Monday, February 21, 2011

कोलकाता में भिखारी ठाकुर फेस्टिवल



भारत में सैकड़ों भाषाएं बोली जाती हैं, लेकिन हर भाषा को सरकारी दर्ज़ा हासिल नहीं होता है. हालांकि, किसी भी भाषा को दर्ज़ा मिलने का पैमाना उस भाषा को बोलने वालों की संख्या पर भी निर्भर करता है. अगर इस आधार पर भी उस भाषा को उसका दर्ज़ा हासिल न हो तो इसे अन्याय नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे. इसी अन्याय की शिकार भोजपुरी भी है. भोजपुरी को लेकर आज उत्तर भारत समेत संपूर्ण विश्व में चाहे जितने ज़ोर-शोर से बातें की जाएं, लेकिन यह सारी बातें तब तक निरर्थक हैं जब तक हिंदुस्तान में बोली के रूप में सिसक रही भोजपुरी को भाषा का दर्ज़ा दिलाने की सही लड़ाई नहीं लड़ी जाएगी. लेकिन अब कुछ लोग आगे आए हैं, जिन्होंने भोजपुरी को उसका अधिकार दिलाने के लिए कमर कस ली है.

इसमें राइटर्स एंड जर्नलिस्ट एसोसिएशन(डब्ल्यूएजेए) का नाम प्रमुख है. बदलते दौर में यदि भाषा की बात करनी है तो निश्चित रूप से बातूनी कटघरों को तोड़ इस भाषा के साहित्य को आगे लाकर भोजपुरी भाषा का प्रचार-प्रसार करना होगा. और इसके लिए भिखारी ठाकुर तथा उनकी रचनाओं से बड़ा हथियार भला और क्या हो सकता है? इसी को ध्यान में रखते हुए देश के समस्त रचनाकारों के सम्मान-स्वाभिमान एवं विभिन्न भाषा-साहित्य के विकास हेतु दृढ़ संकल्पित राष्ट्रीय स्तर पर रचनाकारों-पत्रकारों का साझा मंच राइटर्स एंड जर्नलिस्ट एसोसिएशन(डब्ल्यूएजेए) इस मामले में बेहद गंभीर है.

 इसीलिए वह भोजपुरी के उत्थान हेतु कार्य कर रहे प्रबुद्धजनों व संस्थाओं का इस संबंध में खुला समर्थन करता है. पिछले दिनों 18 दिसंबर 2010 को भिखारी ठाकुर के जन्मदिवस पर पटना में देश के भविष्य आईआईटियंस को प्रमोट कर रही विजन क्लासेज के साथ राइटर्स एंड जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने अपनी संयुक्त प्रेस कांफ्रेस में यह घोषणा की थी कि भिखारी ठाकुर को नई पीढ़ी के समक्ष सही ढंग से प्रस्तुत कर उनके साहित्य को वैश्विक प्लेटफॉर्म पर लाने की ज़रूरत है. इसके लिए प्रसिद्ध भोजपुरी गायिका कल्पना अपने महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट द लीगेसी ऑफ भिखारी ठाकुर के माध्यम से एक सार्थक पहल कर रही हैं.


भविष्य में ऐसी अनेक पहल शुरू हों और भिखारी ठाकुर व उनके साहित्य के ज़रिए भोजपुरी भाषा मान्यता की राह में कुछ क़दम आगे बढ़ सके. इसी को ध्यान में रखते हुए राइटर्स एंड जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने पटना की यह कांफ्रेंस नई पीढ़ी की नई सोच व स्थानीय स्तर पर इस पहल को समर्थन देने वाले जनांदोलन की पहली कड़ी के रूप में की. पटना व मुंबई के बाद तीसरे चरण में राइटर्स एंड जर्नलिस्ट एसोसिएशन आगामी 15 मार्च 2011 को कला मंदिर, थियेटर रोड कोलकाता में भिखारी ठाकुर फेस्टिवल का आयोजन कर रहा है. जिसमें भिखारी ठाकुर व उनके विचार साहित्य को आगे बढ़ाने वाली देश की कई प्रख्यात हस्तियों को सम्मानित किया जाएगा और भोजपुरी साहित्य में भिखारी ठाकुर के योगदान पर संपूर्ण चर्चा की जाएगी. इसी तरह राइटर्स एंड जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने वाईबी चौहान सेंटर, नरीमन प्वाइंट, मुंबई में राष्ट्रीय स्तर पर लेखकों-पत्रकारों के स्नेह सम्मेलन के दौरान महाराष्ट्र, गुजरात एवं मध्य प्रदेश अध्यक्षों की उपस्थिति तथा महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर.आर.पाटिल, माया गोविंद (प्रख्यात रचनाकार) समेत कई दिग्गज हस्तियों की मौजूदगी में हिंदुस्तान की समस्त क्षेत्रीय भाषाओं को मज़बूत बनाने का आह्‌वान करते हुए कल्पना के सम्मान के ज़रिए भोजपुरी व भिखारी ठाकुर की तऱफ भी राष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान केंद्रित किया.

 पटना व मुंबई के बाद तीसरे चरण में राइटर्स एंड जर्नलिस्ट एसोसिएशन आगामी 15 मार्च 2011 को कला मंदिर, थिएटर रोड कोलकाता में भिखारी ठाकुर फेस्टिवल का आयोजन कर रहा है. जिसमें भिखारी ठाकुर व उनके विचार साहित्य को आगे बढ़ाने वाली देश की कई प्रख्यात हस्तियों को सम्मानित किया जाएगा और भोजपुरी साहित्य में भिखारी ठाकुर के योगदान पर संपूर्ण चर्चा की जाएगी. इस समारोह में विश्व भोजपुरी उत्थान सेवा संस्थान समेत कई स्थानीय संस्थाएं तथा कई बड़ी इवेंट कंपनियां राइटर्स एंड जर्नलिस्ट एसोशिएशन के कंधे से कंधा मिलाते हुए इस पुनीत कार्य में अपना सहयोग प्रदान कर रही हैं. मुंबई से उक्त बयान जारी करते हुए राइटर्स एंड जर्नलिस्ट एसोसिएशन के राष्ट्रीय महासचिव शिवेंद्र प्रकाश द्विवेदी के मुताबिक़ कोलकाता का यह भिखारी ठाकुर फेस्टिवल कई मायनों मे बहुत खास है. सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि राजाराम मोहन राय और विवेकानंद जैसी प्रतिभाओं ने कोलकाता में ही नव जागरण का पाठ सीख कर समूचे भोजपुरी भाषियों को अपने क्रांतिकारी विचारों से अभिसिंचित किया था. ऐसे में भोजपुरियों के चहेते शहर कोलकाता में होने वाला यह भिखारी ठाकुर फेस्टिवल न केवल भोजपुरी बेल्ट में नई क्रांति लाएगा बल्कि कई मायनों में ऐतिहासिक भी होगा. जिस तरह से लोग एकजुट हुए हैं, उसे देखकर तो यही लगता है कि इस भिखारी फेस्टिवल के ज़रिए भोजपुरी की आवाज़ सही तरीक़े से उठेगी. -

Sunday, February 20, 2011

गांव से सबक लें शहरवाले




एक समय था जब भारत को गांवों को देश कहा जाता था. किसान और ज़मीन से ही देश की अर्थव्यवस्था जुड़ी हुई थी. लेकिन समय बदला और शहरों के विकास की आंधी में गांव कहीं पीछे छूट गए. कहा जाने लगा कि शहर के लोग गांव के लोगों से हर हाल में बेहतर हैं. लेकिन नोएडा से लिए गए आंकड़े कुछ और ही कहानी बयां करते हैं. नोएडा में जिस तरह से शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में लड़का-लड़की का लिंगानुपात बिगड़ा हुआ है उसे देखकर यही लगता है की शहरी क्षेत्र के लोगों में लड़के की चाह कुछ ज़्यादा ही ज़ोर मार रही है.

ऐसा कुछ करते समय उनको इस बात का एहसास बिल्कुल भी नहीं होता है कि आने वाले समय में अगर लड़कियां नहीं होंगी तो उनके लड़कों की शादी के लिए देखे गए उनके  सपने कहां से पूरे होंगे? पर शायद इन मां-बाप को अभी केवल इतना ही दिखाई दे रहा है कि वे आज अपने घरों में लड़कियों को आने से रोक सकने में समर्थ हो पा रहे हैं? आने वाले समय में उनके यही क़दम उन्हें पता नहीं कहां-कहां भटकने को मजबूर कर देंगे? आंकड़ों से पता चलता है कि 2001 की जनगणना के बाद से अब कन्या लिंगानुपात में कुछ सुधार हुआ है,  पर आज भी यह संतोषजनक नहीं है.

एक तऱफ जहां ग्रामीण क्षेत्रों  में यह अनुपात 920/1000 है वहीं शहरी क्षेत्र में यह 855/1000 पर अटकी हुई है. इसका क्या मतलब निकाला जाए कि शहरी क्षेत्रों के लोग अपनी शिक्षा का इस तरह से उपयोग कर रहे हैं. . इसका क्या मतलब निकाला जाए कि शहरी क्षेत्र में लोग अपनी शिक्षा का इस तरह से उपयोग कर रहे हैं और कुछ लालची चिकित्सकों की सहायता से कुछ रुपए खर्च करके वे पूरे समाज के ताने बाने को छिन्न-भिन्न करने पर आमादा हैं.


क्या शिक्षा का यही अर्थ लगाया जाए कि कुछ लोग आधुनिक तकनीक का ग़लत इस्तेमाल करके अपने मन की करने पर लगे हुए हैं. अभी तक जिन जांचों से गर्भ में होने वाली बीमारियों का पता लगाया जाता था, उसका दुरुपयोग आज भ्रूण लिंग परीक्षण के लिए किया जा रहा है? क्या आने वाले समय में भारत चिकित्सा जगत से जुड़े इन नए आयामों के प्रयोग के लायक़ समझा भी जाएगा? क्या हमारी शिक्षा अब इतनी ही रह गई है कि हम अपने भविष्य के निर्धारण के समय इस तरह से लड़कियों को नियंत्रित करते चलें? प्रकृति अपने हिसाब से चलती है और इस तरह से प्राकृतिक असंतुलन को जन्म देने वाले यह नहीं जानते हैं कि अनजाने में वे कहीं न कहीं से सामाजिक संघर्ष को बढ़ावा दे रहे हैं? अभी तक जो काम छोटे स्तर पर किया जा रहा है अगर उसे ही पूरा देश अपना ले तो इस समाज का क्या होगा.

 आने वाले समय में लड़कों के लिए शादी योग्य लड़कियां कहां से आएंगीं? धिक्कार है ऐसे चिकित्सकों पर जो केवल कुछ रुपयों के लालच में इस तरह की घटिया हरकतें करने से भी बाज़ नहीं आते हैं? क्या आधुनिक और सभ्य समाज इसी तरह के होते हैं? इस काम की शुरुआत पंजाब और हरियाणा से हुई थी और आज भी वहां पर स्थिति कुछ सुधरी सी नहीं लगती है? कई ख़बरें तो ऐसी भी मिली कि वहां के लड़कों के लिए केरल और बिहार से लड़कियां लाई जा रही हैं? इस सारे मसले पर हम सभी को अपनी-अपनी नैतिकता के साथ जीना सीखने की आवश्यकता है और जब तक हम यह नहीं सीख सकेंगे तब तक यह असंतुलन दूर नहीं होगा. अंत में तो यही कहा जा सकता है कि गांवों के हालात शहरों से बदतर हैं और शहरों को इनसे सबक लेने की ज़रूरत है.

Thursday, February 17, 2011

ईडन गार्डनः अधूरी तैयारी ने तोड़ दिया सपना


क्या वाकई क्रिकेट वर्ल्ड कप की तैयारियों में भी एक ब़डे भ्रष्टाचार का मामला सामने आ सकता है? सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि अभी कुछ ही समय पहले जब दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेल की तैयारी चल रही थी तब भी यही सब तमाशा हुआ था. अंतरराष्ट्रीय जांच दल ने कहा कि स्टेडियम का काम पूरा नहीं है और संभव है कि खेलों का आयोजन स्थगित हो जाए. हालांकि, जैसे-तैसे काम पूरा हुआ. खेल का आयोजन भी हुआ. खेल से पहले और खेल के बाद भी राष्ट्रमंडल आयोजन समिति का भ्रष्टाचार देश के सामने निकल कर आया. क्या क्रिकेट जगत में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिलने वाला है?




एक बार श्रीलंका के पूर्व टेस्ट कप्तान मरवन अटापट्टू ने नौकरशाही के खिला़फ कहा था कि ये सारे जोकर हैं. इन जोकरों का सरदार एक बड़ा जोकर है. यदि इस बात को बंगाल क्रिकेट एसोसिएशन के लिए कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा. जिस तरीक़े से बंगाल क्रिकेट एसोसिएशन और उसके अध्यक्ष जगमोहन डालमिया ने ईडन गार्डन, जो कि भारत में क्रिकेट का मक्का कहा जा सकता है, को शर्मसार किया है वो निश्चित ही जोकरों का सरदार होगा. कोलकाता के लोग ही नहीं बल्कि पूरा देश और पूरे विश्व में क्रिकेट को चाहने वाले भारतीय क्रिकेट बोर्ड और बंगाल क्रिकेट एसोसिएशन से नाराज़ हैं

 याद रखने वाली बात यह है कि इससे पहले ईडन गार्डन भारत का सबसे विश्वसनीय स्टेडियम था. पूर्व में भी ईडन गार्डन में विश्व कप के ब़डे-ब़डे मैच आयोजित हो चुके हैं. यह पहली बार होगा कि भारतीय टीम अपने सबसे चहेते क्रिकेट ग्राउंड पर नहीं खेलेगी. 1987 वर्ल्ड कप का फाइनल और 1996 वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल भी ईडन गार्डन में ही हुआ था. लेकिन इस बार के वर्ल्ड कप में ईडन गार्डन का मैदान सूना ही रहेगा. आईसीसी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हारून लोर्गट ने कहा कि ईडन की असफलता दुर्भाग्यपूर्ण है. ऐसा इसलिए कहा क्योंकि, यह स्टेडियम अंतरराष्ट्रीय मैचों की मेजबानी करता रहा है फिर भी वर्ल्ड कप के लिए भारत और इंग्लैंड के बीच 27 फरवरी खेले जाने वाले मैच को स्थगित कर दिया गया था. लोर्गट ने बंगाल क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष जगमोहन डालमिया को ईमेल भेज कर कहा कि मैं भी उतना ही निराश हूं कि ईडन गार्डन में मैच आयोजित नहीं हो पायेगा, लेकिन मुझ पर विश्वास कीजिए, यह मेरे हाथो में नहीं है. यह सब तकनीकी समिति का फैसला है. मैं जल्दी ही आपसे मिलना चाहता हूं क्योंकि जो भी गलत़फहमियां है, वो जल्द ही दूर हो जाएं.

 इस फैसले से न स़िर्फ क्रिकेट खिला़डी बल्कि सभी क्रिकेट प्रेमी, अन्य खेलों से जु़डे खिला़डी भी आहत हैं. ईडन गार्डन सिडनी और लॉर्डस जैसा है. इंग्लैंड के लिए जो लॉर्डस के लिए स्थान है वही ईडन गार्डन का महत्व भारत के लिए है. खाली क्रिकेटर ही नहीं पूर्व ओलंपिक खिला़डी और फुटबॉल से जु़डे लोग भी भारत में हो रहे खेल आयोजनों के साथ जु़डे हुए भ्रष्टाचार को लेकर चिंतित है. आ़िखर भारत को लंदन से कुछ सीख लेनी चाहिए. लंदन में होने वाले ओलंपिक खेल 2012 में शुरु होंगे, उसके आज सभी स्टेडियम तैयार हो चुके हैं. लेकिन सवाल यह है कि यह सब हुआ क्यों? आ़िखर मैच क्यों रद्द करना प़डा? कारण बताया गया कि स्टेडियम की तैयारी तय समय पर पूरी नहीं हो सकी थी. आईसीसी के जांच दल के विशेष अधिकारी प्रो. यूजिन वान वूरेन ने बंगाल क्रिकेट एसोसिएशन को सा़फ शब्दों में कहा कि 27 फरवरी  को भारत और इंग्लैंड के बीच होने वाले मैच को ईडन गार्डन की इस स्थिति को देखते हुए बिल्कुल नहीं कराया जा सकता.

आईसीसी के इस फैसले के बाद वही हुआ जो भारत में होता आया है. एक दूसरे पर छींटाकशी और अपनी नाक़ाबलियत को दूसरों के सर म़ढने का खेल शुरु हो गया. आ़खिर बंगाल क्रिकेट एसोसिएशन ने क्या सोचा कि ईडन गार्डन कीकीर्ति को वे भुना लेंगे. उन्हें ऐसा क्यों लगा कि इतने गंदे रखरखाव के बाद भी आईसीसी वहां मैच की इजाज़त दे देगा. मामला यह है कि कहीं बीसीसीआई और भारतीय क्रिकेट में हमेशा चलने वाली राजनीति ने तो कहीं ईडन गार्डन पर धब्बा नहीं लगा दिया. क्या इस बार भी वही हुआ जो राष्ट्रमंडल खेल के दौरान हुआ था. क्या यहां भी घूसखोरी और भ्रष्टाचार का खेल खेला गया. जब बंगाल क्रिकेट एसोसिएशन ने तीन बार स्टेडियम को तैयार करने की अंतिम समय सीमा लांघ दी तो फिर जगमोहन डालमिया की सारी अपील और दलील खोखली साबित होती हैं. कुछ लोगों का मानना है कि बंगाल क्रिकेट एसोसिएशन के पास ईडन गार्डन को तैयार करने की कोई रणनीति ही नहीं थी. जब उन्हें पुनर्निमाण चरणों में करना चाहिए था तो उन्होंने सारे काम एक साथ करने का मूर्खतापूर्ण फैसला क्यों लिया? लेकिन, इंटरनेशनल क्रिकेट कांउसिल यानी आईसीसी को भी पूरी तरह बरी नहीं किया जा सकता. आईसीसी को पता था कि बहुत सारे स्टेडियमों को ठीक करना था. ये आईसीसी की ज़िम्मेदारी थी कि वो इन सारे निर्माण कार्यों को लगातार अपनी नज़र में रखता और अपना अंतिम निर्णय होने वाले प्रथम मैच के एक महीने पहले ही बता देता. आदर्श स्थिति तो यह होती कि आईसीसी सारे कार्यों और योजनाओं की समीक्षा और अध्ययन करता और एसोसिएशन को अपने हिसाब से सलाह देता. क्योंकि आईसीसी के पास हर मामले के विशेषज्ञ थे, जिन्होंने ब़डे-ब़डे स्टेडियमों का निर्माण करवाया था. वो चाहते तो तैयारियों का मूल्यांकन भी कर सकते थे. आईसीसी को अपनी तकनीकी टीम को स्थानीय क्रिकेट एसोसिएशन को मदद देने की सोचनी चाहिए थी. क्या आईसीसी ने ईडन गार्डन के निर्माण कार्य को इससे पहले समय रहते देखने का प्रयास किया था. हुआ यह कि थो़डा-थो़डा करके सारा काम इकट्ठा होता गया और अंत में काम इतना ब़ढ गया कि सारी एजेंसियां और जो भी लोग ईडन गार्डन के रखरखाव से जुड़े थे, आपस में समन्वय नहीं बैठा पाए और एक बार फिर विश्व पटल पर भारत की किरकिरी हो गई. सबसे ब़डी बात यह है कि सिर्फ ईडन गार्डन ही खस्ता हाल में नहीं है बल्कि वानखे़डे स्टेडियम की भी कुछ यही कहानी है.

 यहां भी वही ग़लतियां की गई हैं जो ईडन गार्डन में हुई. सबसे चौकाने वाली बात यह है कि ईडन गार्डन के नए स्टेडियम में पहले से 20 हज़ार सीटें कम हो गई होंगी. वानखे़डे स्टेडियम में ये कमी 5 हज़ार की है. सवाल यह है कि जब आईसीसी का किसी भी बात पर कोई नियंत्रण नहीं है तो इतने ब़डे आयोजन कराने की ज़रूरत क्या है? शर्मनाक बात यह भी है कि आईसीसी के वर्तमान अध्यक्ष भारत के ही कृषि मंत्री शरद पवार हैं और बंगाल एसोसिएशन क्रिकेट के अध्यक्ष जगमोहन डालमिया हैं, जो कि पूर्व आईसीसी अध्यक्ष हैं. याद रखने की बात यह है कि यह खेल भारत में क्रिकेट के साथ पहली बार नहीं हुआ है. पहले भी खराब पिचों और अधिकारियों का नकारापन सामने आता रहा है. लेकिन इस सबसे कभी भी कोई सबक नहीं लिया गया. दिसंबर 2009 में ऐसा ही कुछ फिरोज शाह कोटला मैदान, दिल्ली के साथ हुआ था. भारत और श्रीलंका का मैच पिच के खतरनाक तरीक़े से उछाल लेने की वजह से रद्द करना प़डा था. जो लोग इस पिच को बनाने के ज़िम्मेदार थे, उन्होंने ग़ैर पेशेवर और ग़ैर ज़िम्मेदाराना तरीक़े से सारा काम किया था.


 भारत को खेल जगत में अपनी किरकिरी कराने का खासा अनुभव हो चुका है. अभी राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार से उठी बदबू दबी भी नहीं थी कि क्रिकेट जगत की स़डांध लोगों के सामने आ गई. क्या वाकई क्रिकेट वर्ल्ड कप की तैयारियों में भी एक ब़डे भ्रष्टाचार का मामला सामने आ सकता है? सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि अभी कुछ ही समय पहले जब दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेल की तैयारी चल रही थी तब भी यही सब तमाशा हुआ था. अंतरराष्ट्रीय जांच दल ने कहा कि स्टेडियम का काम पूरा नहीं है और संभव है कि खेलों का आयोजन स्थगित हो जाए. हालांकि, जैसे-तैसे काम पूरा हुआ. खेल का आयोजन भी हुआ. खेल से पहले और खेल के बाद भी राष्ट्रमंडल आयोजन समिति का भ्रष्टाचार देश के सामने निकल कर आया. क्या क्रिकेट जगत में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिलने वाला है? 

Monday, February 14, 2011

राष्‍ट्रकवि दिनकर के मकान पर जबरन कब्‍जा

 देश की उस महान कवि के अपमान की, जिसने न स़िर्फ अपनी लेखनी से देश को कई कालजयी रचनाएं दी हैं, बल्कि देश की आज़ादी की लड़ाई में भी महत्वपूर्ण भूमिका भी अदा की है. इससे ज़्यादा दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है कि जिस आदमी ने देश को आज़ाद कराया, आज उसी का मकान उसके अपने लोगों ने ही क़ब्ज़ा लिया है.


मेरा भाई उप मुख्यमंत्री है और मेरा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है. यह धमकी है बिहार के उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी के भाई महेश मोदी की. इस धमकी से एक बार फिर साबित हो गया है कि हमारे देश में महापुरुषों की क्या हैसियत रह गई है. हालत यह है कि अब उनके मकानों पर भी क़ब्ज़ा किया जा रहा है. ताज़ा मामला, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का है.

 पटना स्थित उनके घर पर उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के भाई महेश मोदी ने क़ब्ज़ा कर रखा है. न स़िर्फ क़ब्ज़ा कर रखा है, बल्कि अपने भाई के मंत्री पद केज़ोर पर उनको घर से निकालने की धमकी भी दी है.. दरअसल, पटना के राष्ट्रकवि दिनकर गोलंबर से सटे आर्य कुमार रोड पर स्थित दिनकर भवन है. 
यह भवन सुविख्यात कवि रामधारी सिंह दिनकर का है. कुछ साल पहले दिनकर जी की विधवा पुत्रवधू हेमंत देवी ने बिहार के उपमुख्यमंत्री के भाई महेश मोदी को भवन परिसर में स्थित एकमात्र दुकान किराए पर दी थी. इस दुकान को तीन साल के इक़रार नामे पर किराए पर दिया गया था. जब 30 अप्रैल 2010 को यह इक़रारनामा खत्म हो गया तो महेश मोदी को दुकान खाली करने के लिए कहा गया. महेश मोदी ने दुकान खाली करना तो दूर उलटा घरवालों को धमकाना शुरू कर दिया.

 जब मामले की शिकायत करने की बात कही गई तो ऐसे में महेश मोदी का जवाब था कि जहां जाना चाहते हैं जा सकते हैं, मेरा भाई उप मुख्यमंत्री है. मेरा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है. बार-बार दुकान खाली करने का आग्रह करने पर उप मुख्यमंत्री के लाडले महेश ने यह तक कह डाला कि दुकान के साथ-साथ एक महीने के अंदर पूरे मकान पर क़ब्ज़ा कर लेंगे. चौथी दुनिया से जब इस संबंध में दिनकर जी के परिवार से बात की तो कई बातें सामने आईं. दिनकर जी के पौत्र अरविंद कुमार ने बताया कि इस मामले को लेकर मुख्यमंत्री आवास एक अणे मार्ग जाकर नीतीश कुमार से गुहार भी लगा चुके हैं, लेकिन वहां से उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ा. इसके अलावा उन्होंने इस धमकी की लिखित जानकारी उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी और बिहार के सभी राजनीतिक दलों के पास भेजी है. लेकिन अभी तक इस मामले पर कोई भी कार्रवाई नहीं की जा सकी है. 

इसलिए उन्होंने राजघाट पर शांतिपूर्ण धरने पर बैठने का फैसला लिया. जब हमने उनसे पूछा कि अगर धरने के बाद भी काई बात नहीं बनी तो क्या करेंगे? इस पर अरविंद कुमार का कहना था हमसे जो बन पड़ा, हमने किया. अगर फिर भी हमें मदद नहीं मिली तो हम सीधे प्रधानमंत्री को ज्ञापन सौपेंगे. हालांकि, यहां पर बात स़िर्फ अवैध क़ब्ज़े की नहीं है, बात है देश की उस महान कवि के अपमान की, जिसने न स़िर्फ अपनी लेखनी से देश को कई कालजयी रचनाएं दी हैं, बल्कि देश की आज़ादी की लड़ाई में भी महत्वपूर्ण भूमिका भी अदा की है. इससे ज़्यादा दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है कि जिस आदमी ने देश को आज़ाद कराया, आज उसी का मकान उसके अपने लोगों ने ही क़ब्ज़ा लिया है. यह स़िर्फ दुर्भाग्य ही नहीं बल्कि शर्मनाक भी है कि मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री को इस बात का संज्ञान है और तब भी कोई कार्रवाई नहीं हुई. अपनी पीड़ा का अंत न होते देख आ़खिर दिनकर जी के परिवार ने पिछले दिनों नई दिल्ली में महात्मा गांधी की समाधि राजघाट के सामने शांतिपूर्ण धरना दिया. इस धरने में दिनकर जी की के परिवार के अलावा राम विलास पासवान भी विरोध करते दिखे. 


 सभी ने इस घटना की निंदा करते हुए जल्द ही उचित कार्रवाई की मांग की. अब इस पर कितनी कार्रवाई होती है यह तो आने वाला व़क्त ही बताएगा पर इतना तो तय है कि दिनकर जी का जो अपमान होना था वह हो ही गया. यह शांतिपूर्ण धरना अपनी खामोशी के पीछे कई सवाल छोड़ गया. वो सवाल जिनके जवाब न तो नीतीश के पास हैं और न ही सुशील मोदी के पास. सवाल उस पी़ढी से भी है जो रामधारी सिंह दिनकर को प़ढते हुए बड़ी हुई है. क्या इन सबका दिनकर जी के प्रति कोई फर्ज़ नहीं है. क्या आज मंत्रियों के रिश्तेदार महान कवि से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं? अगर हमारे दिल में देश के महापुरुषों के लिए इतनी भी इज़्ज़त नहीं बची है तो आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आने वाला कल कैसा होगा.

Monday, February 7, 2011

बुंदेलखंडः किराए की कोख, मजबूरी या शौक




 

उत्तर प्रदेश के बुदेलखंड क्षेत्र में अगर समस्याओं की बात की जाए तो का़फी लंबी फेहरिस्त बनती है. जिसमें बेरोजगारी, सूखा, भुखमरी और दस्यु सरगनाओं जैसी कई समस्याएं हैं. इन्हीं वजहों से बुंदेलखंड का सामाजिक और आर्थिक ढांचा चरमराया हुआ है. इन सबके बीच यहां के लोग किस तरह जीवन बसर करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है. ज़्यादातर भूमिहीन किसान मजदूरी के वास्ते यहां से पलायन कर चुके हैं और महिलाएं किसी तरह से रोज़ी-रोटी का इंतेज़ाम करने में लगी हैं.

 लेकिन अब रोजगार और रोज़ी-रोटी की मार ने यहां की महिलाओं और लड़कियों को इतना मजबूर कर दिया है कि वे अपनी कोख का सौदा करने पर अमादा हैं. यानी सरोगेट मदर बनकर पैसा कमाने को रोजगार बना रही हैं. बुंदेलखंड में महिलाओं और लड़कियों को रोज़ी-रोटी की मार ने इतना मजबूर कर दिया है कि वे अपनी कोख का सौदा करने पर आमादा हैं. यानी सरोगेट मदर बनना अब उनके लिए रोज़गार का एक ज़रिया बन गया है. उन्हें इस बात का भी एहसास नहीं हैं कि इस तरह से कोख का सौदा कर वह अपना ही स्वास्थ्य बिगा़ड रही हैं. जी हां, भारत में सरोगेसी का यह कारोबार अब बुंदेलखंड में भी फैल रहा है.

आर्थिक हालात इतने बदतर हो गए हैं कि अब बुंदेलखंड के विभिन्न इलाक़ों की कुंवारी लड़कियां अपनी कोख किराए पर देकर अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रही हैं. सरोगेसी की सबसे बड़ी वजह है ग़रीबी. जिसकी बुंदेलखंड में कोई कमी नहीं है. ग़रीब महिलाओं की पैसों की चाहत उन्हें इस कारोबर में उतरने को मजूबर करती है. यह मामला बिल्कुल वैसा ही है जैसे पुरुष ग़रीबी से तंग आकर अपना खून और किडनी बेचने को तैयार हो जाते हैं, ताकि उनके घर में चूल्हा जल सके.


 वैसे ही महिलाएं भी ग़रीबी के कारण अपनी कोख को किराए में देकर अपनी जान जोखिम में डालती हैं और अपने घर परिवार को छोड़कर दूसरे के बच्चे को पालती हैं. इससे पहले सरोगेसी भारत के कुछ ही राज्यों जैसे उड़ीसा, भोपाल, केरल, तमिलनाडु, मुंबई आदि में फैली थी. पर अब इस विदेशी कारोबार ने यहीं भी अपने पैर जमाने शुरू कर दिए हैं. विदेशी कारोबार इसलिए, क्योंकि अब तक सरोगेट मदर बनने की घटनाएं स़िर्फ विदेशों में ही सुनने को मिलती थीं. यहां एक बात ध्यान देने योग्य है, वह यह कि सरोगेसी ऐसे राज्यों में ज़्यादा देखने को मिलती थी, जहां पर्यटक ज़्यादा आते थे.

पर अब सरोगेसी के मामले बुंदेलखंड में भी मेट्रो सिटीज की तरह बढ़ रहा है. आलम यह है कि यहां कई अन्य राज्यों समेत विदेशों से दंपत्ति सरोगेट मदर की तलाश में आ रहे हैं. इस कारोबार का सबसे बूरा पक्ष यह है कि इसमें अविवाहित लड़कियों की भी बड़ी संख्या सामने आ रही है, जो पैसों की खातिर बिन ब्याही मां बनने को भी तैयार हैं. अभी भी देश में बिन ब्याही मां बनना समाज के लिए कलंक माना जाता है. पर अब चंद रुपयों की खातिर लड़कियां घर से महीनों दूर रहकर कोख किराए पर देने जैसा जोखिम भरा काम कर रही हैं. जब इस तरह की लड़कियों से ऐसा करने की वजह पूछी जाती है तो सबका अलग-अलग जवाब होता है. अपना पूरा भविष्य दांव पर लगाने को तैयार ये लड़कियां बड़ी बेबाकी से कहती हैं कि भविष्य की कोई गारंटी नहीं है.


आज हमें कुछ महीनों में ही लाखों रुपए मिल रहे हैं, वो भी बग़ैर कोई ग़लत क़दम उठाए, तो फिर इसमें हर्ज़ क्या है? बुंदेलखंड की रमा (परिवर्तित नाम) की बचपन में ही शादी हो गई. गौने से 3 महीने पहले ही पति ने दूसरी शादी कर ली. अब वह आत्मनिर्भर होना चाहती है, लेकिन इसमें ग़रीबी आड़े आ रही है. विभा ने इसके लिए सरोगेट मदर बनने का रास्ता चुना. इसी तरह सुनीता (परिवर्तित नाम) के माता-पिता की मृत्यु हो गई है. अब वह एक ऑफिस में रिसेप्शनिस्ट है. पर इस नौकरी से वह संतुष्ट नहीं है.

उसने आत्मनिर्भर होने के लिए सरोगेट मदर बनने का निर्णय लिया है. जब उससे यह पूछा गया कि क्या उसे ऐसा करने में समाज से डर नहीं लगता है. तो उसने कहा, जब मुझे भूख लगती है तो कोई पुछने नहीं आता, ऐसे में डरे किससे? क्या उस समाज से डरूं, जो मेरी मदद नहीं कर सकता. इस तरह न जाने कितनी लड़कियां है, जो अपनी जिम्मेदारी और इच्छाओं की पूर्ति के लिए अपनी कोख का सौदा कर रही हैं. आगरा की झुग्गी बस्ती में काम करने वाले एक ग़ैर सरकारी संगठन ने क़रीब एक साल पहले एक सर्वेक्षण कराया. इस सर्वे में यह बात सामने आई थी कि वहां की अधिकांश महिलाएं मजबूरी में किराए की कोख पालती हैं.

 कुछ महिलाएं घरवालों की मर्ज़ी से ऐसा कर रही हैं. उन महिलाओं का दर्द असहनीय था, जो चुपके -चुपके  ऐसा करते पाई गईं. वह घरवालों को बता नहीं सकतीं. पति कमाता नहीं है, इसलिए बिना बताए ही किसी धनवान जोड़े के लिए बन जाती हैं सरोगेट मदर. ऐसी महिलाओं को समाज की भी चिंता रहती है. अपने पास रह रही औलाद की भी चिंता कचोटती रहती है. फिर भी दूसरों की औलाद को पैदा होने से पहले पालती हैं. अब आपको बताते हैं कि यह कारोबार कैसे होता है. सरोगेट मदर को अपनी कोख की कितनी क़ीमत मिलती है और कैसे यह बुंदेलखंड तक पहुंचता है. दरअसल, सरोगेट मदर की खोज के लिए पहले डॉक्टर की सलाह ली जाती है, फिर विभिन्न अ़खबारों में और आज-कल तो इंटरनेट पर भी सरोगेट मां की खोज की जाती है.

 उसके  बाद महिला की पूरी मेडिकल जांच की जाती है कि कहीं उसे कोई रोग तो नहीं है. सरोगेट मां की उम्र अमूमन 18 साल से 35 साल के बीच होती है. सरोगेट मां का सारा खर्च वही लोग उठाते हैं, जिन्हें बच्चा चाहिए और रही बात क़ीमत की तो, किराए पर कोख लेने का खर्च भारत में जहां तीन-चार लाख तक होता है, वहीं दूसरे देशों में कम से कम 35-40 लाख रुपए तक खर्च आता है. वजह सा़फ है कि क्यों विदेशी भारत कर रुख कर कर रहे हैं. इसके अलावा बांझपन भी सरोगेसी की एक बड़ी वजह मानी जाती है. बांझपन के  कारण महिलाएं भी अपने पति का इस कृत्य में साथ देने को तैयार हो जाती हैं. भारत के दक्षिणी इलाक़ों से शुरू हुआ यह कारोबार बुंदेलखंड जैसे इलाक़े तक पहुंच गया है. हालांकि बीच-बीच में खबरें आती रहती हैं कि सरकार इस कारोबार को नियंत्रित रखने के लिए कई प्रावधान बना रही है, लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है. विशेषज्ञों के मुताबिक़ भारत में सरोगेसी इसलिए भी आसान है, क्योंकि हमारे यहां अधिक क़ानून नहीं हैं, और जो हैं उनकी नज़र में यह मान्यता प्राप्त है. यही वजह है कि आज सरोगेसी एक विवादास्पद मुद्दा बनता जा रहा है.



ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जिनमें सरोगेट मदर ने बच्चा पैदा होने के बाद भावनाओं के आवेश में आकर बच्चे को उसके क़ानूनी मां-पिता को देने से इंकार कर दिया. इसके अलावा सबसे ज़्यादा गंभीर मामले तब पैदा होते हैं, जब सरोगेट मां की कोख से पैदा हुआ बच्चा विकलांग हो या फिर करार एक बच्चे का हो और जुड़वा बच्चे हो जाएं. ऐसे में जेनेटिक माता-पिता बच्चे को अपनाने से इंकार करने लगते हैं. साथ ही भारत में एक बात और विवाद का विषय है. वह है विदेशी ग़े-दंपतियों को बच्चा कैसे दिया जाए? टेस्ट ट्यूब बेबी सेंटर के एक संचालक कहते हैं कि कोख किराए पर देने वाली महिलाओं की संख्या ब़ढने की असली वजह, इनके लिए उपलब्ध मार्केट है. वहीं उच्च वर्ग की महिलाएं अपने फिगर को मेंटेन रखने, गर्भपात होने से पैदा होने वाली परेशानियों से बचने के लिए सरोगेट मदर की मदद लेना ज़्यादा बेहतर समझती हैं. गर्भधारण का अनुभव प्रमाण सहित होना ज़रूरी है. इसके लिए विवाहित होने की बाध्यता नहीं है. अविवाहित लड़िकयां भी गर्भधारण का अनुभव होने पर सरोगेट मदर बन सकती हैं. हालांकि इसमें विवाहिता के पति की अनुमति ज़रूरी है.

 अविवाहिता और तलाकशुदा के लिए केवल उसकी अपनी मर्ज़ी ही का़फी है, जबकि तलाक के लंबित मामलों में महिला कोख किराए पर नहीं दे सकती. महिला को ऐसी कोई बीमारी न हो, जिसके बच्चे में स्थानांतरित होने की आशंका हो और उसकी उम्र 21 से 45 साल के बीच हो. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च डॉ. आर.एस. शर्मा की मानें तो सरोगेट मांओं का स्वास्थ्य चिंता का विषय है. हालांकि इस कारोबार का कुछ लोग सकारात्मक पहलू भी निकालते हैं. डॉक्टर पटेल के मुताबिक गर्भ धारण न कर पाना किसी भी दंपत्ति के लिए बहुत दुखद होता है. इसके लिए सरोगेसी एक अच्छा ज़रिया है.




लेकिन अब भारत सरकार सरोगेसी के इर्द-गिर्द कुछ नियम बनाने वाला है. क्योंकि इस कारोबार के बढ़ने के साथ-साथ इसमें होने वाली कुछ गड़बड़ियों को भी बढ़ावा मिल सकता है. सरकार तो खैर इन नियमों में समय-समय पर संशोधन करती रहेगी, लेकिन तब तक बुंदेलखंड में इस तरह के मामलों के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाएगा. क्योंकि यह मसला इतना साधारण नहीं है जितना इसे समझा जा रहा है. क्योंकि अगर बुंदेलखंड की ज़्यादातर महिलाएं और लड़कियां अपनी-अपनी मजबूरी का वास्ता देकर शॉर्टकट में पैसे कमाने के इस कारोबार के जुड़ जाएंगी तो परिणाम घातक होंगे. इससे न स़िर्फ सामाजिक ढांचा बिगड़ेगा बल्कि जान का भी जोखिम होगा.