफी है तो उसे ड्रिंक्स ब्रेक भी खत्म कर देने चाहिए और वैकल्पिक फील्डर का कॉन्सेप्ट भी खत्म कर देना चाहिए. किसी हद तक उनकी यह नाराजगी जायज नजर आती है. लेकिन सवाल अब भी वही है कि इस तरह के बदलावों का क्या औचित्य है? अच्छा तो यह होता कि खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर चर्चा होती, नई प्रतिभाओं के भविष्य को लेकर योजनाएं बनतीं और इस खेल से जुड़े उन कर्मचारियों के विकास की बात होती, जो हमेशा पर्दे के पीछे रहकर क्रिकेट के विशाल आयोजनों को कामयाबी की दहलीज तक ले जाते हैं. लेकिन ऐसा नहीं होगा, क्योंकि क्रिकेट का व्यापार अभी जोरों पर है और सिर्फ रेनोवेशन मात्र से ही पब्लिसिटी बटोरने वालों की कमी नहीं है 

Thursday, July 7, 2011

विवादों ने तोड़ी करियर की कमर


वेस्टइंडीज क्रिकेट इस व़क्त अपने उसी दौर से गुजर रहा है, जिस दौर से भारतीय हॉकी टीम गुजर रही है. लगातार हार का सामना और खिलाड़ियों के बढ़ते विवाद ने इस टीम को आज ऐसे मुक़ाम पर खड़ा कर दिया है, जहां इसके भविष्य पर सवाल खड़े होने लगे हैं. क्रिकेट से लगाव रखने वाले हर एक शख्स को वेस्टइंडीज क्रिकेट का स्वर्णिम दौर याद होगा. वह दौर ऐसा था, जब अफ्रीकी खिलाड़ियों के सामने अच्छे-अच्छे बल्लेबाज़ों के बैट कांप जाते थे. उस व़क्त शायद ही किसी को इस बात का एहसास रहा होगा कि वेस्टइंडीज क्रिकेट का एक ऐसा दौर भी आएगा, जब ख़ुद उसके ही खिलाड़ी बग़ावत पर उतर आएंगे. इस दौर से वेस्टइंडीज एक दिन तो उबर ही जाएगा, लेकिन खामियाजे के तौर पर उसे कई बेहतरीन खिलाड़ी खोने पड़ रहे हैं. इसमें अव्वल नाम तो आईपीएल में जलवा बिखेरने वाले धुआंधार बल्लेबाज़ क्रिस गेल का है. इस बेहतरीन क्रिकेटर के करियर की कमर ख़ुद उसके द्वारा पैदा किए गए विवादों ने तोड़कर रख दी है. हाल यह है कि क्रिस गेल का करियर लगभग ख़त्म माना जाने लगा है. अगर इन सब विवादों पर ग़ौर किया जाए तो एक बात साफ हो जाती है कि अगर क्रिस गेल जैसा खिलाड़ी इतने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के बाद टीम में अपनी जगह को लेकर संघर्ष कर रहा है तो इसमें बोर्ड से ज़्यादा ज़िम्मेदारी उसके ख़ुद के पैदा किए विवादों की है.

 इन विवादों से जितना नुक़सान इस खिलाड़ी का होगा, उससे कहीं ज़्यादा उनके चाहने वाले हज़ारों प्रशंसकों और बेहतरीन क्रिकेट के शौकीनों का होगा. ग़ौरतलब है कि क्रिस गेल की टीम में वापसी की उम्मीदों को गहरा झटका लगा है. वेस्टइंडीज क्रिकेट बोर्ड डब्ल्यूआईसीबी और गेल के बीच हुई गर्मागर्म बैठक के बाद अब इस विस्फोटक बल्लेबाज़ के करियर पर भी पूर्ण विराम लगता दिखाई दे रहा है. भारत के ख़िला़फ वन डे सीरीज में जगह न बना पाने के बाद गेल द्वारा टेस्ट टीम में स्थान तलाशने की कोशिश भी नाकाम हो गई. आप सोच रहे होंगे कि क्रिस गेल के साथ वेस्टइंडीज क्रिकेट बोर्ड इस तरह से सौतेला व्यवहार क्यों कर रहा है? दरअसल, इसमें कुछ क्रिकेट बोर्ड द्वारा पैदा की हुई ग़लत़फहमियां तो हैं ही, लेकिन उससे ज़्यादा ज़िम्मेदार ख़ुद गेल द्वारा पैदा किए गए विवाद हैं. इस बात से तो सभी वाक़ि़फ हैं कि क्रिस गेल और विवादों का साथ चोली-दामन जैसा है. दरअसल, इस विवाद की असली वजह यह थी कि डब्ल्यूआईसीए ने गेल को टीम की कप्तानी नहीं सौंपी थी. इसके पीछे वजह यह बताई गई कि उन्होंने बोर्ड के साथ रिटेनर क़रार नहीं किया था.

जबकि इस खिलाड़ी को लगा कि क़रार पर हस्ताक्षर न करने का असर उसकी कप्तानी पर नहीं पड़ेगा. बोर्ड ने हालांकि कहा कि कप्तान बनने के लिए खिलाड़ी का रिटेनर क़रार पर हस्ताक्षर करना ज़रूरी है. बैठक के दौरान डब्ल्यूआईसीए चाहता था कि बोर्ड गेल को टीम में शामिल कर ले और रेडियो साक्षात्कार के दौरान की गईं उनकी टिप्पणियों को व्यक्तिगत माना जाए, जबकि बोर्ड चाहता है कि गेल उन बयानों का खंडन करें, लेकिन गेल ने क्रिकेट बोर्ड के पिछले महीने उसके ख़िला़फ रेडियो साक्षात्कार के दौरान की गई टिप्पणियों का खंडन करने के आग्रह को ख़ारिज कर दिया. इसी बात ने गेल के ख़िला़फ बोर्ड को भड़का दिया. इसके अलावा एक वजह यह भी थी कि आईपीएल के दौरान गेल ने अपने देश से ज़्यादा आईपीएल को तवज्जो दी.

सूत्रों के मुताबिक़, पिछले दिनों बोर्ड और गेल के बीच चार घंटे चली बैठक एक समय काफी उग्र हो गई थी और राम नारायण एक समय हिलेयर पर हमला करने के क़रीब थे. दरअसल, डब्ल्यूआईसीए और बोर्ड के बीच विवाद आईपीएल शुरू होने से पहले ही बढ़ गया था, क्योंकि गेल उसी स्थिति में वेस्टइंडीज क्रिकेट टीम की ओर से खेलना चाहते थे, यदि बोर्ड उन्हें उतना पैसा चुकाए, जितना गेल को आईपीएल में मिल रहा है. रॉयल चैलेंजर्स बेंगलूर ने गेल को आठ लाख डॉलर की रकम देकर आईपीएल के लिए ख़रीदा था. इसमें कोई दो राय नहीं है कि गेल बेहतरीन खिलाड़ी हैं, लेकिन उनकी तीखी प्रतिक्रिया ने हमेशा उन्हें कठघरे में खड़ा किया है. स़िर्फ एक बयान ने क्रिस गेल को हाशिए पर ला दिया है. लेकिन यह पहली बार नहीं है, जब गेल ने बागी तेवर दिखाए हैं. वर्ष 2005 में भी क्रिस और बोर्ड के बीच विवाद हो चुका है. 2005 तक वेस्टइंडीज क्रिकेट को केबल्स एंड वायरलेस नामक कंपनी प्रायोजित करती थी. बोर्ड के साथ कंपनी के कुछ खिलाड़ियों से निजी क़रार भी थे, लेकिन 2005 में विंडीज बोर्ड ने केबल्स एंड वायरलेस की प्रतिद्वंद्वी कंपनी डिजिसेल के साथ क़रार कर लिया. बोर्ड ने इस अनुबंध के तहत टीम के खिलाड़ियों को केबल्स एंड वायरलेस से संबंध तोड़ने के आदेश दिए, लेकिन क्रिस गेल समेत कुछ खिलाड़ियों ने बोर्ड की इस बात को मानने से इंकार कर दिया.

 नतीजतन, दक्षिण अफ्रीका के ख़िला़फ पहले टेस्ट से गेल समेत सभी बागी खिलाड़ियों का पत्ता साफ हो गया. हालांकि गेल ने बोर्ड के आगे झुकते हुए केबल्स एंड वायरलेस से क़रार ख़त्म कर लिया और उन्हें दूसरे टेस्ट की टीम में शामिल कर लिया गया. इसके बाद 2006 में गेल स्लेजिंग के  प्रकरणों में लिप्त रहे. पहले न्यूजीलैंड के ख़िला़फ टेस्ट मैच में गेल अपना आपा खो बैठे. उसके बाद भारत में आयोजित चैंपियंस ट्राफी 2006 में ऑस्ट्रेलिया के ख़िला़फ मैच में वह माइकल क्लार्क से उलझ गए. गेल ने पहले क्लार्क पर ताना कसकर उन्हें उकसाया और फिर जब क्लार्क भड़क गए तो दोनों के बीच हाथापाई की नौबत आ गई. मैदान पर तैनात अंपायरों ने टीम के कप्तान राम नरेश सरवन को गेल को संभालने की हिदायत दी. उस दौरान गेल को उनकी हरकत के  लिए दंडित किया गया. 2007 में क्रिस गेल ने एक बार फिर बागी तेवर दिखाते हुए वेस्टइंडीज क्रिकेट बोर्ड की सार्वजनिक तौर पर आलोचना कर डाली. इंग्लैंड दौरे पर हुई इस घटना से गुस्साए बोर्ड ने गेल को फटकार लगाई और चेतावनी दी. 2009 में इंग्लैंड दौरे पर ही क्रिस गेल ने सार्वजनिक रूप से कह दिया कि वह वेस्टइंडीज टीम की अगुवाई नहीं करना चाहते, क्योंकि यह बहुत तनाव भरा काम है.


साथ ही उन्होंने यहां तक कह दिया कि वह बहुत ख़ुश होंगे, यदि 20-20 क्रिकेट टेस्ट क्रिकेट का खात्मा कर देता है. टेस्ट क्रिकेट के भविष्य पर दिए इस विवादास्पद बयान पर गेल की जमकर खिंचाई हुई थी. इन सबके बाद कैरिबियाई बोर्ड के रवैये पर सार्वजनिक रूप से सवाल उठाकर गेल ने विवाद खड़ा कर दिया. एक साक्षात्कार के दौरान गेल द्वारा दिए गए इस बयान के बाद बोर्ड ने उन्हें टीम से बाहर कर दिया. अगर इन सब विवादों पर ग़ौर किया जाए तो एक बात साफ हो जाती है कि अगर क्रिस गेल जैसा खिलाड़ी इतने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के बाद टीम में अपनी जगह को लेकर संघर्ष कर रहा है तो इसमें बोर्ड से ज़्यादा ज़िम्मेदारी उसके ख़ुद के पैदा किए विवादों की है. इन विवादों से जितना नुक़सान इस खिलाड़ी का होगा, उससे कहीं ज़्यादा उनके चाहने वाले हज़ारों प्रशंसकों और बेहतरीन क्रिकेट के शौकीनों का होगा. 

Friday, July 1, 2011



कुछ खेल ऐसे होते हैं जो खिलाड़ियों को नाम, दाम और शौहरत दिलाते हैं और कुछ खिलाड़ी ऐसे भी होते हैं जिनके नाम से उस खेल की पहचान जुड़ जाती है. फुटबॉल का नाम लेते ही आम फुटबॉल प्रेमियों के ज़ेहन में पहला नाम पेले का आता है और पेले के बाद माराडोना, लेकिन नई पी़ढी के लिए अगर कोई नाम इस तरह का है तो वह निश्चित तौर पर रोनाल्डो का है. वैसे लोग भी जो फुटबॉल में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं रखते, वे भी रोनाल्डो के नाम से अपरिचित नहीं हैं. रोनाल्डो फुटबॉल के मैदान में ही नहीं खेल की दुनिया का एक ऐसा चमचमाता सितारा है, जिसकी चमक आने वाले कई सालों तक धूमिल नहीं पड़ने जा रही है. बावजूद इसके कि फुटबॉल मैदान पर रोनाल्डो का वह रोमांचित करने वाला कारनामा देखने को फिर नहीं मिलेगा, क्योंकि रोनाल्डो ने फुटबॉल को अलविदा कह दिया है. बिना रोनाल्डो का नाम लिए लीजेंड लिस्ट पूरी ही नहीं हो सकती है. अगर फुटबॉल का जादूगर पेले को माना जाता है तो इस खिलाड़ी का जादू भी फुटबॉल प्रेमियों के सर कम च़ढकर नहीं बोला है, लेकिन फुटबॉल प्रेमियों के लिए यह बहुत बुरी खबर है. अब रोनाल्डो को चाहने वालों को इस महान खिलाड़ी की किक देखने को नहीं मिलेगी. इसकी वजह यह है कि रोनाल्डो ने हाल ही में फुटबॉल को अलविदा कह दिया है. जी हां, ब्राजील के रोनाल्डो लुइस नाज़ारियो डी लीमा ने फुटबॉल से आ़िखरकार अलविदा कह ही दिया. ग़ौरतलब है कि रोनाल्डो पिछले कुछ समय से लगातार चोटों से दो चार हो रहे थे. ऐसे में क़यास लगने शुरू हो गए थे कि अब शायद यह नायाब खिलाड़ी बहुत दिनों तक मैदान में टिक नहीं पाएगा. ऐसा ही हुआ.

फुटबॉल के 100 शीर्ष खिलाड़ियों में स्थान दिया. इंटर के लिए रोनाल्डो ने 68 मैचों में 49 गोल किए, जबकि रियल के लिए उन्होंने 127 मैचों में खेलते हुए 83 गोल किए. विश्व कप के लिए ब्राजीली टीम में जगह नहीं मिलने से निराश रोनाल्डो ने 2009 में ब्राजील के क्लब कोरिंथियंस के साथ क़रार किया और अपने करियर के अंतिम दिनों तक इसी क्लब के लिए खेले. इस क्लब के लिए रोनाल्डो ने 31 मैचों में 18 गोल किए.

ब्राजील के लिए 97 अंतरराष्ट्रीय मुक़ाबले खेल चुके  रोनाल्डो ने आंसुओं के साथ अपने फुटबॉल करियर की समाप्ति की घोषणा की. रोनाल्डो ने कहा कि अब मैं और इंतज़ार नहीं कर सकता. मैं खेलना चाहता हूं, लेकिन शरीर इसकी इजाज़त नहीं दे रहा है. विश्व के महानतम फुटबॉल खिलाड़ियों में शुमार रोनाल्डो तीन बार फी़फा द्वारा वर्ष के  सर्वश्रेष्ठ फुटबॉल खिलाड़ी चुने जा चुके  हैं. यहां पर ग़ौर करने वाली बात यह है कि रोनाल्डो ने अपने संन्यास की घोषणा अपनी ब़ढती उम्र की वजह से नहीं, बल्कि चोट के कारण की है. 2010 की फ़रवरी में रोनाल्डो ने कहा था कि वह 2011 में खेल से रिटायर हो जाएंगे और उन्होंने ऐसा ही किया. उनकी उपलब्धियों का ज़िक्र किया जाए तो शायद शब्द कम पड़ जाएं. फुटबॉल के जादूगर पेले ने दुनिया के महानतम फुटबॉलरों की सूची तैयार की थी, उसमें रोनाल्डो का भी नाम था. पिछले साल ही फुटबॉल की एक मशहूर वेबसाइट गोल डॉट कॉम के एक ऑनलाइन पोल में दशक के खिलाड़ी के रूप में रोनाल्डो को सबसे ज़्यादा वोट मिले. इसी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इस खिलाड़ी में जीत का कितना जज़्बा था. 34 वर्षीय रोनाल्डो फी़फा द्वारा तीन बार वर्ष का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी चुने जाने वाले विश्व के दूसरे फुटबॉल खिलाड़ी हैं. इससे पहले फ्रांस के जिनेदिन जिदान को यह सम्मान मिल चुका है. रोनाल्डो 1994 और 2002 में विश्व कप जीतने वाली ब्राजीली टीम के सदस्य रह चुके  हैं. फुटबॉल के इतिहास में जिनेदिन जिदान और रोनाल्डो ही दुनिया के स़िर्फ दो ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्हें खेल की शीर्ष संस्था फ़ीफ़ा का प्लेयर ऑफ़ द ईयर अवॉर्ड तीन बार हासिल हुआ है.

22 सितंबर 1976 को रोनाल्डो लुइस नाज़ारियो दि लीमा नाम के साथ जन्मे रोनाल्डो फुटबॉल खेल जगत में उस समय चमक के साथ प्रकट हुए थे जब 20वीं सदी का आ़खिरी दशक चल रहा था और 21वीं सदी आ रही थी. 21 साल की उम्र में अपना पहला खिताब पाने वाले रोनाल्डो फुटबॉल की वह जादुई चमक हैं जिसकी झलक पेले और माराडोना ने दिखाई थी. पेले और माराडोना के बाद रोनाल्डो समकालीन लातिन फुटबॉल के सर्वाधिक प्रसिद्ध खिलाड़ियों में एक हैं. रोनाल्डो के खेल की यह रोचकता है कि उन्हें देखते ही प्रतिस्पर्धी दाएं बाएं नहीं हो जाता. वह उन्हें कुछ इस तरह दोस्ताना चुनौती में सहजता में साथ ले आते हैं और फिर उनके बीच अपनी वह निराली विनम्र टॉसिंग फ्लिकिंग करते थे. वहां गेंद प्रतिस्पर्धी खिलाड़ी के पांव से टकराती हुई वापस रोनाल्डो के पांवों से चिपक जाती है. वह अपने दोनों पांवों को गेंद खेलाते हुए दौड़ते जाते हैं. रोनाल्डो ने बड़ी स्ट्राइको की अपेक्षा बजाय ज़्यादातर सरकाते हुए कोण बनाते हुए ऐन गोलपोस्ट तक पहुंचते हुए छकाते हुए गोल किए हैं. अपने दिग्गज अग्रजों और अपने प्रतिभाशाली समकालीन खिलाड़ियों की खेल ऊर्जा को रोनाल्डो ने अपने खेल में समाहित करने की कोशिश की थी. रोनाल्डो ने खेल की बदौलत अपार लोकप्रियता, अपार प्रतिष्ठा और अपार अमीरी हासिल की.

वह उन असाधारण दिनों में अपनी पीली जर्सी पहने चमक रहे थे, जब बाज़ार फुटबॉल के  मैदान में बढ़ता ही चला आ रहा था. रोनाल्डो ऐसे ही उस दौर के शिकंजे में आए हुए बीमार पस्त खिलाड़ी रह चुके थे जब 1998 के विश्व कप में उनकी टीम को फ्रांस से मात खानी पड़ी थी. इंजेक्शन देकर उन्हें मैदान पर उतारा गया था. वह फ़ाइनल खेलने लायक़ नहीं थे. पारिवारिक मुश्किलों, अवसाद और चोटों से बीमार रोनाल्डो ड्रेसिंग रूम में उल्टी कर रहे थे, लेकिन उनकी टीम उनके देश उनकी कंपनी उनके क्लब उनके नाम का इतना भारी दबाव था कि रोनाल्डो को न उतारने की कल्पना कोई कर ही नहीं सकता था. ख़ुद रोनाल्डो हैरान थे. उस दिन उन्हें पहली बार लगा था कि प्रेत भी फुटबॉल के मैदान पर जाकर भाग सकते हैं. इधर-उधर निरीह ढंग से गेंद को धकियाते ख़ुद को फेंकते रह सकते हैं. 2002 का विश्व कप इसका गवाह है. जहां रोनाल्डो अविश्वसनीय और ऐतिहासिक ज़िद के साथ मैदान पर उतरे थे और अपनी टीम को विश्व कप जिताने में प्रमुख भूमिका उन्होंने निभाई थी. रोनाल्डो इस जीत के बाद ब्राज़ील ही नहीं, सहसा पूरे खेल के ही महानायक बन गए थे. कहते हैं कि किसी की भी सफलता में उसके संघर्ष की महान गाथा छिपी होती है, ऐसी ही गाथा रोनाल्डो की भी है. अपने प्रदर्शन और योगदान की बदौलत कुछ ऐसी भूमिका में आ जाते हैं कि उनके जाने के बाद उस टीम के अस्तित्व की कल्पना करना ही मुश्किल हो जाता है. ऐसा लगने लगता है कि जब यह खिलाड़ी संन्यास की घोषणा करेगा तो फिर उसकी जगह कैसे भरेगी. जहां क्रिकेट में मास्टर बलास्टर सचिन तेंदुलकर को लेकर इस तरह की चर्चाएं होंगी, वहीं रोनाल्डो के संन्यास लेने के बाद फुटबॉल प्रेमियों के बीच भी कुछ ऐसी ही बहस छिड़ गई है. बहरहाल, रोनाल्डो ने भले ही खुद को फुटबॉल मैदान से दूर कर लिया, लेकिन उनके करोड़ों फैंस उन्हें अपने दिल से दूर नहीं कर सकेंगे.

तमगे ज़्यादा और कंधा छोटा

रोनाल्डो ने यूरोप और दक्षिण अमेरिकी फुटबॉल क्लबों के लिए खेलते हुए 350 से अधिक गोल किए. रोनाल्डो को वर्ष 1997 में सबसे पहले 21 वर्ष की उम्र में यूरोप का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी चुना गया था. वर्ष 2007 में फ्रांस फुटबॉल ने अपने सर्वकालिक महान अंतरराष्ट्रीय टीम में रोनाल्डो को जगह दी. इसके अलावा फीफा ने इसी वर्ष रोनाल्डो को ब्राजील के महानतम खिलाड़ी पेले के साथ अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल के 100 शीर्ष खिलाड़ियों में स्थान दिया. इंटर के लिए रोनाल्डो ने 68 मैचों में 49 गोल किए, जबकि रियल के लिए उन्होंने 127 मैचों में खेलते हुए 83 गोल किए. विश्व कप के लिए ब्राजीली टीम में जगह नहीं मिलने से निराश रोनाल्डो ने 2009 में ब्राजील के क्लब कोरिंथियंस के साथ क़रार किया और अपने करियर के अंतिम दिनों तक इसी क्लब के लिए खेले. इस क्लब के  लिए रोनाल्डो ने 31 मैचों में 18 गोल किए. रोनाल्डो ने विश्व कप में कुल 15 गोल किए हैं. वर्ष 2006 के फी़फा विश्व कप में हिस्सा लेने वाले रोनाल्डो ने विश्व कप में सर्वाधिक गोल करने वाले खिलाड़ी बनने का गौरव हासिल किया. उन्होंने इस वर्ष जर्मनी के गर्ड मुलर के 14 गोल के रिकार्ड को ध्वस्त किया.

रोनाल्डो के नाम और भी कई रिकॉर्ड हैं. 2007 में हुए एक पोल में उन्हें सर्वकालिक टीम के ग्यारह खिलाड़ियों में से एक चुना गया.